Tuesday, March 22, 2011

सावधान! लघुकथा कहीं हमारे अपने हाथों ही न खो जाए!


पारस दासोत

मैं यहॉं 'सावधान' शब्द का उपयोग , इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं , अपने हाथों ही अहम को ओढ़ लूं । मैं आपका साथी हूं आपके कन्धे से अपना कन्धा मिलाकर चलने वाला प्यारा साथी।

साथियों ! मैं आज , जो लघुकथा यात्रा में देख रहा हूं , वो शायद आप भी देख रहे होगें । मुझे विद्गवास है- आप मेरी इस दृष्टि से , थोडी देर बाद ही सही, पर सहमत अवश्य होंगे। हमारी लघुकथा , आज अपना धर्म, अपना लक्षण / विशेषताएं छोड ती नजर आ रही है। कई लघुकथाकारों की लघुकथाएं (उन लघुकथाकारों में मैं भी शामिल हूं) पढ ने से ऐसा ज्ञात होता है कि हमें शायद इसका आभास नहीं है कि हम, जाने -अनजाने अपना लघुकथा सृजन , उसकी तासीर अनुसार नहीं कर रहे हैं । हम बोध कथा, दृष्टांत, नीति कथा, प्रेरक प्रसंग की ओर मुड रहे हैं। साथ ही हमने , कहीं -कहीं वर्णात्मक तत्व को भी स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है।

हमने , लघुकथा की यात्रा का समय -समय पर काल -विभाजन करते समय उसकी यात्रा को कई काल खण्डों में विभाजित किया है , पर ऐसा लगता है , क्षमा करें! मुझे ऐसा लगता है कि लघुकथा ने अभी अपने कदम शिशू अवस्था से बाल अवस्था की ओर बढ़ाएं हैं। दो कदम ही बढ़ाएं है। हम सब साथी लघुकथाकार उसकी इसी अवस्था के ही साथी है। हम इसे स्वीकारें , न स्वीकारें, पर यह सत्य है कि अभी सामान्य पाठक ही नहीं, स्वयं लघुकथाकार भी 'लघुकथा' की परिभाषा से पूर्ण परिचित नहीं हो पाया है। यहॉं मैं इसके साथ यह भी कहना चाहूंगा कि अभी लघुकथा के साथ 'आधुनिक' शब्द को जोड ना या 'आधुनिक लघुकथा' कहना गलत है। लघुकथा को आधुनिक लघुकथा बोलकर , हम 'प्राचीन लघुकथा' की ओर भी इशारा कर देते हैं।मुझे क्षमा करे! यह चूक हमसे , इस कारण हो रही है कि हम , लघुकथा की या का काल विभाजन करते समय (जैसे हम , जब 'मानव की यात्रा का वर्णन करते समय, प्रजाति , जाति , आदिमानव ही नहीं कोशिका तक पहुंच जाते हैं, तब हम जाने - अनजाने मानव की यात्रा का नहीं , कोशिका की यात्रा का अध्ययन करने लगते हैं) एक दृष्टि से इतनी दूरी तक का अध्ययन या कि काल विभाजन अवांछनीय कहा जा सकता है । क्या , लघुकथा की विकास यात्रा में दन्त कथा तक पहुंचना सही कहा जा सकता है ? इस अवांछनीय काल '- विभाजन ने कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाले हैं । हम भारतीय है। इस प्रतीक रूपी आदम को , बन्दर को , अपने पूर्वजों को आदर देते है। , उन्हें पूज्य मानते हैं । यही कारण है कि हम , हमेशा पीछे मुड़कर देखते रहते हैं ।

