Monday, August 31, 2009

मकड़ियाँ

'ज्ञानसिंधु' में आपका व्यंग्य 'क्रेडिट कार्ड' पढ़ा। बहुत बढ़िया लगा। बाज़ारवार के चलते क्रेडिट कार्ड की त्रासदी को झेलते आज के मध्यम-निम्न मध्यम वर्ग के आदमी की त्रासदी को रेखांकित करने का प्रयास दो तीन वर्ष पूर्व मैंने अपनी लघुकथा 'मकड़ियां' में किया था। इसे सबसे पहले पूर्णिमा बर्मन जी ने 'महानगर की लघुकथाएं' के अन्तर्गत अपनी वेब पत्रिका "अभिव्यक्ति" में "मकड़ी" शीर्षक से छापा था और अभी गत वर्ष 2008 में कमल चोपड़ा ने अपने वार्षिक संकलन "संरचना" भी इसे शामिल किया है। आपको यह लघुकथा भेज रहा हूँ। क्या आप इसे 'ज्ञानसिंधु' के पाठकों के सम्मुख रखना चाहेंगे ?
मकड़ियाँ
सुभाष नीरव
0अधिक बरस नहीं बीते जब बाजार ने खुद चलकर उसके द्वार पर दस्तक दी थी। चकाचौंध से भरपूर लुभावने बाजार को देखकर वह दंग रह गया था। अवश्य बाजार को कोई गलत-फहमी हुई होगी, जो वह गलत जगह पर आ गया - उसने सोचा था। उसने बाजार को समझाने की कोशिश की थी कि यह कोई रुपये-पैसे वाले अमीर व्यक्ति का घर नहीं, बल्कि एक गरीब बाबू का घर है, जहां हर महीने बंधी-बधाई तनख्वाह आती है और बमुश्किल पूरा महीना खींच पाती है। इस पर बाजार ने हँसकर कहा था, ''आप अपने आप को इतना हीन क्यों समझते हैं ? इस बाजार पर जितना रुपये-पैसों वाले अमीर लोगों का हक है, उतना ही आपका भी ? हम जो आपके लिए लाए हैं, उससे अमीर-गरीब का फर्क ही खत्म हो जाएगा।'' बाजार ने जिस मोहित कर देने वाली मुस्कान में बात की थी, उसका असर इतनी तेजी से हुआ था कि वह बाजार की गिरफ्त में आने से स्वयं को बचा न सका था। अब उसकी जेब में सुनहरी कार्ड रहने लगा था। अकेले में उसे देख-देखकर वह मुग्ध होता रहता। धीरे-धीरे उसमें आत्म-विश्वास पैदा हुआ। जिन वातानुकूलित चमचमाती दुकानों में घुसने का उसके अन्दर साहस नहीं होता था, वह उनमें गर्दन ऊँची करके जाने लगा।
धीरे-धीरे घर का नक्शा बदलने लगा। सोफा, फ्रिज, रंगीन टी.वी., वाशिंग-मशीन आदि घर की शोभा बढ़ाने लगे। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में रुतबा बढ़ गया। घर में फोन की घंटियाँ बजने लगीं। हाथ में मोबाइल आ गया। कुछ ही समय बाद बाजार फिर उसके द्वार पर था। इस बार बाजार पहले से अधिक लुभावने रूप में था। मुफ्त कार्ड, अधिक लिमिट, साथ में बीमा दो लाख का। जब चाहे वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ने पर ए.टी.एम. से कैश। किसी महाजन, दोस्त-यार, रिश्तेदार के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं।
इसी बीच पत्नी भंयकर रूप से बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने आप्रेशन की सलाह दी थी और दस हजार का खर्चा बता दिया था। इतने रूपये कहां थे उसके पास ? बंधे-बंधाये वेतन में से बमुश्किल गुजारा होता था। और अब तो बिलों का भुगतान भी हर माह करना पड़ता था। पर इलाज तो करवाना था। उसे चिंता सताने लगी थी। कैसे होगा? तभी, जेब मे रखे कार्ड उछलने लगे थे, जैसे कह रहे हों- हम है न ! धन्य हो इस बाजार का! न किसी के पीछे मारे-मारे घूमने की जरूरत, न गिड़गिड़ाने की। ए.टी.एम.से रूपया निकलवाकर उसने पत्नी का आप्रेशन कराया था।
लेकिन, कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाजार अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी तनख्वाह खत्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढाई का खर्च बढ़ रहा था। हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, आफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट टाइम करने लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर पाता था। बकाया रकम और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चैन छीन लिया था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, बमुश्किल आँख लगती तो सपने में जाले ही जाले दिखाई देते जिनमें वह खुद को बुरी तरह फंसा हुआ पाता।
छुट्टी का दिन था और वह घर पर था। डोर-बेल बजी तो उसने उठकर दरवाजा खोला। एक सुन्दर-सी बाला फिर उसके सामने खड़ी थी, मोहक मुस्कान बिखेरती। उसने फटाक- से दरवाजा बन्द कर दिया। उसकी सांसे तेज हो गई थीं जैसे बाहर कोई भयानक चीज देख ली हो। पत्नी ने पूछा, ''क्या बात है ? इतना घबरा क्यों गये ? बाहर कौन है ?''
''मकड़ी !'' कहकर वह माथे का पसीना पोंछने लगा।
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Thursday, August 20, 2009

