युगधर्म
लक्ष्मीकांत वैष्णव
अंदर कुछ बंट रहा
था। तनिक ठिठका तो द्वारपाल
ने नजदीक आकर कहा, रेवड़ी बंट रही है।
खाना चाहोगे! मैंने कहा कि चीज ही ऐसी है जिसे हर आदमी खाना चाहेगा-और मैं द्वार की ओर बढा। “ठहरो”,एक आदमी
अंदर से दौडा आया,पहले अपनी जाति बतलाओ” । ''क्यों? मैंने पूछा। “हम लोगों
को उसकी जाति से पहचानते हैं।‘’ “तो क्या रेवड़ी भी
जाति पूछ -पूछ कर दी जा रही है।‘’ मैंने अंदर रेबड़ी खा रहे लोगो की ओर र्इशारा
करके पूछा। वह बोला ''हां ‘’।–“ मगर
प्रजातंत्र के युग में जातिवाद?” उत्तर में वह आदमी हंसा फिर बोला- अब्बल तो रेवड़ी खाने वाले
तर्क नहीं किया करते और अगर करते भी हैं तो रेवड़ी पेट में पहुंच जाने के बाद करते
है। मैंने कहा- ''हम सभी मनुष्य
जाति के हैं। हम में भेद क्या है ?” “ लगता है तुम्हें
रेबड़ी नहीं खानी है तभी व्यर्थ की बात कर रहे हो ।‘’ वह लपक कर दूसरे याचक की तरफ बढ़ गया।
(गुफाओं से मैदान की ओर - 1974)
2 comments:
सामयिक राजनीतिक सन्दर्भों को मजबूती से पेश करती दमदार लघुकथा।
हम सब अपने आप को मनुष्य जाति का मान लेते तो फिर झगडा था ही क्या? यह लघुकथा भी न होती
एक सशक्त लघुकथा
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