शैलेन्द्र
हिन्दी के सुपरिचित कवि एवं वरिष्ठ पत्रकार शैलेन्द्र के अब तक तीन काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। बलिया के मनियार कस्बे ५ अक्टूबर १९५६ को जन्मे शैलेन्द्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर हैं। पत्रकारिता में एक लंबी संघर्षमय यात्रा पूरी करके इस समय ‘जनसत्ता’ के कोलकाता संस्करण में प्रभारी संपादक पद पर कार्यरत हैं। कविताओं के साथ ही समय समय पर दिनमान, रविवार, श्रीवर्षा, हिन्दी परिवर्तन, जनसत्ता, कथादेश, पाखी, आदि पत्र पत्रिकाओं में समाचार कथाएँ, लेख, टिप्पणियों, कुछ कहानियों का प्रकाशन भी होता रहा है।
सम्पर्क: २, किशोर पल्ली, बेलघरिया
फोन: 09903146990
1
सच के बारे में
आओ
थोड़ा छत पर टहल लें
मकान मालिक के
लौटने तक
चाँदनी तले
थोड़ा हँस-खिलखिलालें
तारों की और नज़र कर लें
कितना अच्छा लगता है
तुम्हारे हाथ में हाथ डालकर
थिरकता खुले आसमान के नीचे
अभी पड़ोस की इमारतें
ऊंचा उठने ही वाली हैं
और उस तरफ
बस रही बस्ती
उफ!
हर तरफ उठ रही हैं लाठियाँ
कमज़ोर जिस्मों को तलाशती
आओ
थोड़ा और करीब आओ
कदम-कदम पर हारते
सच के बारे में
थोड़ा बतिया लें
2
कोलकाता
ऐ मेरे प्यारे शहर
तू जिंदा आबाद रह
तुझको नहीं लगे
किसी दुश्मन की नज़र
न पड़े फिर कभी तुझ पर
किसी अकाल की छाया
दंगे-फसाद से बचा रह
तुझमें फूले-फले
ममता और माया
न लौटे युद्ध
तेरे इरादे
बने रहे
नेक और शुद्ध
करता रह तू
सबकी परवाह
लगे नहीं तुझे
किसी की आह
3
बचपन
एक बचपन
मांगता है
रोबोट राकेट
सुबह सुबह
दूसरा रोटी।
एक बचपन
सिर पर उठा लेता है
पूरे घर को
दूसरा बोझ।
एक बचपन
बनता है मदारी
दूसरा जमूरा।
एक बचपन
पढ़ता है पुस्तकें
दूसरा
कठिन समय को।
बचपन होता है
राष्ट्र का भविष्य ।
मांगता है
रोबोट राकेट
सुबह सुबह
दूसरा रोटी।
एक बचपन
सिर पर उठा लेता है
पूरे घर को
दूसरा बोझ।
एक बचपन
बनता है मदारी
दूसरा जमूरा।
एक बचपन
पढ़ता है पुस्तकें
दूसरा
कठिन समय को।
बचपन होता है
राष्ट्र का भविष्य ।