मदारी डुगडुगी बजाता हुआ गोलचक्कर काटता है । लोग जमा हो रहे है । लो , मजमा लग गया है ।
'' हाँ तो भाईसहाब , मेहरबान , कद्रदान कमर कस कर बैठिए और एक से एक नायाब खेल देखिये ।
जमूरे !
हाँ उस्ताद
जायेगा?
हाँ जाऊंगा ।
कहाँ जायेगा ?
इक्कीसवी सदी में ।
ये मुँह और मसूर की दाल (मदारी हँसता है ) खैर , अच्छे - अच्छे खाँ इक्कीसवी सदी में जा रहे हैं तो तू पीछे क्यों ?
जमूरे !
हाँ उस्ताद
जरा पलट कर देख
इक्कीसवी सदी में जानेवाला पलट कर नहीं देखता
तो आगे देख
चकाचौंध में कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है उस्ताद
तो ये चश्मा ले , इसे पहन और ठीक से देख अब दिखाई देता है
हाँ उस्ताद
क्या देखता है
मन्त्रीजी विदेशी कम्पनियों से तोपें , पनडुब्बियां और लड़ाकू विमान खरीद रहे हैं
और ?
और भड़वे तालियाँ बजा रहे हैं
अच्छा बता मन्त्रीजी क्या भाषण दे रहे हैं
कह रहे हैं विदेशी तकनीक और पूँजी को अपनाकर हम स्वदेशी बना रहे हैं और देश को आत्मनिर्भर कर रहे हैं
'अबे ठीक से बोल , कहीं मन्त्रीजी खुद तो आत्मनिर्भर नहीं हो रहे हैं '
मैं क्या जानू ! उस्ताद
दिमाग पर जोर डाल । विदेशों में सम्पति तो नहीं खरीद रहे हैं मन्त्रीजी । आखों की सर्च लाईट से देख
स्वीस बैंक के खाते में बैंलेस बढ़ तो नहीं रहा है ।
जमूरे !
हाँ उस्ताद
अब जरा आगे चल
चल दिया
क्या देखता है ?
शिष्ट मंडल विदेश रवाना हो रहा है
यानि लग्गे - भग्गे भी पिकनिक पर जा रहे हैं
नहीं उस्ताद , देश को आगे बढा कर इक्कीसवीं सदी में ले जाना है तो विदेश तो जाना ही पड़ेगा
जमूरे ! तुझे पता है गाँधीजी लंगोट पहन कर लंदन गये थे ।
हाँ ।
तो बता , लौटते समय अपने साथ क्या लाए थे ?
उनके पास टी वी ,टेप , विडियो , ब्लू फिल्म के केसेट थे और उनकी लंगोटी मेन्चेस्टर से बनकर आई थी
बकता है , शर्म नही आती झूठ बोलते, उस्ताद यह ईक्कीसवी सदी है , झूठे का बोलबाला सच्चे का मुँह काला
जमूरे एक बात बता इक्कीसवी सदी, है कैसी !
जैसे मुम्बई का नरीमन पोंइट जैसे हेमामालिनी , जैसे माधुरी दिक्षित जैसे ऐश्वर्या राय ,।
गरीबी , बीमारी बेरोजगारी का क्या हाल है ?
बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ती
क्यों ?
