Wednesday, January 21, 2009

गोविन्द गौड की गज़लें


गोविन्द गौड की गज़लें

हो रहा है क्या गज़ब इधर ये जंग की तरह
बह रहा है यहां लहू भी क्यों रंग की तरह
हाय क्यों मचा हुआ है शोर मार-काट का
कुछ न कुछ पिये हुये हैं लोग भंग की तरह
बीच शहर आज उसका बुत खडा हुआ मिला
लाश जिसकी कल मिली थी एक नंग की तरह
किस कदर बाजार भाव बेलगाम हो गये
कुदते हैं फ़ांदते हैं अब तुरंग की तरह
हाथ में लिये हुये मशाल चल पडा हूं मैं
और रास्ता है आतिशी सुरंग की तरह
दुखभरी यह जिंदगी तो हमने ही कुबूल कि
वो है खुशनसीब जो जिया मलंग की तरह
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आपके शहर में आकर बडा हैरान हूं मैं
सच के दामन में लिपट कर परेशान हूं मैं
लोग रहने नहीं देते मुझे इन्सान ही क्यूं
देवता कहते, कभी कहते हैं शैतान हूं मैं
चाहता हूं,रहूं अपने खयाले-हाल में ही
सोचता हूं मगर खुद से बहुत अनजान हूं मैं
जानते हो जिन्दा हूं बनकर फ़कत खिलौना
लाश की तरह यूं तो अलफ़ बेजान हूं मैं
आदमी बनकर ही रहने की है फ़ितरत मेरी
आगया जिद पे तो देखोगे कि अरमान हूं मैं
आप क्या कीजियेगा जानकर पहचान मेरी
मैं तो इन्सान हूं, हिन्दू न मुसलमान हूं मैं




2 comments:

seema gupta said...

आप क्या कीजियेगा जानकर पहचान मेरी
मैं तो इन्सान हूं, हिन्दू न मुसलमान हूं मैं
" सुंदर शब्द और भावो का सम्मिश्रण .....इन दो पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया.."
आपके आशीर्वाद और प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ..."

Regards

प्रदीप कांत said...

हो रहा है क्या गज़ब इधर ये जंग की तरह
बह रहा है यहां लहू भी क्यों रंग की तरह

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आप क्या कीजियेगा जानकर पहचान मेरी
मैं तो इन्सान हूं, हिन्दू न मुसलमान हूं मैं

अच्छी गजलें