Sunday, January 8, 2012

बैसाखियों के पैर


भगीरथ



वह अपनी टांगों के सहारे नहीं चलता था, क्योंकि उसकी महत्वाकाक्षाएं ऊँची थी क्योंकि वह चढ़ाइयाँ बड़ी तेजी में चढ़ना चाहता था , क्योंकि उसे अपनी टांगों पर भरोसा नहीं था क्योंकि वे मरियल और गठिया से पीड़ित थी ।

फिर भी , जिन दूसरी टांगों के सहारे चलता था , उन पर टरपेन्टाइन तेल की मालिश किया करता था ।उसके हाथ की माँसपेशियां खेता नाई की तरह मजबूत हो गई थी और शाम उनके टखने एवं ऊंगलियाँ चटखाया करती थीं ताकि विश्वास हो जाये कि कल भी ये टांगे उसका साथ देंगी । इतना कर चुकने के बावजूद उसका मन संशकित रहता , कक पता और बोलते वक्त भाषा उससे आगे निकल जाती । और वह फिर आशवस्त हो जाता कि एक वाक्य में चार बार हिनहिनाने से उसकी वैसाखियों में सुखद हरकत होने लगती है । आखिर उसे अपनी सारी दूरियाँ इन्हीं बैसाखियों से तय करनी हैं ।

वह इस बात को जानता है कि उसके सम्मान में उठे हाथ उसके लिए नहीं है पर वह यह भी जानता है कि यहाँ के लोग इसी भाषा को समझते हैं। निहायत दरबारी ।

वह जानता है जो सेनापति सेना की कमान सम्भाले है , उनसे सुरक्षा का वचन लेना है और उन्हीं की सहायता से अपने प्रतिद्धन्द्धी को पछाड़ना है ।

वह जानता है कि वह स्वयं अपने में कुछ नहीं है , और उसकी बैसाखियों को छीन लो तो वह धड़ाम से धूल में लोट जायेगा पर वह अपनी बैसाखियों को दूसरे के हाथों में नहीं जाने देगा ।

आज वह किले की हर बुर्ज पर मौजूद है । भव्य महल और मयूर सिहांसन की सुरक्षा के लिए बना है यह किला , जिसमें अब उसके लिए ‘श्री 1008 महाराजाधिराज’ की गुहार लगानेवाले मौजूद हैं ।

वह अपनी सफलता के जश्न का केक काटते हुए इस बात का ऐलान करता है कि उसके पैर निकल आए हैं - मजबूत और बलिष्ठ ।

5 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत उम्दा लिखा है आपने!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

रवि कुमार, रावतभाटा said...

बहुत ही प्रभावी...प्रतीकात्मक लघु-कथा...

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

सुन्दर कथा...

प्रदीप कांत said...

प्रभावी लघुकथा है

दिनेशराय द्विवेदी said...

अत्यन्त प्रभावी।