दो मुर्दे
मालती बसंत
दो मुर्दे थे .पास –पास
ही उनकी कब्रें थीं .एक नया आया था और दूसरे को आए चर पाँच दिन हो चुके थे .नये ने
पुराने मुर्दे से पूछा –“भाई ,यह जगह कैसी है ?तुमको कोई कष्ट तो नहीं है
?”
“नहीं ,इस जगह तो मौज ही मौज है ,कष्ट का नाम नहीं ,आबहवा भी अच्छी है.”
“तब तो ठीक है .”कहकर नये मुर्दे ने शांति की साँस ली .फिर अचानक
उसने नया सवाल किया –“तुम्हारे अलावा और कौन –कौन है यहाँ ?”
“हाँ ,है तो बहुत लोग पर अपनी उनसे पटती नहीं है .जैसे तुम आए हो ,वैसे
ही कभी –कभी कोई न कोई आ जाता है .”
“वैसे तो मैं किसी से नहीं डरता ,पर वो एक जिन्दा आदमी है अब्दुल्ला
नाम का .अरे वही जिसकी शहर में किराने की दुकान है ?”
“हाँ-हाँ , मैं उसे अच्छी तरह
पहचानता हूँ .उसका तो खूब उधार खा कर मरा हूँ .मुझे भी उसी का डर लगता है .वह मर
गया तो इसी कब्रिस्तान में आयेगा ,और फिर तकाजा करेगा ,तो अपना क्या होगा ?वो आ
गया तो नींद हराम हो जायेगी .वो चैन से सोने नहीं देगा .”
इस पर पहला हँस पड़ा
.दोनों पक्के दोस्त बन गए .
रात बढ़ गई थी
.चाँदनी रात थी .दोनों को नींद नहीं आ रही थी ,पुराने ने नये से कहा –“चलो थोड़ा टहल आएँ .”नये ने स्वीकृति दे दी .
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