Thursday, August 11, 2011

डा. उमेश महादोषी की लघुकथा

 






भू-मण्डल की यात्रा


हरीचन्द जी ने जैसे-तैसे साल भर से बन्द पड़े मौके-बेमौके काम आ जाने वाले छोटे से पैत्रिक घर का दरवाजा खोला। एक कोने में पड़े पुराने झाड़ू से जाले और फर्श को किसी तरह थोड़ा-बहुत साफ किया, पुराने सन्दूक से पुरानी सी चादर ढूँढ़कर फर्श पर बिछायी, और लेट गये। आज शरीर ही नहीं, उनका मन भी पूरी तरह टूटा हुआ था। नींद आने का सवाल ही कहां था, किसी तरह बेचैनी को सीने में दबाकर आँखे मूँद लीं। एक-एक कर जिन्दगी की किताब के पन्ने खुद-ब-खुद पलटते चले गये...।

बचपन में ही माता-पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद कितनी मेहनत करके पाई-पाई जोड़कर उन्होंने वह सुन्दर-सा घर बनाया था, एक दुकान भी कस्बे के मेन बाजार में खरीदकर अपना कारोबार जमाया था। बेटे अर्जुन को भी बी.टेक. की शिक्षा दिलवा ही दी थी। ग्रहस्थी की पटरी लाइन पर आने के साथ थोड़े सुख-सुकून के दिन आये ही थे, कि पत्नी उर्मिला दुनियां से विदा हो गई। उसके जाते ही जैसे उनकी दुनियां उजड़ने लगी। छः माह भी न हुए थे कि अर्जुन ने लन्दन से एम.एस. करने की जिद ठान ली थी। बहुत समझाया था उसे- ‘बेटा तू इतनी दूर परदेश में होगा, जरूरत पड़ने पर किसे तू याद करेगा और किसे मैं। यहां अपने देश में कम से कम एक-दूसरे का सहारा तो है। फिर आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि विदेश का खर्चा वहन किया जा सके....। पर बेटे के तर्को के आगे वह विवश हो गये थे- ‘पापा कैसी बातें करते हो आप! आज जितनी देर हमें अपने प्रदेश की राजधानी पहुँचने में लगती है, उससे कम समय में लन्दन पहुँचा जा सकता है। आज सारी दुनियां सिमिटकर छोटा सा गांव बन गई है। रोज हम आपस में टेलीफोन पर बात कर लिया करेंगे। जरूरत पड़ने पर कितनी देर लगेगी यहां आने में। रही बात पैसों की, तो आपके अकेले के रहने के लिए पुराना घर काफी है। इस नये घर को बेच देते हैं, अच्छी खासी रकम की व्यवस्था हो जायेगी। फिर मैं वहां कोई पार्ट टाइम जॉब भी कर लूँगा। दो साल के बाद तो मुझे अच्छा और स्थाई जॉब मिल ही जायेगा, तब आप भी वहीं हमारे साथ रहेंगे। क्या जरूरत रहेगी इस छोटी-मोटी दुकानदारी की? आप तो पूरे भू-मण्डल की यात्रा करना....’। और हुआ भी वही, मकान बेचा और बेटे ने सीधे लन्दन का टिकिट.....।

पूरे दो साल बाद एक दिन अचानक अर्जुन भारत यानी पापा के पास आया। ‘पापा मुझे लन्दन में ही एक बड़ी कम्पनी में बहुत अच्छी स्थाई नौकरी मिल गई है। आपको भी मेरे साथ ही चलना होगा। वहां मैंने एक फ्लैट भी देख लिया है, उसके लिए थोड़े पैसों की जरूरत भी है। अब आपको दुकानदारी की जरूरत तो रही नहीं और यहाँ इण्डिया में हमें आना भी नहीं है, इसलिए दुकान और पुराना घर भी बेच दो। इससे फ्लैट के लिए जरूरी पैसों की व्यवस्था हो जायेगी। फ्लैट रूबिया को बेहद पसन्द आया है, आपको भी अच्छा लगेगा.....।’

झटका ता लगा था, पर जैसे-तैसे अपने-आपको सम्हालकर पूछा था- ‘ये रूबिया कौन है, कहां की रहने वाली है, क्या करती है और तेरा क्या रिश्ता है उससे?’

‘पापा, वो मेरी कम्पनी में ही जॉब करती है। रहने वाली पाकिस्तान की है। हम दोनों एक दूसरे को बहुत पसन्द करते हैं, आपको भी अच्छी लगेगी। आपके वहाँ चलते ही हम शादी कर लंेगे......।’ तब भी कितना समझाया था- ‘बेटा तू अपनी नौकरी कर और मुझे यहीं मेरे वतन में रहने दे। फ्लैट साल-दो साल बाद भी तू ले सकता है। जहाँ तक बात बेटा एक पाकिस्तानी लड़की से शादी करने की है, सो यह ठीक नहीं रहेगा। अलग-अलग धर्मों का होने पर एक बार निर्वाह हो भी जाये, पर साथ में तुम दोनों का सम्बन्ध दो अलग-अलग ऐसे देशों से है, जिनकी पारस्परिक विरोध की जड़ें बहुत गहरी हैं। और दोनों देशों के निवासियों की अपने-अपने देश के साथ आस्थाएं और भावनाएं भी उतनी ही गहरी हैं। इसलिए तुम दोनों और दोनों के पारिवारिक जनों के बीच ऐसे बहुत सारे मौके आ सकते हैं, जब जाने-अनजाने इन आस्थाओं और भावनाओं के चलते एक-दूसरे को समझना और सहन कर पाना असम्भव हो जायेगा। इसलिए मेरी सलाह यही है कि एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव को सिर्फ दोस्ती तक ही रहने दो....।’