क्रेडिट कार्ड

फ्रीज खरीदना है ? पैसे नहीं है ? कोई बात नहीं , चिंता मत कीजिए , हम हैं न आपकी सेवा के लिए हमारा क्रेडिट कार्ड लीजिए, दुकानदार को दीजिए , एक साईन कीजिए और फ्रीज ले आइये । है न सरल तरीका । क्या कहा ? आपके पास आई.सी.आई.सी.आई का क्रेडिट कार्ड पहले से ही है । कोई बात नहीं , आप दूसरा लें, जरूरत आपको फिर भी पड़ सकती है । खुदा न करे बीमार हो जायें , आपरेशन कराना पड़ जाये , सीधे भरती हो जाइये , और निश्चित होकर इलाज कराएं और स्वस्थ होकर घर जायें। तब आप हमें धन्यवाद देंगे कि बंदे ने क्या चीज दी थी - क्या कहते है? , आपके पास तीन -2 क्रेडिट कार्ड हैं अच्छा है , चौथा भी लीजिए । चौथा लेने में कोई पाबंदी नहीं है ।
चले जाइए ! चले जाइए ! बहुत हो गया अभी सांस लेने की जगह बची है , चौथा देकर , तुम मुझे कर्जे में पूरा ही डूबा दोगे । एक दिन ऐसा आयेगा कि मेरी लाश पंखे से झूलती नजर आयेगी ।
क्यों ? क्या हुआ मैं तो तुम्हारी सहुलियत के लिए कह रहा हूँ कूज पर मजे करने हो , हवाई जहाज का सफर करना हो , विदेश यात्रा करनी हो । होटल में रूकना हो , विदेशों में खरीद - फरोख्त करना हो क्रेडिट कार्ड सब दुखों की रामबाण दवा है । रूपया पैसा ले जाने की झंझट नहीं । चोरी -चकारी का डर नहीं । बिंदास विदेशी यात्रा करो । हमारे कार्डधारी को 20 प्रतिशत डिस्काउन्ट मिलता है और हवाई कम्पनियाँ , होटल आदि बम्पर लाटरी भी निकालते है , कहीं आपकी लाटरी लग गई तो क्या कहने , सारे कर्जे दूर , जुहू बीच पर नया बंगला , मर्सडीज बेज गाड़ी इन्तजार करेगी ।
तब तो आप हमें अवश्य धन्यवाद देंगे
‘मेरे बाप , मैं डूब चुका हूँ क्रेडिट कार्ड वाले कई तरह के चार्ज लेकर , कर्ज की राशि पर 40 प्रतिशत तक ले लेते हैं बैंक में जमा कराओं तो साले 6 प्रतिशत देते है । हमें लूटने के क्या -2 इन्तजाम कर रखे है ।
मत लीजिए । बिल्कुल मत लीजिए । मैं नहीं चाहता कि आप क्रेडिट कार्ड लें
वे अपने बैग से दूसरा फार्म निकालते हैं
‘हमारी कम्पनी 0 प्रतिशत ब्याज दर कर्ज देती है मनचाही किश्तों में भुगतान कीजिए ।
लीजिए यहाँ साइन कीजिए पैसा उठाइये और कार ले आईये , एसी. ले आइये जो चाहो सो ले आओ ,
हम आपकी सेवा में हमेशा हाजिर है ।
अब सर यह मत कहिएगा कि 0 प्रतिशत से भी कम ब्याज लें ।
वे हैं हैं कर हॅंसने लगे । वह चिंतित सा सोचने लगा साइन करे या न करे एसी. तो लेना ही हैं सो फाइनेंस कम्पनी के कागजात पर हस्ताक्षर कर देता है ।
आखिर मछली जाल में फँस ही गयी ।

Sunday, August 9, 2009

डा. शकुंतला किरण की शोध पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा ’ का लोकार्पण

