Monday, September 15, 2008

जूते की जात

विक्रम सोनी

उस दिन अचानक धर्म पर कुण्डली मारकर बैठे पण्डित सियाराम मिसिर की गर्दन न जाने कैसे ऐंठ गयी और उन्हें महसूस हुआ कि उनकी गर्दन में 'हूल' पैदा हो गया है। पार साल लखमी ठाकुर के भी 'हूल' उठा था।
अगर रमोली चमार उसके हूल पर जूता न छुआता तो… कैसा तड़पा था। यह सोचकर उन्हें झुरझुरी लगने लगी, तो क्या उन्हें भी रमोली चमार से अपनी गर्दन पर जूता छुवाना होगा। हुँ! वह खुद से बोले ,''उस चमार की यह मजाल!" तभी उनकी गर्दन में असहनीय झटका सा लगा और वे कराह उठे।
"अरे क्या है- बस जरा जूता ही तो छुवाना है। उसके बाद तो गंगा जल से स्नान कर लेंगे । जब शरीर ही न रहेगा चंगा तो काहे का धर्म पुण्य?"
रमोली को देखते ही मिसिरजी ने उसे करीब बुलाकर कहा,"अरे रमोलिया, ले तू हमारा गरदनियाँ में तनिक जूता छुवा हूल भर गइलबा ।"
"ग्यारह रुपया लूँगा मिसिरजी ।"
" का कहले? हरामखोर , तोरा बापो कमाइल रहलन ग्यारह रुपल्ली ?"
"मिसिरजी, इस जूते को कोई खरीदेगा नहीं न! और में झूठ बोल कर बेचूँगा नहीं!"
"खैर, चल लगा जूता, आज तोर दिन है। देख, धीरे छुआना तनिक, समझे!"
जब रमोली जूता लेकर टोटका दूर करने उठा तो उसकी आखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गये जुल्मोसितम और अपमान के दृश्य साकार हो उठे ।
उसने अपनी पूरी ताकत से मिसिरजी की गर्दन पर जूता जड़ दिया । मिसिरजी के मुख से एक प्रकार की डकराहट पैदा हुई, ठीक वैसी ही जब मिसिरजी ने उसके पिता पर झूठा चोरी का इल्जाम लगाया था और मिसिरजी के गुण्डे लाठी से उसे धुन रहे थे। तब बाप की दुहाई वाली डकराहट क्या वह भूल पायेगा ?
"अरे मिसिर देख, तोरा हूल हमार जुतवा मा बैठ गैइल।" और मिसिर की गर्दन तथा चाँद पर लाठियों के समान जूते पड़ने लगे। गाँव वाले हैरान थे, किन्तु विचित्र उत्साह से इस दृश्य को देख रहे थे।

