Wednesday, March 28, 2012

तीन बदंर


आठवे दशक की लघुकथाए - 2





तीन बदंर

किशोर काबरा

                रात के अधंरे में गॉंधीजी के तीन बंदरों से मैंने कहा- देखो इस समय यहॉं देखने वाला कोई नहीं है और मेरी आत्मा अभी तक सोई नहीं है। मैं सोचता हूँ, तुम सब एक काम कर लो। युगों से एक ही मुद्रा में बैठे हो , अत: हाथ पैर फैलाकर थोड़ा - बहुत आराम करा लो।
वे जब नहीं माने तो मैं उनके पास गया। पर , सच कहता हूँ उन्हें देखकर मेरी सॉंस रूक गई।
अब एक बन्दर अंधा हो गया था !
और दूसरा बदंर अंधा और गूंगा हो गया था।
तीसरे को देखकर तो मेरा दुख और भी गहरा हो गया है। यह बेचारा दुख का मारा अंधा , गूंगा और बहरा हो गया है।

(गुफाओं से मैदान की ओर - 1974)


2 comments:

बलराम अग्रवाल said...

आठवें दशक के राजनीतिक-चरित्र का चित्रण करती उल्लेखनीय लघुकथा है यह। 'गुफाओं से मैदान की ओर' में ही सुशीलेन्दु की लघुकथा 'पेट का माप' भी है जो सर्वप्रथम 'कात्यायनी'(लखनऊ, संपादक:अश्विनी कुमार द्विवेदी) के जून 1972 अंक में छपी थी। अपनी सूची में शामिल करने योग्य समझें तो देख लें।

प्रदीप कांत said...

लघुकथा है यह इस बडे देश का कडवा सच है