डा. शकुंतला किरण की शोध पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा ’ का लोकार्पण दिनांक 26 जुलाई 2009 , जवाहर आडोटोरियम, अजमेर में लघुकथा के वरिष्ठ कथाकार भगीरथ व बलराम अग्रवाल ने किया , साथ ही उनकी ही कविता की पुस्तक ‘ एहसासों के अक्स ’ का लोकार्पण कुमार शिव व ताराप्रकाश जोशी ने किया ।
इस अवसर पर बोलते हुए प्रो. अनन्त भटनागर ने कहा कि यह एक प्रामाणिक शोध प्रबंध है , जिसमें लेखिका का श्रम स्पष्ट झलकता है । हिन्दी लघुकथा के साथ - साथ अन्य भाषाओं की कथाओं का लेखा -जोखा भी लेखिका ने प्रस्तुत किया है । उन्होनें पुस्तक के पहले ,चौथे और पांचवे अध्याय का विशेष उल्लेख करते हुए कहा कि पहले अध्याय में उन राजनैतिक , सामाजिक , आर्थिक परिस्थितियों का वर्णन किया गया है जो लघुकथा के उदय में महत्वपूर्ण साबित हुई है लघुकथा के तात्विक विवेचन में उन्होने परिभाषा , बोधकथा , भावकथा , दंतकथा , लतीफा, कहानी आदि की अवधारणा को स्पष्ट किया है । पाँचवे अध्याय में लघुकथा की विशेषताओं और छठे में जीवन मूल्यों पर चर्चा की है ।
‘हिन्दी लघुकथा ’ पर आगे चर्चा करते हुए बलराम ने कहा कि शोध का विषय सन् 1975 में ही स्वीकृत हो गया था और 1981 तक थिसिस स्वीकृत भी हो गई थी लेकिन प्रकाशन करीब तीन दशक बाद हुआ । इस महत्वपूर्ण पुस्तक को प्रकाशन के प्रति लेखिका उदासीन ही रही । लेकिन जब इन्दौर के डा. सतीश दुबे ने बताया कि आपकी शोध के अंशों की चोरी होती जा रही है तो मित्रों के आग्रह पर उन्होने इसे अन्ततः प्रकाशित करने का मन बनाया ,
सौभाग्य का विषय है कि प्रथम लघुकथा संग्रह ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ के सम्पादक भगीरथ व ‘हिन्दी लघुकथा’ की पहली शोध पुस्तक की लेखिका डा. शकुन्तला किरण आज दोनों मंच पर विराजमान है और दोनों राजस्थान से है । हमारे लिए यह गर्व का विषय है । इस पुस्तक की सबसे महत्वपूर्ण बात है कि जो मानदंड डा. शंकुतला किरण ने दिये वे आज भी लघुकथा में मान्य है ।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए भगीरथ ने कहा कि यह पुस्तक गहन अध्ययन , मनन , चिंतन व विशलेषण का परिणाम है । ऐसे समय जब लघुकथा आकार ग्रहण कर रही थी , जब साहित्यकार इसका नाम आते ही नाक - भौं सिकोड़ते थे , विश्वविद्यालय द्धारा इस विषय को स्वीकृती देना निश्चय ही महत्वपूर्ण रहा । इसके लिए शोधार्थी एवं राज. विश्वविद्यालय धन्यवाद के पात्र है । इनका शोध काॅपी - पेस्ट या कट - पेस्ट नहीं है जैसे कि डाॅ भटनागर ने कहा यह एक प्रमाणिक ग्रन्थ है । लघुकथा जगत में इस पुस्तक का जबरदस्त स्वागत हो रहा है और आगे के शोधार्थी इस पुस्तक के सन्दर्भ के बिना अपना शोध पूरा न कर पायेंगे । यह आलोचना की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसका आने वाले कई वर्षो तक लघुकथा विमर्श में विशिष्ट स्थान रहेगा ।
डा. शंकुतला किरण ने अपने वक्तव्य में कहा कि वह लघुकथा की तरफ तेजी से आकृष्ट हुई और लघुकथा लेखन में संलंग्न हो गई । जब शोध के विषय के चयन की बात आई तो सबसे पहले मानस पर लघुकथा का विषय ही रहा । वह लघुकथा जगत से जुड़ी हुई थी इसलिए संदर्भ सामग्री के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं पड़ी , जब आपातकाल के दौरान ‘सारिका’ के लघुकथा विशेषांक की कई रचनाओं पर सेंसर ने काली स्याही पोत दी तब उन्हें लगा कि यह एक शक्तिशाली विधा है , और वह इस शोध पर जुट गई । व्यवस्था के विकृत रूप देखने हो और उनके प्रति आक्रोश व्यक्त करना हो तो लघुकथा एक सशक्त विधा है। प्रकाशन में देरी के कारण बताते हुए कहा कि सक्रिय राजनीति और फिर आध्यात्म की ओर झुकाव ने उन्हें साहित्य के प्रति उदासीन बना दिया था लेकिन अब ‘ अहसासों के अक्स ’ कविता संग्रह और ‘ ‘हिन्दी लघुकथा ’ के प्रकाशन के साथ ही पुनःसाहित्य में प्रवृत हूँ क्योंकि अध्यात्म की तरह साहित्य भी सुकून देता है