Thursday, September 26, 2013

प्यासी बुढ़िया

 प्यासी बुढ़िया  



 शंकर पुणतांबेकर 



'माई ,पानी देगी मुझे पीने के लिए ?'
'कहीं और से पी ले .मुझे दफ्तर की जल्दी है .'
'तू दरवाजे को ताला मत लगा .मुझ बुढ़िया पर रहम कर.मुझे पानी दे दे .मैं तेरी दुआ मनाती हूँ -तुझे तेरे दफ्तर में तेरा रूप देखकर तरक्की मिले .'
'तू मेरी योग्यता का अपमान कर रही है ?'
बड़ी अभिमानिनी है तू !तेरे नाम लाटरी खुले ,मुझे पानी दे दे .'
'कैसे खुले!मैं आदमी को निष्क्रिय और भाग्यवादी बना देने वाली सरकार की  जुआगिरी का टिकट कभी नहीं खरीदती .'
'मुझे पानी दे दे माई .तेरा पति विद्वान न होकर भी विद्वान कहलाए और किसी विश्वविद्यालय का वाइस -चांसलर बने .'
'चल जा !मेरे पति को मूर्ख राजनीतिज्ञों का पिछलग्गू बनाना चाहती है क्या !'
'तेरे पूत खोटे काम करें ,औरतों  ,लोगों पर भारी अत्याचार करें औरतों के साथ नंगे नाचें तब भी उनका बाल बांका न हो .बस तू  पानी दे दे मुझे.'
'लगता है बड़ी दुनिया देखीहै तूने !लेकिन हम लोग जंगली नहीं है ,सभ्य हैं और हमें अपनी इज्जत प्यारी है .जा,कहीं और जाकर पानी पी .'
'तेरा पति बिना संसद के ही प्रधानमंत्री बने .सोच इससे भी बड़ी दुआ हो    सकती है ?चल,दरवाजा खोल और मुझे पानी दे .'
' देती हूँ तुझे पानी पर मेरे पति को दोगला ,विश्वासघाती बनने का शाप मत दे'
  बुढ़िया जब पानी पीकर चली गई तो औरत के मुंह सेनिकल पड़ा -यह बुढ़िया ,बुढ़िया नहीं ,हमारी जर्जर व्यवस्था है जो सस्ती दुआएं फेंक कर हमारा पानी पी रही है ...नहीं ,पी नहीं रही ...हमारा पानी सोख रही है .


 (तनी हुई मुट्ठियाँ  संपादक -मधुदीप/मधुकान्त  इंद्रप्रस्थ प्रकाशन ,दिल्ली प्र.सं.1980)