पर अर्जुन कहाँ सुनने वाला था। ‘पापा, फिर वहीं घिसी-पिटी बातें लेकर बैठ गये। दुनियां बहुत बदल गई है, आज हम देशों की सीमाओं से बहुत ऊपर उठ चुके हैं। न रूबिया पाकिस्तान की बन्धुआ है और न मैं हिन्दुस्तान का। पापा आप भी इन संकुचित सीमाओं से ऊपर उठ जाओ। हमारा देश पूरी दुनियां है........।’ लम्बा सा भाषण दे डाला था, अर्जुन ने। हरीचन्द जी की एक न चली, किसी प्रकार बेटे को समझा-बुझा कर इस पैत्रिक मकान को न बेचने पर ही राजी कर पाये थे। दुकान पड़ोसी लाला भीम सिंह जी को बेची और फिर वही हुआ, जो बेटे ने चाहा। एक साल भी नहीं बीता, कि परसों वो निष्ठुर दिन भी हकीकत बनकर सामने आ गया, जिसकी आशंका वह व्यक्त कर चुके थे।

अर्जुन के दोस्त वरुण के पापा हरेन्द्र जी घर आये थे उनसे मिलने। हमवतन और हमउम्र से मिलकर बातों में दोनों भूल ही गये कि वे लन्दन मंे बैठे हैं। उसी दिन दुर्भाग्य से आतंकियो ने मुम्बई पर हमला कर दिया। इस हमले की खबर टी.वी. पर देखी-सुनी तो चर्चा का बिषय बदल गया। चर्चा के बीच में पाकिस्तान और उसकी पाकिस्तानियत कब आ गई, पता ही नहीं चला। यह भी याद नहीं रहा कि घर में पाकिस्तानी बहू बैठी है। हरेन्द्र जी के घर में रहते हुए तो कुछ नहीं हुआ, पर उनके जाते ही क्या कुछ नहीं हुआ....! ‘मेरे घर में रहकर मेरे ही ऊपर अविश्वास करते हो? यदि विश्वास नहीं था तो शादी क्यों की थी बेटे के संग? बुड्ढे अब मैं तुझे एक दिन भी नहीं रुकने दूँगी यहाँ.....।‘ तमाम मिन्नतों के बावजूद बहू ने अर्जुन के दो दिन बाद आफीशियल टूर से लौटने तक भी घर में नहीं रूकने दिया। एजेन्सी से एयर टिकिट मंगाकर हवाई जहाज में बैठाते हुए उसने एक बार भी नहीं सोचा कि ये इस उम्र में भारत जाकर भी किसके सहारे और कैसे अपना जीवन बसर करेगा.......! सोचते और आँसू बहाते हरीचन्द जी की आँख कब लग गई, पता ही नहीं चला। और जब आँख खुली तब अगले दिन का सूरज भी सिर चढ़ रहा था।

थोड़ी देर के लिए वह फिर उन्हीं विचारों में खोने लगे। पर अचानक उन्होंने अपने आँसू पोंछ डाले, ‘बहुत मान ली बेटे की जिद। अब और नहीं....! जीविका का अपना कोई साधन नहीं है तो क्या, लाला भीम सिंह जी से मिलूँगा, भले आदमी हैं, अपनी दुकान पर सेल्स मेन तो रख ही लेंगे।....न...नहीं, जिस दुकान का मालिक था, उस पर नौकर.... अरे! काहे की शर्मिन्दगी.... भू-मण्डल की यात्रा की इतनी कीमत तो......!’

3 comments:

बलराम अग्रवाल said...

सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि उमेश ने काव्य के क्षेत्र से कथा के क्षेत्र में कदम रखा है। अपनी प्रारम्भिक तीन लघुकथाएँ उन्होंने अपने नए ब्लॉग पर डाली थीं लेकिन समयाभाव के कारण मैं उन पर टिप्पणी न लिख सका। यह रचना कथ्य की दृष्टि से बड़े केनवास की रचना है तथापि विषय की दृष्टि से उत्तम है। इसका ट्रीटमेंट प्रभावित करता है। यद्यपि कुछ चीजों को नेपथ्य में ले जाया जा सकता था तथापि उमेश बधाई के पात्र हैं कि लघुकथाकारों को उन्होंने नये विषय की ओर इंगित किया है।

सुभाष नीरव said...

मुझे यह विषय लघुकथा का नहीं, कहानी का लगा। कहानी जैसा विस्तार भी इसमें हैं, थोड़ा सी और मेहनत हो तो एक बढ़िया मार्मिक आज के सच को बयान करने वाली मुकम्मल कहानी बन सकती है।

Unknown said...

भाई उमेश जी से आग्रह , इस पर एक मजबूत कहानी लिखी जा सकती है , अवश्य लिखें . लघुकथा का ट्रीटमेंट सच में थोडा अलग होता है . कथ्य बहुत ही दमदार है , बधाई .