Wednesday, August 27, 2008

आधे अधूरे

सुकेश साहनी
आप ही हैं विजय बाबू! नमस्कार! आपके बारे में बहुत कुछ सुना है, मुझे पहचाना नहीं आपने ? कमाल है आप तो भू जल वैज्ञानिक हैं । आप शायद मेरे शरीर के आधे संगमरमरी भाग और आधे पीले जर्जर भाग को देखकर भ्रमित हो रहे हैं, अब तो पहचान गये होंगे आप … मैं इस देश के गाँव का एक अभागा कुआं हूँ…न, अब तो पहचान गये होंगे आप, अब यह मत पुछियेगा कि मेरे गाँव ,प्रदेश का नाम क्या है ? मेरी यह हालत कैसे हुई ? सुनना चाहते हैं ? … तो सुनिये…
मेरे गाँव में भी भारत के दूसरे गाँवों की तरह दो किस्म के लोग रहते हैं…उँची जाति के और नीची जाति के । मेरा निर्माण नीची जाति वालों ने मिलकर करवाया था ।
इसलिए उँची जाति वाले मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते थे, लेकिन इस सूखे से स्थिति बिल्कुल बदल गई है। मेरी भूगर्भीय स्थिति के कारण मेरा पानी कभी नहीं सूखता, जबकि गाँव के अन्य सभी कुओं का पानी सूख जाता है।
मेरी यही विशेषता मेरी परेशानी का कारण बन गई। इस भयंकर सूखे की शुरुआत में ही उँची जाति वालों के सारे कुएं सुख गए थे और उनको पानी बहुत दूर से लाना पड़ता था। तभी न जाने कैसे उन लोगों में जागृती की लहर दौड़ गई। उन्होनें मेरे समीप एक सभा आयोजित की । नारा दिया…हम सब एक हैं…छुआछूत ढकोसला है। मिठाई भी बँटी । उसी दिन से उँची जाति वाले भी मुझसे पानी लेने लगे ।
तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीँ था। मुझे पूरे गाँव की सेवा कर अपार खुशी का अनुभव हो रहा था, पर मेरी यह खुशी भी दो दिन की थी। मैं दो भागों में बँट गया। एक भाग से उँची जाति के लोग पानी भरते हैं और दूसरे भाग से नीची जाति के। उँची जाति वालों ने मेरे आधे भाग को संगमरमर के पत्थरों से सजा दिया और शेष आधे भाग को ठोकर मार - मार कर जर्जर बना दिया है। मेरा यह भाग लहुलुहान हो गया है और इसलिए इससे पीली जर्जर ईंटें बाहर झाँक रहीं हैं ।
विजय बाबू, आप सुन रहें हैं न, मेरी व्यथा का अंत यहीं नहीं हैं। आजकल मेरे चारों और अजीब खौफनाक सन्नाटा रहता है। उँची जाति वालों के सामने कोई दूसरा मुझे प्रयोग मे नहीं ला सकता। कुछ हरिजन नवयुवकों ने मेरे इस बँटवारे को लेकर आवाजें उठानी शुरु कर दी हैं । आप इनकी आवाज को ईमानदारी से बुलंद करेंगे ?

