आप ही हैं विजय बाबू! नमस्कार! आपके बारे में बहुत कुछ सुना है, मुझे पहचाना नहीं आपने ? कमाल है आप तो भू जल वैज्ञानिक हैं । आप शायद मेरे शरीर के आधे संगमरमरी भाग और आधे पीले जर्जर भाग को देखकर भ्रमित हो रहे हैं, अब तो पहचान गये होंगे आप … मैं इस देश के गाँव का एक अभागा कुआं हूँ…न, अब तो पहचान गये होंगे आप, अब यह मत पुछियेगा कि मेरे गाँव ,प्रदेश का नाम क्या है ? मेरी यह हालत कैसे हुई ? सुनना चाहते हैं ? … तो सुनिये…
मेरे गाँव में भी भारत के दूसरे गाँवों की तरह दो किस्म के लोग रहते हैं…उँची जाति के और नीची जाति के । मेरा निर्माण नीची जाति वालों ने मिलकर करवाया था ।
इसलिए उँची जाति वाले मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते थे, लेकिन इस सूखे से स्थिति बिल्कुल बदल गई है। मेरी भूगर्भीय स्थिति के कारण मेरा पानी कभी नहीं सूखता, जबकि गाँव के अन्य सभी कुओं का पानी सूख जाता है।
मेरी यही विशेषता मेरी परेशानी का कारण बन गई। इस भयंकर सूखे की शुरुआत में ही उँची जाति वालों के सारे कुएं सुख गए थे और उनको पानी बहुत दूर से लाना पड़ता था। तभी न जाने कैसे उन लोगों में जागृती की लहर दौड़ गई। उन्होनें मेरे समीप एक सभा आयोजित की । नारा दिया…हम सब एक हैं…छुआछूत ढकोसला है। मिठाई भी बँटी । उसी दिन से उँची जाति वाले भी मुझसे पानी लेने लगे ।
तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीँ था। मुझे पूरे गाँव की सेवा कर अपार खुशी का अनुभव हो रहा था, पर मेरी यह खुशी भी दो दिन की थी। मैं दो भागों में बँट गया। एक भाग से उँची जाति के लोग पानी भरते हैं और दूसरे भाग से नीची जाति के। उँची जाति वालों ने मेरे आधे भाग को संगमरमर के पत्थरों से सजा दिया और शेष आधे भाग को ठोकर मार - मार कर जर्जर बना दिया है। मेरा यह भाग लहुलुहान हो गया है और इसलिए इससे पीली जर्जर ईंटें बाहर झाँक रहीं हैं ।
विजय बाबू, आप सुन रहें हैं न, मेरी व्यथा का अंत यहीं नहीं हैं। आजकल मेरे चारों और अजीब खौफनाक सन्नाटा रहता है। उँची जाति वालों के सामने कोई दूसरा मुझे प्रयोग मे नहीं ला सकता। कुछ हरिजन नवयुवकों ने मेरे इस बँटवारे को लेकर आवाजें उठानी शुरु कर दी हैं । आप इनकी आवाज को ईमानदारी से बुलंद करेंगे ?
मेरे गाँव में भी भारत के दूसरे गाँवों की तरह दो किस्म के लोग रहते हैं…उँची जाति के और नीची जाति के । मेरा निर्माण नीची जाति वालों ने मिलकर करवाया था ।
इसलिए उँची जाति वाले मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते थे, लेकिन इस सूखे से स्थिति बिल्कुल बदल गई है। मेरी भूगर्भीय स्थिति के कारण मेरा पानी कभी नहीं सूखता, जबकि गाँव के अन्य सभी कुओं का पानी सूख जाता है।
मेरी यही विशेषता मेरी परेशानी का कारण बन गई। इस भयंकर सूखे की शुरुआत में ही उँची जाति वालों के सारे कुएं सुख गए थे और उनको पानी बहुत दूर से लाना पड़ता था। तभी न जाने कैसे उन लोगों में जागृती की लहर दौड़ गई। उन्होनें मेरे समीप एक सभा आयोजित की । नारा दिया…हम सब एक हैं…छुआछूत ढकोसला है। मिठाई भी बँटी । उसी दिन से उँची जाति वाले भी मुझसे पानी लेने लगे ।
तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीँ था। मुझे पूरे गाँव की सेवा कर अपार खुशी का अनुभव हो रहा था, पर मेरी यह खुशी भी दो दिन की थी। मैं दो भागों में बँट गया। एक भाग से उँची जाति के लोग पानी भरते हैं और दूसरे भाग से नीची जाति के। उँची जाति वालों ने मेरे आधे भाग को संगमरमर के पत्थरों से सजा दिया और शेष आधे भाग को ठोकर मार - मार कर जर्जर बना दिया है। मेरा यह भाग लहुलुहान हो गया है और इसलिए इससे पीली जर्जर ईंटें बाहर झाँक रहीं हैं ।
विजय बाबू, आप सुन रहें हैं न, मेरी व्यथा का अंत यहीं नहीं हैं। आजकल मेरे चारों और अजीब खौफनाक सन्नाटा रहता है। उँची जाति वालों के सामने कोई दूसरा मुझे प्रयोग मे नहीं ला सकता। कुछ हरिजन नवयुवकों ने मेरे इस बँटवारे को लेकर आवाजें उठानी शुरु कर दी हैं । आप इनकी आवाज को ईमानदारी से बुलंद करेंगे ?
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