क्योंकि जो भूखे गरीब बेरोजगार थे उन्हे इक्कीसवी सदी में आने ही नहीं दिया । वे बीसवी सदी मे सड़ रहे हैं और सड़ेंगे । उनसे कहा था कि इक्कीसवी सदी में चलना हो तो इन्हे छोड़ो , वे छोड़ न पाये गरीबी , और अज्ञानता , इसलिये रह गये 20वीं सदी में ।
जमूरे अब चश्मा खोल
नहीं खोलता
क्यों
क्योंकि में बींसवी सदी जैसी घटिया सदी में नहीं आना चाहता बेहतर होगा तुम भी चश्मा लगाकर 21 वी सदी में आ जाओ
अबे क्या बकता है । उठ और पेट के वास्ते जनता से मांग ।
Thursday, July 23, 2009
Tuesday, July 7, 2009
परिवार में जनतंत्र यानी सारी दुनिया में जनतन्त्र
कुमकुम संगारी के लेख का अंश
परिवार में बराबरी का आधार है बेटी का माँ - बाप की संम्पति में बेटे के बराबर का हिस्सा होना । ऐसे कुछ कानून बन चुके हैं जो कुछ हद तक इस बराबरी की इजाजत देते हैं लेकिन हम जानते हैं कि ९९ प्रतिशत मामलों में ये कानून लागू नहीं होते हैं बेटियाँ खुद भी अदालत में अपना हक माँगने नहीं जाती है । इसी तरह दहेज के खिलाफ कानून बने हुए हैं , लेकिन हम जानते हैं कि उनका उल्लंघन होता है ससुराल वालों को मालूम है कि जिसे वे अपनी बहू बनाने जा रहे हैं उसका अधिकार कानूनन उसके माता - पिता की सम्पति में है लेकिन वे यह भी जानते हैं कि यह अधिकार उसको मिलेगा नहीं , इसलिए वे सोचते हैं कि उस सम्पति में से जो लिया जा सके , वह शादी के वक्त दहेज के रूप में ले लिया जाये । खुद बेटियों के दिमाग में यह बात आती है कि बाद में तो कुछ मिलना नहीं है , इसलिए इसी समय जो मिल सके , ले लिया जाये । इस तरह एक तरफ स्त्रियों को उनके अधिकार से वंचित किया जाता है और दूसरी तरफ उस दहेज प्रथा को बढ़ाया जाता है जिसके कारण स्त्री को अपमान , उत्पीड़न और यातनायें तो सहनी ही पड़ती है , दहेज के लालची उन्हें जलाकर मार भी डालते हैं । इसलिए जब हम एक जनतांत्रिक परिवार की रचना करेंगे , तो उसमें ये दोनों बातें नहीं होगी ।
(परिवार में जनतंत्र सम्पादक रमेश उपाध्याय संज्ञा उपाध्याय पुस्तक से)
परिवार में बराबरी का आधार है बेटी का माँ - बाप की संम्पति में बेटे के बराबर का हिस्सा होना । ऐसे कुछ कानून बन चुके हैं जो कुछ हद तक इस बराबरी की इजाजत देते हैं लेकिन हम जानते हैं कि ९९ प्रतिशत मामलों में ये कानून लागू नहीं होते हैं बेटियाँ खुद भी अदालत में अपना हक माँगने नहीं जाती है । इसी तरह दहेज के खिलाफ कानून बने हुए हैं , लेकिन हम जानते हैं कि उनका उल्लंघन होता है ससुराल वालों को मालूम है कि जिसे वे अपनी बहू बनाने जा रहे हैं उसका अधिकार कानूनन उसके माता - पिता की सम्पति में है लेकिन वे यह भी जानते हैं कि यह अधिकार उसको मिलेगा नहीं , इसलिए वे सोचते हैं कि उस सम्पति में से जो लिया जा सके , वह शादी के वक्त दहेज के रूप में ले लिया जाये । खुद बेटियों के दिमाग में यह बात आती है कि बाद में तो कुछ मिलना नहीं है , इसलिए इसी समय जो मिल सके , ले लिया जाये । इस तरह एक तरफ स्त्रियों को उनके अधिकार से वंचित किया जाता है और दूसरी तरफ उस दहेज प्रथा को बढ़ाया जाता है जिसके कारण स्त्री को अपमान , उत्पीड़न और यातनायें तो सहनी ही पड़ती है , दहेज के लालची उन्हें जलाकर मार भी डालते हैं । इसलिए जब हम एक जनतांत्रिक परिवार की रचना करेंगे , तो उसमें ये दोनों बातें नहीं होगी ।
(परिवार में जनतंत्र सम्पादक रमेश उपाध्याय संज्ञा उपाध्याय पुस्तक से)
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