Thursday, April 23, 2009

पाप

http://setusahitya.blogspot.com/से

फ़रोग फ़रोखज़ाद की एक कविता
अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र
कविता के
साथ चित्र : अवधेश


पाप
बाँहों मैंने पाप किया पर पाप में था निस्सीम आनंद
समा गई गर्म और उत्तप्त में
मुझसे पाप हो गया
पुलकित, बलशाली और आक्रामक बाँहों में।
एकांत के उस नीरव कोने में
मैंने उसकी रहस्यमयी आँखों में देखा
सीने में मेरा दिल ऐसे आवेग में धड़का
उसकी आँखों की सुलगती चाहत ने
मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया।
एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में
जब मैं उससे सटकर बैठी
अंदर का सब कुछ बिखर कर बह चला
उसके होंठ मेरे होंठों में भरते रहे लालसा
और मैं अपने मन के
तमाम दुखों को बिसराती चली गई।
मैंने उसके कान में प्यार से कहा –
मेरी रूह के साथी, मैं तुम्हें चाहती हूँ
मैं चाहती हूँ तुम्हारा जीवनदायी आलिंगन
मैं तुम्हें ही चाहती हूँ मेरे प्रिय
और सराबोर हो रही हूँ तुम्हारे प्रेम में।
चाहत कौंधी उसकी आँखों में
छलक गई शराब उसके प्याले में
और मेरा बदन फिसलने लगा उसके ऊपर
मखमली गद्दे की भरपूर कोमलता लिए।
मैंने पाप किया पर पाप में था निस्सीम आनंद
उस देह के बारूद में लेटी हूँ
जो पड़ा है अब निस्तेज और शिथिल
मुझे यह पता ही नहीं चला हे ईश्वर !
कि मुझसे क्या हो गया
एकांत के उस अँधेरे और नीरव कोने में।
(‘अहमद करीमी हक्काक’ के अंग्रेजी अनुवाद से)
फ़रोग फ़रोखज़ाद

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

कविता एक हकीकत को खूबसूरत तरीके से बयाँ करती है।

प्रदीप कांत said...

निजी को सार्वजनिक करने का जुदा अन्दाज़