विक्रम सोनी
उस दिन अचानक धर्म पर कुण्डली मारकर बैठे पण्डित सियाराम मिसिर की गर्दन न जाने कैसे ऐंठ गयी और उन्हें महसूस हुआ कि उनकी गर्दन में 'हूल' पैदा हो गया है। पार साल लखमी ठाकुर के भी 'हूल' उठा था।
अगर रमोली चमार उसके हूल पर जूता न छुआता तो… कैसा तड़पा था। यह सोचकर उन्हें झुरझुरी लगने लगी, तो क्या उन्हें भी रमोली चमार से अपनी गर्दन पर जूता छुवाना होगा। हुँ! वह खुद से बोले ,''उस चमार की यह मजाल!" तभी उनकी गर्दन में असहनीय झटका सा लगा और वे कराह उठे।
"अरे क्या है- बस जरा जूता ही तो छुवाना है। उसके बाद तो गंगा जल से स्नान कर लेंगे । जब शरीर ही न रहेगा चंगा तो काहे का धर्म पुण्य?"
रमोली को देखते ही मिसिरजी ने उसे करीब बुलाकर कहा,"अरे रमोलिया, ले तू हमारा गरदनियाँ में तनिक जूता छुवा हूल भर गइलबा ।"
"ग्यारह रुपया लूँगा मिसिरजी ।"
" का कहले? हरामखोर , तोरा बापो कमाइल रहलन ग्यारह रुपल्ली ?"
"मिसिरजी, इस जूते को कोई खरीदेगा नहीं न! और में झूठ बोल कर बेचूँगा नहीं!"
"खैर, चल लगा जूता, आज तोर दिन है। देख, धीरे छुआना तनिक, समझे!"
जब रमोली जूता लेकर टोटका दूर करने उठा तो उसकी आखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गये जुल्मोसितम और अपमान के दृश्य साकार हो उठे ।
उसने अपनी पूरी ताकत से मिसिरजी की गर्दन पर जूता जड़ दिया । मिसिरजी के मुख से एक प्रकार की डकराहट पैदा हुई, ठीक वैसी ही जब मिसिरजी ने उसके पिता पर झूठा चोरी का इल्जाम लगाया था और मिसिरजी के गुण्डे लाठी से उसे धुन रहे थे। तब बाप की दुहाई वाली डकराहट क्या वह भूल पायेगा ?
"अरे मिसिर देख, तोरा हूल हमार जुतवा मा बैठ गैइल।" और मिसिर की गर्दन तथा चाँद पर लाठियों के समान जूते पड़ने लगे। गाँव वाले हैरान थे, किन्तु विचित्र उत्साह से इस दृश्य को देख रहे थे।
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