Thursday, July 21, 2011

रघुनाथ मिश्र की चुनी हुई गजलें



रघुनाथ मिश्र को गीत
 चान्दनी हैदराबाद  द्वारा
                                 निराला  सम्मान                                        

 बधाईया




                                                                                      
                 1                                                                                               रघुनाथ मिश्र  



वक्त से पैगाम लो



सच असच पहिचान लो

थक चुका मस्तिष्क यदि

सिर्फ दिल से काम लो

बच सके यदि जन हजारो

अपने सर इल्जाम लो

मत मरो औलाद बिन

गोद में अवाम लो


2


शब्द मूल्यहीन हो गया

शिल्प कथ्यहीन हो गया

कल तलक था जो नया -नया

आज वो प्राचीन हो गया

हद से बढ़ गई गिरावटे

आसमां जमीन हो

क्या तरक्कियों का दौर है

आदमी मशीन् हो गया


आम आदमी डरा डरा

डर भी यह युगीन हो गया

हर किसी की जान पै पड ी,

कुछ को जग हसीन हो गया।

Wednesday, July 6, 2011

दर्पण के अक्स

दर्पण के अक्स
आभासिंह

पत्नी अपने बच्चों में गुम हो गयी और बच्चे अपने परिवारों में । रह गया वह । दिनभर की जी तोड़ मेहनत से व्यवसाय सम्भालता । शामें रातें सूनी हो गयी । अकेलेपन की बेबसी को दूर करेन के लिए उसने कम्प्यूटर की शरण ली। 'इन्टरनेट' पर 'चैटिंग'' का चस्का लगते भला क्या देर लगती । नये -नये अछूते संसार में विचरण करता वह अति व्यस्त हो गया । हर पन्द्रहवें बीसवें दिन एक नई लड की से बातचीत करना। अंतरगता के दबे - छिपे कोनों तक पहुंच बनाना। अपने भीतर उछलती उत्तेजना को महसूस करना। बेवकूफ बना पाने की अपनी कुद्गालता पर कुटिलता से मुस्कुराना ।

इस बार भी वह इंटरनेट बंद करके लिप्सा से मुस्कुराया। सोलह साल की लड की की लहकती आवाज में नरम सा प्रेमालाप उसके कानों में रस घोल रहा था। उसने ऐनक उतारी । खुरदरे हाथों से माथा सहलाया और खुमारी में डूबा - डूबा बिस्तर में जा धंसा।

उधर भी उस सोलह बरस की लडकी ने इंटरनेट बंद किया। ऐनक उतार कर मेज पर रख दी। लहकती आवाज में गुनगुनाना शुरू कर दिया । रैक से झुर्रियॉं मिटाने की क्रीम को हल्के हाथों चहरे पर लगाने लगी । खिचडी बालों की उलझी लटों को उंगलियों से सुलझाया । बेवकूफ बना पाने की अपनी कुशलता पर मंद -मंद मुस्कायी और खुमारी में डूबी-डूबी बिस्तर में जा धंसी।