आंधी


चित्रेश

ठाकुर रघुराज सिंह को रमेसरा का रग-ढ़ंग जरा भी न सुहाता था । ऐसा भी क्या हलवाहा कि बस काम से काम । बात - व्यवहार की दमड़ी भर अकल नहीं । ठाकुर अपनी तरफ़ से खेती- बाड़ी की चर्चा छेड़ते तो भी उस चढ़ती उम्र के लौंडे के चेहरे का भकुआपन न दरकता, जबकि रघुराज सिंह इस मौके पर उसके मुँहासों भरे गहरे सावँले चेहरे पर पालतूपन की तरलता देखने का प्रयास करते थे । वे अपना मन समझाने के लिए अक्सर सोचते - अभी जल्दी ही बाप मरा है। गम भूलते ही रास्ते पर आ जायेगा।
मगर रमेसरा ठहरा पक्का बागी। उस दिल हल बैल खूँटे से लगा वह पनपियाव की तैयारी कर रहा था कि सामने से रघुराज सिंह आ गए। उसने कौढ़ भर की डली दिखाते हुए उजब किया, "बाबू साहेब!ठ्कुराइन भखरी के अन्दर से इतना- सा गुड़ भेजकर बगदा देती है। इससे मुँह भी नहीं मिठाता।"
ठाकुर अवाक् ! ऐसी बात कभी नहीं उठी थी। खुद इसका बाप जगेसरा बीस बरस इसी देहरी की गुलामी करके चुपचाप मर गया, लेकिन ये कल का छोकरा कैसी आँखें तरेरे ताक रहा है। लिहाज का नाम - निशान नहीं। मन की कड़वाहट चेहरे की इक्का- दुक्का झुर्रियों को गहराती त्योरियाँ तान गई। इच्छा हुई आज कर ही दे मनहूस का पनहिया सराध! पर जमाने की हवा जरा- सी बात मसले में बदल सकती थी।
अब दीन - ईमान तो रहा नहीं,बस दूसरे को हड़प जाने की नीयत बाँधते बैठे हैं। तिस पर रमेसरा ठहरा अकेला, न बीवी , न बच्चे, माँ का क्या भरोसा, चालीस साल की चामारिन खाँ रंडापा भोगने यहाँ बैठी रहेगी! किसी का घर चोखट करेगी ही । ऐसे मे यह भी गुस्सा में भाग - वाग गया तो।
इस ऊहापोह के बीच उन्हें मरते समय जगेसरा पर बकाया अनाज का सवाई ड़ेढ़ी की बैसाखी पर निरन्तर बड़ा होता ढेर और बदले मैं मिला मजबूत और टिकाऊ हलवाहा गायब होता दिखने लगता है…वे क्षण भर में संभल गए। बनावटी प्रेम से बोले,"देख बेटा, गुड़ की थोड़ाई पर न जा। ईसकी मिठास का ख्याल कर। ऐसी चीजें कोई भर पेट खाई जाती हैं।"
रमेसरा खून का घूँट पीकर रह गया। दूसरी बेला में वह हल लेकर खेत पर पहुँचा और हर एक कुण्ड में कई- कई मरतबा हल चला, खूब गहरी जुताई करने लगा। शाम को टहलते हुए ठाकुर साहब खेत में पहुँचे। मन में दबी गुस्से की आग शोला बनकर बनकर लपक उठी," अरे अब क्या तमाशा देख रहा है? अब तक सारा खेत जुत जाता, मगर तू सिर्फ पन्द्रह -बीस कुंड…"
" बाबू साहेब कुंड काहे गिनते हैं, इसकी गहराई देखें, गहराई।" रमेसरा ने निर्भीक होकर उनकी आँखो में झाँकते हुए जवाब दिया था… और रघुराज सिंह एकदम सन्न रह गए। जमाने की हवा एक बार फिर उन्हें आंधी मे परिवर्तित होती दीख रही थी ।

रुतबा



माधव नागदा

गाँव में दो शादियाँ एक ही दिन थी । सौभाग्यकांक्षिणी ठाकुरपुत्री के बरात आ रही थी , जबकि चिरंजीव चमार की बरात जा रही थी । मह्त्व लगन का उतना नहीं था, जितना कि महारात्रि का । इस रात धूम - धड़ाके और बाजे - गाजे के साथ दुल्हा , दुल्हन की बन्दोली निकलने वाली थी। किसी ने ठाकुर साहब को सूचना दी , "इस बार चमारों की बन्दोली घोड़े पर निकलेगी ।"
ठाकुर साहब पहले ही से मूँछों को बट दे रहे थे । बट खा - खा कर जब मूँछें केकड़े के डंक की तरह हो गयी तो वे बोले , "लट्ठ बाजों को कह देना तैयार रहें ।"
"अरे नहीं ,हुजूर । कानून इन्ही का रखवाला है। आजकल तो सीधा गैरजमानती वारंट आता है । कुछ ऐसी तरकीब भिड़ाई जाय कि अपनी बंदौली का रुतबा ऊँचा रहे।"
"हम माइक वाला बैँण्ड लायेंगे ।"
"हुकुम ,चमार भी वही ला रहे हैं ।'
"तो हम साथ मैं जनरेटर भी लायेंगे। दोनों ओर दस-दस ट्युबलाईटें।"
"बड़ो हुकुम , वे बारह-बारह ला रहे हैं।"
"अच्छा ।" ठाकुर साहब की बायीं मूँछ फड़की । वे कुछ देर सोचते रहे । एकाएक उनकी आँखो में चमक दौड़ गयी, " अपने बाइसा की बंदोली कार में निकालेंगे । है हिम्मत चमारों की ?
" परंतु अन्न्दाता , रास्ता बहुत खराब है , सँकरा है । पिछ्ली बार अकाल राहत का पैसा आया, वह सब तो हवेली में…।"
ठाकुर साहब गाँव के सरपंच भी थे । अकाल राहत के धन ने उन्हें कितनी राहत दी , वे खूब अच्छी तरह जानते थे। इसलिए बोले कुछ नहीं , सिर्फ आँखें तरेरीं और फिर से सोचमग्न हो गये । सोचते -सोचते न जाने क्या बात सूझी कि जोर से हँस पडे। एक दीवारकम्प ठहाका। जब हँसी कुछ रुकी तो पेट थाम कर बोले , "अच्छा ही किया जो हमने मार्ग नहीं बनवाया, वरना ये चमारटे कार भी ले आते," फिर जरा तेज होकर बोले , "रुतबे की ही बात करते हो तो बोलो , हमारे मुकाबले की हवेली है, किसी चमार के पास? बोलो, है?"

