महेश दर्पण
तडाक---तडाक---तडाक--- उसने पूरी ताकत से सोबती के गाल पर तीन
चार
तमाचे जड़ दिये।वह अभी और मारता पर पीछे से सत्ते
ने हाथ रोक लिया—पागल हुआ है क्या---डेढ हड्ड़ी की औरत है मर गई तो—?
उसके हाथ रुके तो जबान चल पड़ी
—हरामजादी आंख फाड़-फाड़ कर क्या देख रही है –रात
भर में तुझे दो ही रुपये मिले बस ? निकाल कहां छिपा रखे है--- रोटी तोडते समय तो ऐसे
---।
सोबती की लाल आखें, जो अब तक झुकी हुई चुपचाप सुने जा रही थी,उसकी ओर उठ गई –चुप भी कर हिंजडे—रात भर
बीड़ी के पत्ते मोडे हैं और तू----तन बेचना
होता तो तुझे खसम ही क्यों करती !
(समग्र-१९७८)(छोटी-बडी बातें १९७८)