अछूत

मोहन राजेश
पसीने से नहा चुकी थी रमिया । इतनी तपती दोपहरी में भी बाबू… चेहरे पर हवा करते हुए , पसीना पोंछ कर उसने अस्त - व्यस्त हुई साड़ी का पल्लू कमरे में खोंस लिया ।
बाबू रामसहाय भी पसीने से लथपथ हुए पस्त से पड़े थे, बिस्तरों में । बाद मुद्दत के मौका मिला था और आये अवसर को चूकना , उनकी सिफत नहीं थी। इसीलिए तो घरवाली के किसी रिश्तेदारी में जाते ही दस का नोट दिखा कर भरी दुपहरी में बुलवा लिया था रमिया को ।
एकाएक कुछ खड़खड़ाहट - सी सुन बाबू की तन्द्रा टूटी, "अरे रे रमिया गयी नहीं क्या अभी? अब तक तो चला जाना चाहिए था उसे । उन्होनें लेटे-लेटे ही झाँक कर देखना चाहा पर कुछ दिखलायी न पड़ा । आवाजें रसोई की ओर से आ रहीं थीं कहीं कोई बिल्ली - विल्ली न हो, अन्तत: रामसहाय को उठना ही पड़ा ।
वह सन्न रह गये - "रमिया ! रसोई में बैठी इत्मीनान से दही और अचार के साथ रोटी खा रही थी रमिया ।
"भूख लगी थी, बाबू" रामसहाय को दरवाजे पर खड़ा देख उसने दाँत निपोरते हुए कहा ।
"अरे, अरे, क्या कर रही है हरामजादी ! सारा चौका ही बिगाड़ दिया।" अब तक हतप्रभ से खड़े हुए बाबू एकाएक बिफर उठे किन्तु अपनी स्थिति का आभास होते ही आवाज कुछ दबाकर बोले-"भूख लगी तो माँग लेती बदजात , पर ब्राह्मण का चौका तो नहीं बिगाड़ना चाहिए था । ब्राह्मण की रसोई में मेहतरानी । राम … राम।"
"बाबू जब भंगन ब्राह्मण की रजाई में घुस सकती है तो रसोई में क्यों नहीं ?"रमिया ने बैठे -बैठे ही सवाल किया।
"बक -बक मत कर । चोरी करती है, शर्म नहीं आती ।" - वे तिलमिला उठे ।
"वाह ! बाबू वाह! उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे! इज्ज्त तूने लूटी मेरी । टट्टी झाड़ने को बुलाया और खुद झड़ गया । भूखे पेट इतना रौंदा - कुचला कि रात- बिरात की आधी - परधी भी गल - गला गयी । अब कहता है कि चोरी की है मैंने…। भूख लगी थी तो रोटी ही खायी है।"हाथ नचाकर फिर से सवाल किया रमिया ने - "ई चोरी है का?"
"भाषण मत झाड़ मादर… "बाबू का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा, " उठ फुट यहाँ से । नहीं तो दो लात देकर निकालूँगा।"
"ऐ बाबू बदजमानी मत कर । ई गाली और लातें तेरी महतारी को दियो। ज्यादा अपर - चपर की तो अभी हल्ला मचाए दिए हैं कि ई बेईमान झाड़न को बुला मुझ संग जोर - जबरदस्ती की है… समझा कि नहीं, हो जावेगी डाक्टरी ।"
बाबू रामसहाय के मुखारविन्द पर जैसे भारी- भरकम सा अलीगढ़ी ताला लटक गया हो । इतनी चंट चालाक होगी रमिया यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। उनके सामने अखबारी सुर्खियाँ तैरने लगीं - " अनुसूचित जाति की महिला के साथ बलात्कार ।" उनकी थुलथुल काया थर - थर काँपने लगी ।
"ऐ, रमिया रानी। अब तो जा। भाई गलती हुई मुझसे । जो कुछ कहा- सुना सो माफ कर । इस बार तो इज्ज्त रख दे… देख अभी वो चण्डी लौट आयेगी।"- स्वर को भरसक मुलायम बनाते हुए बाबू रामसहाय गिड़गिड़ाये-"अब तो जा मेरी माँ।"
"चली जाऊँगी, बाबू। जल्दी का है। तेरी घरवाली से भी मिलती जाऊँगी।" पहली मटकी का पानी कुछ कम ठण्डा लगा तो उसमें डाला लोटा निकाल कर दूसरी मटकी में डुबोते रमिया ने तसल्ली से कहा ।
रामसहाय बाबू जैसे अचेत हो रहे हों । अपनी चेतना को एकाग्र कर वे विष्णुसह्स्त्रनाम का पाठ करने लगे ।


