जूते
0 युगल
चैतू राजमिस्त्री के साथ का काम करता था । एक दिन सिर पर से ईंट उतारते समय एक ईंट पाँव पर आ गिरी । उँगलियॉ कुचल गई । पत्नि बोली - पाँव मे जूते होते तो उँगलियों नहीं कुचलती ।'' चैतू ने उँगलियॉ में उठती बिच्छु के डंक के समान टीस को दाँत पर दाँत रखकर बर्दाश्त करने की कोशिश की और बोला - "तुम्हें क्या पता कि जूते कितने महंगे हो गये हैं जब पेट चलाना ही दुशवार हो, तो जूते ……… "
पत्नी हल्दी का गरम लेप उसके पाँव पर चुपचाप लगाती रही । पेट चलाना तो सचमुच दुशवार हो रहा था । बेटा पारस बीस साल का था । बडे अरमान से पढ़ाया था । मैट्रिक पास कर गया था । इसलिए उसे मजदूरी करना अच्छा नहीं लगता था । किसी और काम की तलाश भी नहीं करता था ! गाँव के अबंडों के साथ ताश के अड्डे पर जमा रहता । चैतू को जिस दिन काम नहीं मिलता , वह नीम-बबूल के दँतवन तोड कस्बे में बेच आता। आठ -दस रूपये आ जाते । एक दिन वह जूतों की दुकान में गया था । बहुत मामूली जूतों की कीमत इतनी थी कि दो दिनों की मजदूरी सर्फ़ हो जाती । अपने जूते के लिए परिवार के लोगों को दो दिनों तक भूखे रखना………अरे, छोडो, जब इतने दिन कट गये ,तो बाकी भी कट जायेंगे । लेकिन कई रात जूते उस के सपने में आते रहे।सपने में वह अपने पाँवों में जूते डाले चल रहा होता कि उस के पाँव दूसरों के पाँवो में बदल जाते ।उन जूतों को हसरत भरी नजरों से देखता वह चलता रहता कि उस के पाँवों पर ईंट आ गिरती और आंखें खुल जाती।
चैतू की उँगलियों को कुचले दो महीने भी नहीं गुजरे थे कि एक दिन उस के तलवे में शीशे की किरच घुस गयी। खून का बहना रूकते नहीं देख पारस विचलित हो उठा । बाप को कस्बे के अस्पताल में ले गया । उस दिन उस ने शिद्दत के साथ सोचा कि बापू के पाँवो में जूते होने चाहिए । दूसरे दिन ही वह पडोसी के साथ उसी के खर्च से पंजाब चला गया। लौटा दस महीने बाद । बाप के लिए जूते ले आया था। चैतू आँगन में खाट पर लेटा था। बेटे को देख कर माँ हर्षित हुई - "इतने दिनों कहाँ रहे बेटा ! न कोई चिट्ठी ,न कोई पता -ठिकाना।" पारस ने उत्साह के साथ बाप के लिए लाये जूते निकाले । चैतू की आँखें डबडबा आयीं । माँ कुछ क्षणों तक जूते को देखती रही ।फ़िर उसने चैतू के पाँव पर से चादर हटा दी । गैंग्रिन हो जाने के कारण डाक्टर ने वह पाँव काट दिया था ।"
Wednesday, March 25, 2009
Sunday, March 15, 2009
गजल
चाँद शैरी की गजल
मुल्क तूफाने बला की जद में है
दिल सियासत दान का मसनद में है
अब मदारी का तमाशा छोड कर
कल वो आदमी संसद में है
एकता का तो दिलों में है मुकाम
वो कलश में हैं न वो गुम्बद में है
जिंदगी भर खून से सींचा जिसे
वो शजर मेरा निगाहे बद मे है
फिर हैं खतरे मे वतन की आबरू
फिर बड़ी साजिश कोई सरह्द में है
एक जुगनू भी नहीं आता नजर
यह अंधेरा किस बुरे मकसद में हैं
चिलचिलाती धूप में 'शेरी' खयाल
हट के मन्जिल से किसी बरगद में हैं
पुरुषोत्तम 'यकीन' की गजल
न कोई शिकवा न काम रखना
सभी से लेकिन सलाम रखना
किसी को रख लेना अपने दिल में
और उसके दिल में क़याम रखना
अमल को अपने ग़ज़ल में अपनी
मुहब्बतों का पयाम रखना
भरोसा पल का नहीं पे पल का
है लाजमी एहतिमाम रखना
नहीं, न हो,जेरे - आस्माँ घर
दिलों के भीतर मकाम रखना
तुम अपनी यादों की डायरी में
कहीं तो मेरा भी नाम रखना
जफ़ा के बदले वफ़ा मुसलसल
तू रोजो - शब , सुबहो शाम रखना
बहुत ज़माने ने कहर तोड़ा
गया न 'ईमां' न 'राम' रखना
सभी को खुल कर पिला ऐ साकी
किसी का खाली न जाम रखना
'यक़ीन' शैरो - सुखन की जद पर
अदब से दर्दे -अवाम रखना
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