Wednesday, August 27, 2008

अछूत

मोहन राजेश
पसीने से नहा चुकी थी रमिया । इतनी तपती दोपहरी में भी बाबू… चेहरे पर हवा करते हुए , पसीना पोंछ कर उसने अस्त - व्यस्त हुई साड़ी का पल्लू कमरे में खोंस लिया ।
बाबू रामसहाय भी पसीने से लथपथ हुए पस्त से पड़े थे, बिस्तरों में । बाद मुद्दत के मौका मिला था और आये अवसर को चूकना , उनकी सिफत नहीं थी। इसीलिए तो घरवाली के किसी रिश्तेदारी में जाते ही दस का नोट दिखा कर भरी दुपहरी में बुलवा लिया था रमिया को ।
एकाएक कुछ खड़खड़ाहट - सी सुन बाबू की तन्द्रा टूटी, "अरे रे रमिया गयी नहीं क्या अभी? अब तक तो चला जाना चाहिए था उसे । उन्होनें लेटे-लेटे ही झाँक कर देखना चाहा पर कुछ दिखलायी न पड़ा । आवाजें रसोई की ओर से आ रहीं थीं कहीं कोई बिल्ली - विल्ली न हो, अन्तत: रामसहाय को उठना ही पड़ा ।
वह सन्न रह गये - "रमिया ! रसोई में बैठी इत्मीनान से दही और अचार के साथ रोटी खा रही थी रमिया ।
"भूख लगी थी, बाबू" रामसहाय को दरवाजे पर खड़ा देख उसने दाँत निपोरते हुए कहा ।
"अरे, अरे, क्या कर रही है हरामजादी ! सारा चौका ही बिगाड़ दिया।" अब तक हतप्रभ से खड़े हुए बाबू एकाएक बिफर उठे किन्तु अपनी स्थिति का आभास होते ही आवाज कुछ दबाकर बोले-"भूख लगी तो माँग लेती बदजात , पर ब्राह्मण का चौका तो नहीं बिगाड़ना चाहिए था । ब्राह्मण की रसोई में मेहतरानी । राम … राम।"
"बाबू जब भंगन ब्राह्मण की रजाई में घुस सकती है तो रसोई में क्यों नहीं ?"रमिया ने बैठे -बैठे ही सवाल किया।
"बक -बक मत कर । चोरी करती है, शर्म नहीं आती ।" - वे तिलमिला उठे ।
"वाह ! बाबू वाह! उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे! इज्ज्त तूने लूटी मेरी । टट्टी झाड़ने को बुलाया और खुद झड़ गया । भूखे पेट इतना रौंदा - कुचला कि रात- बिरात की आधी - परधी भी गल - गला गयी । अब कहता है कि चोरी की है मैंने…। भूख लगी थी तो रोटी ही खायी है।"हाथ नचाकर फिर से सवाल किया रमिया ने - "ई चोरी है का?"
"भाषण मत झाड़ मादर… "बाबू का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा, " उठ फुट यहाँ से । नहीं तो दो लात देकर निकालूँगा।"
"ऐ बाबू बदजमानी मत कर । ई गाली और लातें तेरी महतारी को दियो। ज्यादा अपर - चपर की तो अभी हल्ला मचाए दिए हैं कि ई बेईमान झाड़न को बुला मुझ संग जोर - जबरदस्ती की है… समझा कि नहीं, हो जावेगी डाक्टरी ।"
बाबू रामसहाय के मुखारविन्द पर जैसे भारी- भरकम सा अलीगढ़ी ताला लटक गया हो । इतनी चंट चालाक होगी रमिया यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। उनके सामने अखबारी सुर्खियाँ तैरने लगीं - " अनुसूचित जाति की महिला के साथ बलात्कार ।" उनकी थुलथुल काया थर - थर काँपने लगी ।
"ऐ, रमिया रानी। अब तो जा। भाई गलती हुई मुझसे । जो कुछ कहा- सुना सो माफ कर । इस बार तो इज्ज्त रख दे… देख अभी वो चण्डी लौट आयेगी।"- स्वर को भरसक मुलायम बनाते हुए बाबू रामसहाय गिड़गिड़ाये-"अब तो जा मेरी माँ।"
"चली जाऊँगी, बाबू। जल्दी का है। तेरी घरवाली से भी मिलती जाऊँगी।" पहली मटकी का पानी कुछ कम ठण्डा लगा तो उसमें डाला लोटा निकाल कर दूसरी मटकी में डुबोते रमिया ने तसल्ली से कहा ।
रामसहाय बाबू जैसे अचेत हो रहे हों । अपनी चेतना को एकाग्र कर वे विष्णुसह्स्त्रनाम का पाठ करने लगे ।


2 comments:

सुभाष नीरव said...

भगीरथ जी, "ज्ञानसिंधु" के अंक देखता रहता हूँ। आपका चयन बहुत अच्छा होता है। मोहन राजेश की लघुकथा "अछूत" बहुत असरदार लघुकथा है । वैसे यह कथ्य बहुत बार कहानियों, नाटकों का हिस्सा बनकर भी आ चुका है।
मेरी शुभकामनाएं !

प्रदीप कांत said...

हमेशा की तरह बेहतरीन चयन......