मैं कहना चाहूंगा कि लघुकथा की यात्रा या उसका काल विभाजन करते समय , हमें केवल 'कथा - आकार' को ही अपना आधार नहीं बनाना चाहिए, हमें कथा रूप की यात्रा या कि उसका काल विभाजन नहीं करना चाहिए , पर हम करते यही आ रहे हैं । इसके कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमारी यात्रा पर पडें हैं। हम हर क्षण पीछे मुड कर कर देखते रहते हैं। , अपनेपन के तहत हम पीछे मुड कर केवल देखते ही नहीं , अपने कदम उस ओर बढ़ा भी देते है। हम यदि लघुकथा विधा पर किये गये शोधों का अध्ययन करें तो , पाऐंगे कि शोधार्थियों ने लघुकथा यात्रा की दृष्टि से काल विभाजन में एक पूरा का पूरा बढ़ा सा अध्याय प्राचीन विधाओं को सौंपा हैं । हम लघुकथा की यात्रा का वर्णन करते समय क्यों इन पूज्य प्राचीन कथाओं को अनुचित स्थान पर रखते रहे है। ? क्षमा करे? क्या बोधकथा अपनी यात्रा करते - करते लघुकथा के रूप में हमारे सामने पहुंची है? हम बोधकथा या अन्य विधा की यात्रा का काल विभाजन करते रहते हैं । यदि ऐसा है तो , गलत है। यदि मेरा यह मानना गलत है तो फिर क्यों हम पहली और पहली लघुकथा को ढूंढते फिर रहे हैं? कथा के बीज, बोधकथा , दृष्टांतो, नीतिकथा, जातककथा, प्रेरक -प्रसंगों में मिलते हैं। यह कहानी ने भी स्वीकारा है , हम भी स्वीकरते हैं, पर लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करते समय , लघुकथा की दृष्टि से कथा बीज पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना, हमें एक गलत सोच की ओर धकेल रहा है। हम ने कथाबीज की दृष्टि से , लघुकथा का आकार तो उन कथाओं से लिया है पर लघुकथा का रूप -चरित्र हमने , उसकी तासीर , उसके लक्षण, उसका धर्म , उसका समाज के संघर्ष और समय की मांग को ध्यान में रखकर अंगीकार किये हैं । हमकों बीज एवं आधार भूमि का अर्थ व उनके अन्तर को भी ध्यान में रखना होगा । लघुकथा की यात्रा, 'लघुकथा-बीज' से नहीं, लघुकथा की आधार भूमि से स्वीकारना होगी । ('लघुकथा-बीज' लघुकथा-यात्रा की दृष्टि से यह शब्द अर्थहीन कहा जा सकता है , कारण, बीज की जो विशेषताएं होगी, वहॉं पेड़ की होगी, उसके अतिरिक्त नहीं, पर भूमि , जिस पर भवन खढ़ा है हम उसे भवन का बीज नहीं कह सकते। ) जिन छोटी कथाओं में लघुकथा के अधिक लक्षण (पूर्ण लक्षण नहीं) उपस्थित हैं, जैसे ........ सम्मानीय कहानीकारों की पूज्य छोटी कथाओं को 'लघुकथा' मान्य करना भ्रम पैदा कर रहा है। इसका मनौवैज्ञानिक प्रभाव हमें उस चरित्र अनुशासन में अपनी रचनाएं सृजन करने की छूट देता है । अतः ऐसी रचनाओं को 'लघुक्था की आधार भूमि की कथाएं ' कहना ही न्यायोचित होगा , लघुकथा नहीं। पहली लघुकथा को ढूंढते समय शायद , हम कहानी, शॉर्ट स्टोरी व बोधकथा की परिभाषा को, उसके अन्तर को, उसकी तासीर को ध्यान में रख पा रहे है। हम, जब भी पहली लघुकथा को खोजने निकलते है, शार्ट -स्टोरी /कहानी /कहानी भी पहली लघुकथा को खोजने निकलते है , शॉर्ट स्टोरी / कहानी को को पकड़ लेते है और जाने - अनजाने कथाकार के सृजन की ओर प्रश्न चिन्ह लगादेते हैं मेरी दृष्टि से यह गलत ही नहीं, एक अपराध हे । हम लघुकथा के समीप जो भी भी शॉर्ट स्टोरी या कि कथाएं पाते है, उन्हें हम 'लघुकथा परम्परा के कथा आधार' कह सकते है।, लघुकथा नहीं। (शॉर्ट स्टोरी को शॉर्ट , कहानी को कहानी विधा में ही शोभित रखते हुए) साथ ही एक कथा रचना 'कहानी' के साथ - साथ 'लघुकथा' कैसे हो सकती है ? क्षमा करें ‌ हमें अभी पहली लघुकथा को खाजने के लिए /प्राप्त करने के लिए और ....और प्रयास करने होगें।

कोई कथा यदि आकार की दृष्टि से लघु आकार की है तो क्या उसको लघुकथा कहा जा सकता है । नहीं, कभी नहीं कहा जा सकता! लघु कथा का यह आकार अन्य कुछ विधाओं के पास भी मिलता है , पर लघुकथा का धर्म , उसकी तासीर , उसका लक्षण , जिसे आम पाठक ने मान्यता दी है/उसको प्यार से स्वीकारा है / उसको अपनापन दिया है / उसे हइसा -हइसा बोलकर प्रोत्साहित किया है , वही उसका धर्म है हमें लघुकथा के धर्म को नहीं भूलना चाहिए। यह सच है कि हर रचना में बोध, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपस्थित रहता है । लघुकथा में उसकी अप्रत्यक्ष होने की है और वह भी भोथरी !