Thursday, August 7, 2008

पराकाष्ठा


रतन कुमार सांभरिया
आठ घोड़ों की सजी - सँवरी बग्गी में रखी भगवान की भव्य मूर्ति को लेकर रथयात्रा निकाली जा रही थी। रथ के आगे पीछे जय-जयकार करती भीड़ ज्वार आये समुद्र की तरह उमड़ रही थी नानकिया, उसका पहलवान बेटा चंदू और उसके तीन शार्गिद तलवारों की पटेबाजी दिखाते हुए सबसे आगे चल रहे थे ।
रथयात्रा को अब संकरे मार्ग से गुजरना था। उस रास्ते में एक बिगड़ैल और जिद्दी साँड पसरा पड़ा था। वह इतना खूँख्वार था कि उसकी कल्पना से ही लोग थरथराते थे। उत्साही भीड़ जो ' जय-जयकार ' करती आगे बढ़ रही थी, साँड को सामने देख, पीछे भाग छूटी। पुजारी,जो भगवान की इसी मूर्ति के सामने बैठकर श्रद्धालुओं को अभयदान तक दिया करते थे, भय से घिग्घिया गए। सारथी की हाँफी छूट गई थी । घोड़ों ने भी ठिठक कर पाँव टपटपाए और हिनहिनाकर आगे न बढ़ने की अपनी विवशता प्रकट कर दी।
रथ के सामने अब पाँच लोग थे । नानकिया, चंदू और उसके तीन चेले। नानकिया ने रथ में बैठे पुजारी की ओर देखा तो उनकी आँखों मे चिंता, भय और बेबसी की त्रिवेणी थी। पुजारी ने नानकिया को अपने नजदीक बुलाया और उसके कंधे पर हाथ रखकर सूखे कण्ठ से कहा - "नानक, भगवान का रथ वापस नहीं लौटता है। जैसे भी हो, भगवान की इज्ज्त बचानी है ।''
श्रद्धासिक्त नानकिया जोश से उफन गया। उसने भगवान की 'जयजयकार' की ओर हाथ में तलवार लिए जब साँड की ओर बड़ा तो चंदू ने उसे रोक दिया, उसके होते वे साँड के सामने नहीं जाँएंगे। चंदू के शार्गिद मदद के लिए बढ़े तो उसने उनको भी हिदायत दे दी कि वह भी अकेला ही है ।
चंदू और साँड एक-दूसरे के सामने थे। चंदू के हाथ में नंगी तलवार थी और साँड दोनों सींग आगे बढ़ाये क्रोध के मारे सूँ- सूँ कर रहा था। सुरक्षित स्थानों पर खड़े लोग साँस रोके यह भयावह नजारा देख रहे थे। चंदू ने साँड पर वार करने का कई बार मन बनाया, लेकिन हर बार धर्म आड़े आ गया-गऊमाता का जाया है । आखिर, मर गया तो पाप लगेगा।
क्रोधित साँड चंदू पर टूट पड़ा और उसकी हड्डी- पसलियों को जमीन में मिलाकर वहाँ से भाग निकला।
अपने इकलौते पुत्र की हृदयविदारक मौत पर एक बार नानकिया की आँखें झलझला आईँ , कलेजा मुँह मे आ अटका, लेकिन दूसरे ही क्षण वह यह सोचकर संयमित हो गया कि राजा मोरध्वज ने भी अपने इकलौते पुत्र को आरे से चीरकर भगबान की सेवा में परस दिया था, अगर किसी छोटी जाति के मुझ जैसे नाचीज का पुत्र भगवान के नाम पर शहीद हो गया , तो क्या हुआ।
रथ मंदिर के सामने आकर खड़ा हो गया था। पुजारी रथ से नीचे उतर आये थे। मूर्ति को रथ से उतारकर मन्दिर में रखवाने की तैयारियाँ होने लगी थीं। बेटे के बलिदान से भावविभोर हुआ नानकिया भूल गया था कि वह किस जाति से है । स्वयं को एक समर्पित भगत मानकर मूर्ति को उतरवाने के लिए जब वह आगे बढ़ा तो पुजारी की आँखों में घृणा उतर आई। उन्होनें तिरस्कृत नेत्रों से नानकिया की ओर देखा और हड़काते हुए बोले-"नानकिया मूर्ति मत छूना तूं, भगवान भरिस्ट हो जायेगा।"