Monday, September 8, 2008

चुनौती


भगीरथ
ठुकराई की ठसक रखने वाले सुमेरसिंह ने बादामी के बापू भैरा भांबी को बुलवाया । भैरा 'जै माता जी 'कह आंगन में उकडूँ बैठ गया।
सुमेरसिंह ने जमाने के तेवर भाँपते हुए अपनी ठसक छोड ,समझाईश करने लगे 'देख भैरा,जो हो गया सो तो हो गया, जवानी के जोश में होश कहाँ रहते हैं ,नादानी कर बैठा, नालायक कहीं का, चाहो तो हमारे जूते मार लो लेकिन हमारे बेटे को माफ़ कर दो।
तुम्हारा-हमारा पीढियों से व्यवहार चला आ रहा हैं । हमारें व्यवहार में आग लगाई का कोई फ़ायदा नहीं , आज जो तेरे पीछे खडे है न ,वे कल दिखाई नहीं देंगे
ये शब्द सुमेरसिंह की ठसक को चूर-चूर कर रहें थे , उसके अहंकार और श्रेष्ठता को आहत कर रहे थे ,लेकिन क्या करें ,समय ही ऐसा है।
बादामी का बापू चुप्प ,बोले तो क्या बोले ? हमेशा 'हाँ हुकुम ' कहता रहा है। ठाकुर कों गिडगिडाते देख उसे अच्छा लगा, उसके कलेजे में ठंडक पड गई । ह्र्दय कह रहा था बिचारा मांफ़ी माग रहा है, माफ़ कर दो। कैसे माफ़ कर दे सुमेरसिंह के बेटे को जिसने सरेआम हथियार बंद खुली जीप में बदामी को उठा लिया, कैसे माफ़ करें उस हरामी के पिल्ले को, जिसने उसकी इज्जत पर सरेआम हाथ डाला। कोई माफ़ी-वाफ़ी नहीं ।युगों से चला आ रहा यह अत्याचार और अपमान, अब यहीं रूकेगा। सोचते -सोचते उसका चेहरा सख्त हो गया ।ठाकुर ने बादामी के बापू का प्रतिक्रियाहीन सख्त चेहरा देख पेंतरा बदला । 'ठीक है, फ़िर यह जंग भी लड़ के देखलो। हाँ इतना जान लो कि चाकू और खरबूजे की जंग में , पेट खरबूजे का ही फटता है, बाप होकर बेटी की बदनामी करवा रहे हो, अब तो बात अखबारों तक पहुँच गई है , बदनामी तो गाँव की बेटी की हो रही है न ।
पूरा दलित समाज बदामी के बापू के पीछे खड़ा है। अब तो यह पूरे दलित समाज के मान-सम्मान की लडाई हो गई है। दलितों के जत्थे-के-जत्थे थाने के आगे धरने पर नहीं बैठते तो क्या पुलिस एफ़.आई.आर. लिखती ? उग्र रैली नहीं निकली होती तो क्या इस घटना को अखबार में जगह मिलती ?
इस आंदोलन को बढ़ते देख दलित मंत्री और विधायक भी बिन मांगे समर्थन दे रहे हैं । सरकार पर दबाव बन रहा है। गिरफ़्तारी तो हो ही गई, अब जमानत भी नहीं होगी । बिना लडें तो इनके अभिमान ,श्रेष्ठता और उच्चता की गांठे टूटेगी भी नहीं । सम्मान पाना है, तो लड़ना तो होगा ही । लड़ने के तमाम जोखिम उठाने ही पडेगे । यह सोचते हुए भैरा भांबी चुनौती की मुद्रा में खडा हो गया। ।
'