डॉ कुमार विनोद की गज़लें
हाल ही के वर्षों में जिन ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल के राष्ट्रीय परिदृश्य पर बेहद प्रभावी ढंग से अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज की है - युवा ग़ज़लकार कुमार विनोद उनमें से एक हैं। कुमार विनोद की ग़ज़लें हंस, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कथन, कथादेश, कथाक्रम, कादम्बनी, उद्भावना, बया, अन्यथा, प्रगतिशील वसुधा, वर्तमान साहित्य, हरिगन्धा, समावर्तन, समकाकलीन भारतीय साहित्य, आजकल, अक्षर पर्व इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन कर्म में पूरी गम्भीरता और मनोयोग से लगातार सक्रिय, कुमार विनोद की कविताओं का एक संग्रह कविता ख़त्म नहीं होती 2007 में प्रकाशित हो चुका है और अभी हाल ही में आधार प्रकाशन से इनका पहला ग़ज़ल-संग्रह बेरंग हैं सब तितलियाँ प्रकाशित हुआ है। कुमार विनोद के इसी संग्रह बेरंग हैं सब तितलियाँ से कुछ गज़लें...
1
अनकहे शब्दों से मुझको प्यार है
जिनसे खुलने को नया संसार है
पूछ मत, मेरी उदासी का सबब
देख, मेरे हाथ में अख़बार है
रंग ख़ुशियों का किसे मालूम है?
दर्द का भी क्या कोई आकार है?
मैं कहाँ ख़ुद से मिला हूँ दोस्तो!
बीच में शायद कोई दीवार है
पेट भूखे का भरे जिस दिन कभी
दिन वही उसके लिए त्योहार है
लोमड़ी के गुण सभी क्यों गा रहे?
शेर का उजड़ा-सा क्यों दरबार है?
ख़ौफ़ की बारिश मुसलसल हो रही
भीगता-सा हर बशर लाचार है
2
धड़कनो को छेड़ता है साज़ रह-रह कर
कौन मुझको दे रहा आवाज़ रह-रह कर
क्या परिंदों को नहीं लगता ज़रा भी डर
खोलते हैं क्यों हवा के राज़ रह-रह कर
नासमझ कितनी है देखो, बेपरों से भी
माँगती है जिन्दगी परवाज़ रह-रह कर
पाँव मंजिल तक वो पहुँचे, जो सफ़र में थे
एक हम करते रहे आग़ाज़ रह-रह कर
मॉल कल्चर में हर इक छोटी दुकाँ को अब
सीखने होंगे नए अंदाज़ रह-रह कर
3
ख़्वाब आँखों में हमारी इस तरह हँसते हुए
जैसे अँधियारे में दीपक दूर तक जलते हुए
याद उनकी जब कभी आए, हमें ऐसा लगे
धड़कनों की रहगुज़र में, साज़ हों बजते हुए
घर मेरा अपनी जगह है अब भी क़ायम दोस्तो
उम्र गुज़री इस ज़मीं को घूमते-फिरते हुए
वक़्त के दामन को जो ना ठीक से पकड़ा किए
हम उन्हें देखा किए हैं हाथ फिर मलते हुए
इक यही बस बात अपनी दूसरों से है अलग
भीड़ में सबसे अलग हैं, भीड़ में रहते हुए