अपनी बार
पृथ्वीराज अरोडा
उसने दुखः और रोष में अपनी बडी बहन को लिखा—दीदी !
दो लडकियों के बाद लडका होने की हमें बहुत खुशी
है,परन्तु जो फ़ेहरिस्त तुमने बना भेजी है,वह
सामान कहां से लाएं ! घर की हालत तुमसे छिपी हुई
नहीं है।
फिर रीति-रिवाज तो आदमी के अपने ही बनाए
हुए हैं, वह उसे तोड भी तो सकता है!
दो वर्ष बाद उसने अपनी मां को लिखा—मां
! जो कुछ मैंने लिख भेजा है वह सामान जरूर आना चाहिए ।
पहला बच्चा है –वह भी लडका । इधर बहुत बडा समारोह करने जा
रहे हैं । मैं जानती हूं कि घर की हालत है
परन्तु किया भी क्या जाए, ये
रीति-रिवाज तो निभाने ही पडते है !
(छोटी-बडी
बातें 1978)