Thursday, November 17, 2011

साथ होकर भी दूर


संजय कुंदन॥



भारतीय दांपत्य जीवन की एक विचित्र बात यह है कि यहां पति-पत्नी में संवाद बड़ा कम होता है। गांवों में तो कुछ ऐसे पुराने जोड़े भी मिल सकते हैं, जिनमें जीवन भर एक-दो जरूरी वाक्यों को छोड़कर कभी बात ही नहीं हुई। हालांकि इस बीच उनके बच्चे भी हुए। वे बड़े भी हो गए। उनकी शादी भी हो गई। ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी में कोई तनाव या झगड़ा रहा। हो सकता है उनके भीतर एक-दूसरे के प्रति बड़ा प्रेम भी हो। लेकिन संवाद न के बराबर रहा है। ऐसे कुछ लोग शहरों में भी मिल सकते हैं। दरअसल सामंती मूल्यों वाले पारिवारिक ढांचे में स्त्री-पुरुष का संबंध कभी सहज नहीं रहा। स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति ही उसकी बुनियाद रही है। इसलिए स्त्री-पुरुष एक साथ रहते हुए भी दो अलग समानांतर दुनिया में जीते रहे हैं।

चहारदीवारी में जिंदगी

जिन संयुक्त परिवारों की महिमा का खूब बखान होता है, वहां स्त्रियों के लिए कभी कोई निजी स्पेस रहा ही नहीं। हालांकि वहां पुरुषों के लिए भी पर्याप्त पर्सनल स्पेस नहीं रहा, लेकिन उनके लिए बाहर की दुनिया खुली थी, जहां वे अपनी मर्जी से कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र थे। लेकिन उनकी स्त्रियों को तो चहारदीवारी ही नसीब हुई। चूंकि घर सामूहिक रूप से चलाया जाता था इसलिए किसी की कोई निजी जिम्मेवारी नहीं थी। बच्चों की देखभाल की चिंता करने की भी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि यह कार्य भी सामूहिक रूप से हो रहा था। ऐसे में शारीरिक जरूरत के अलावा अपनी पत्नी के पास जाने का कोई मतलब ही मर्दों के लिए नहीं था। अगर कोई पुरुष इस दायरे से बाहर निकलकर अपनी पत्नी से जुड़ने और अपने सुख-दुख साझा करने की कोशिश करता, तो वह उपहास का पात्र बनता था। हमारे उत्तर भारतीय समाज में पुरुषों के लिए 'घरघुसरा', 'जोरू का गुलाम' और 'मउगा' जैसे संबोधन संयुक्त परिवार के मूल्यों के तहत ही बने होंगे। चूंकि समाज स्त्री को बच्चा पैदा करने वाली मशीन या घर की सेवा करने वाले रोबोट की तरह देखता था, इसलिए वह पचा ही नहीं पाता था कि कोई आदमी अपनी पत्नी से भला क्यों घुल-मिल रहा है।

ऐसे परिवारों में स्त्री - पुरुष संबंध में खासा पाखंड रहा है। एक परिवार में पांच भाई हैं। पांचों शादीशुदा हैं लेकिन वे रात के अंधेरे में सबकी नजर बचाकर पत्नी से मिलने जा रहे हैं , जैसे यह कोई अपराध हो। मंुह अंधेरे ही उन्हें बाहर निकल आना होता था। यही नहीं , कोई आदमी सबके सामने अपने बच्चे को प्यार तक नहीं कर सकता था। हम इस बात पर गर्व करते हैं कि भारत में वैवाहिक संबंध अटूट रहा है , उसमें पश्चिम की तरह कभी बिखराव नहीं आया। लेकिन गौर करने की बात है कि भारतीय दांपत्य कुल मिलाकर स्त्री के एकतरफा समझौते पर टिका हुआ है। जब एक पक्ष को कुछ बोलने की , अपनी अपेक्षाएं रखने की आजादी ही न हो तो तकरार की गुंजाइश क्यों होगी। वैसे जॉइंट फैमिली के खत्म होने के बावजूद संवादहीनता की समस्या खत्म नहीं हुई है। एकदम नई पीढ़ी को छोड़ दें तो आज शहरों में जो पढ़े - लिखे जोड़े हैं , उनमें भी डॉयलॉग की कमोबेश वही कमी बरकरार है। लेकिन इसका कारण समयाभाव नहीं है।



शैक्षिक और सामाजिक विकास के बावजूद पुरुषवादी मानसिकता पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। आज भी मर्द स्त्री को बराबरी का दर्जा देने के लिए मन से तैयार नहीं हैं। अब जैसे कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि ' पत्नी को हर बात नहीं बतानी चाहिए। ' शायद इसी आग्रह के कारण कई लोग दफ्तर की बात घर में नहीं करते। नौकरी हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। कोई व्यक्ति इसके तनावों , द्वंद्वों को पत्नी से शेयर नहीं करेगा तो किससे करेगा ? हो सकता है आपसी बातचीत में कोई रास्ता निकले। लेकिन लोग ऐसा नहीं करते क्योंकि वे पत्नी को इस लायक मानते ही नहीं कि उससे मिलकर कोई हल निकाला जा सके। पुरुष सोचता है कि उसकी पत्नी खाना बनाए , घर सजाए और बच्चों की देखभाल करे , भले ही वह नौकरीपेशा क्यों न हो।



वह दोस्त क्यों नहीं

कई विवाहित लोग एक महिला मित्र की तलाश में लगे रहते हैं। इसके पीछे उनकी दलील यह होती है कि चूंकि उनकी पत्नी बहुत सी चीजों में दिलचस्पी ही नहीं लेती इसलिए उन्हें एक ऐसे दोस्त की जरूरत है कि जिससे वे मन की बात कह सकें। दिक्कत यह है कि पुरुष अपनी पत्नी को दोस्त का दर्जा देने को तैयार ही नहीं है। वह मानता है पत्नी अलग होती है , दोस्त अलग और प्रेमिका अलग। लेकिन अब स्त्री पहले की तरह मजबूर नहीं रही इसलिए वह चुप रहने के बजाय आवाज उठाती है। इस कारण दांपत्य जीवन में तनाव आने लगा है। अगर पत्नी भी दोस्त बन सके तो शायद वैवाहिक संबंधों में मजबूती आएगी।





2 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

Saarthak Aalekh.... yeh sari baaten vicharniy hain...

प्रदीप कांत said...

यह मान्यताएँ अभी भी नहीं बदली हैं। और बदलाव की शुरुआत पुरानी पीढी के सहयोग से ही होगी