कुमकुम संगारी के लेख का अंश
परिवार में बराबरी का आधार है बेटी का माँ - बाप की संम्पति में बेटे के बराबर का हिस्सा होना । ऐसे कुछ कानून बन चुके हैं जो कुछ हद तक इस बराबरी की इजाजत देते हैं लेकिन हम जानते हैं कि ९९ प्रतिशत मामलों में ये कानून लागू नहीं होते हैं बेटियाँ खुद भी अदालत में अपना हक माँगने नहीं जाती है । इसी तरह दहेज के खिलाफ कानून बने हुए हैं , लेकिन हम जानते हैं कि उनका उल्लंघन होता है ससुराल वालों को मालूम है कि जिसे वे अपनी बहू बनाने जा रहे हैं उसका अधिकार कानूनन उसके माता - पिता की सम्पति में है लेकिन वे यह भी जानते हैं कि यह अधिकार उसको मिलेगा नहीं , इसलिए वे सोचते हैं कि उस सम्पति में से जो लिया जा सके , वह शादी के वक्त दहेज के रूप में ले लिया जाये । खुद बेटियों के दिमाग में यह बात आती है कि बाद में तो कुछ मिलना नहीं है , इसलिए इसी समय जो मिल सके , ले लिया जाये । इस तरह एक तरफ स्त्रियों को उनके अधिकार से वंचित किया जाता है और दूसरी तरफ उस दहेज प्रथा को बढ़ाया जाता है जिसके कारण स्त्री को अपमान , उत्पीड़न और यातनायें तो सहनी ही पड़ती है , दहेज के लालची उन्हें जलाकर मार भी डालते हैं । इसलिए जब हम एक जनतांत्रिक परिवार की रचना करेंगे , तो उसमें ये दोनों बातें नहीं होगी ।
(परिवार में जनतंत्र सम्पादक रमेश उपाध्याय संज्ञा उपाध्याय पुस्तक से)
3 comments:
परिवार में जनतंत्र के लिए पहले यह आवश्यक है कि निर्णय सामूहिक और जिम्मेदारियाँ व्यक्तिगत हों।
पारिवारिक जनतन्त्र की बात अच्छी उठाई है लेकिन भारतीय मानसिकता का क्या करें?
Parwarme jantantr nahee..iska matlab,charag tale andhera...auron ko bramh gyan sikha ke kya fayda,jab khud uspe amal na karen?
Sundar aalekh!
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