लघुकथा के जन्म की कथा, 'मुर्गी और अण्डा' वाली कथा नहीं है, न ही इसे किसी राजनैतिवाद ने जन्म दिया है। उसे जन्म दिया है तो, क्षण की संवेदना ने , जीवन के दुख - दर्दो ने , संघर्ष ने , प्रतिक्रिया ने , आक्रमकता ने , सशक्तिकरण ने । यही कारण रहा कि लघुकथा में , यथार्थ, लघुकथा की पहचान , व्यंग्य उसकी धड़कन , संवेदना उसका सौंदर्य सकारात्मकता उसके कदम और समाज के संघर्ष के प्रति उसकी सही दृष्टि ,उसका धर्म है । मैं कहना चाहूंगा कि सकारात्मक सोच को हम एक अलग दृष्टि से क्यों देखते हैं, क्या यथार्थ या कि व्यंग्य में सवेंदना की , जीवन मूल्य की दृष्टि नहीं होती ? क्या इसके लिए बदलते युग में उपदेश , बोध, नीति की ओर कदम बढाना आवश्यक है ? क्या हमने अपने लघुकथा सृजन -धर्म को इसलिए चुना है ? क्या विश्व के राजनैतिक फलक पर किसी वाद का कमजोर पड जाना या कि किसी वाद का अधिक शक्तिशाली हो जाना, हमारी विधा के धर्म को या कि उसकी यात्रा की दिशा को मोड देगा? हम यदि, यहॉं सावधान नहीं हुए तो , हम अपनी पहचान , पाठकों का प्यार, उनका अपनापन , धीरे - धीरे खो देंगे। इसका परिणाम ये होगा कि हम हमारे - अपने समाज की वाणी को मौन दे देंगे, उसके रक्त को शिथिल कर देंगे । मुझे क्षमा करें! यहॉं भी मैं , इस अशोभनीय कार्य में सम्मिलित हूं। साथियों , हमें मालूम ही न हो पायेगा कि कब हमने अपने ही हाथों लघुकथा की हत्या कर दी । उसे खो दिया । हमने समयानुसार अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की हत्या कर दी और हम कब बोधक के साथ खड़े हो गये!

अब हमारे संतुलित कदम , लघुकथा - धर्म के साथ - साथ कलात्मकता की ओर तीव्र गति से बढें। हमारी लघुककथा एक कृति नहीं, एक कलाकृति हो । हमे हमारे पाठकों ने समय, की पत्र -पत्रिकाओं ने , यहॉं तक कि अन्य विधाओं के सृजनधर्मियों ने , अपना पूर्ण सहयोग/ प्रोत्साहन दिया है। यही कारण है कि आज अकादमिक स्तर पर लघुकथा विधा पर ही नहीं, लघुकथाकारों को सम्मान प्रदान करते हुए उनके साहित्य पर शोध कार्य हो रहे हैं । हमारा प्रयास होना चाहिए कि लघुकथा , स्कूल व विश्व विद्यालयों के पाठ्‌यऋमों में सम्मान शामिल हो , ताकि आने वाली पीढ़ियॉं लघुकथा को समझ सके, उसे अपना प्यार दे सके, समय -समय पर उसको सम्भाल सके। पत्र -पत्रिकाओं के सम्मानीय सम्पादक गण , लघुकथा की दिशा की दृष्टि से सम्पादन करते 'क्यू.सी.'(क्वालिटि कन्ट्रोलर) की भूमिका कठोरता से निभाकर लघुकथा को उसकी सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित कर , उसे अनुशाषित बनाए रखें विश्वास हे , जब समय आएगा/मंच पर समीक्षकों की भूमिका आवश्यक होगी, समीक्षक अपना धर्म बखूबी निभाएंगे । हमें अभी आवश्यकता है -'लघुकथा वर्कशापों' के आयोजनों की , अपने स्तर पर अपने साथियों को सम्भालने की, उनकी रचनाओं पर उन्हें एक पोस्टकार्ड पर अपनी प्रतिक्रिया सौंपने की , पत्र व्यवहार बनाए रखने की , अपने कदमों के साथ सम्भालने की । सही दिशा में बढने की।

अंत में मैं कहना चाहूंगा कि लघुकथा , सृजनधर्मी के नाखून से समाज की दीवार पर खरोंचकर रखी गई लघुआकारीय कथा है , जिसमें हम लघुकथाकार के ही नहीं , समय के , समाज के रक्तकणों को , उसके संघर्ष को एक झालक मात्र में ही पा जाते है।  



(म.प्र. लघुकथा परिषद, जबलपुर (म.प्र.) के २६वें वार्षिक सम्मेलन, दिनांक २०-२-११ को पढ़ा गया लेख)



3 comments:

बलराम अग्रवाल said...

कई बहसों को न्यौता देता-सा स्तरीय लेख। आखिरकार तो 'बहस से ही टूटता है सन्नाटा'।

प्रदीप कांत said...

यह बहस ज़रूरी भी है।

सुनील गज्जाणी said...

sadhuwad !