चीख
सुदर्शी सौन्धी
मार्च की मस्त सुबह । चार बजे नामालूम सी धुंध । बादलों के पार से झांकता उजाला । उसने शाल कसकर अपने चारों तरफ लपेट लिया। पापा के कमरे की खिड़की खुल गयी है , थोडी ही देर बाद वे ओवरकोट पहनेंगे, फिर सिगार मुहॅं में दबाये सीढियों से नीचे उतर आयेंगे रोज की तरह वह मुस्करा देगी ठीक वैसे ही झुके -झुके जैसे अर्दली मुस्कराता है । क्या नहीं है उसके पास, एक आलीशान कोठी, दो दो इम्पाला , एक पापा की , एक उसकी । दो - दो टेलिविजन सेट, हिन्दी, पंजाबी अंग्रेजी, संस्कृत की सारी पुस्तकें सारे संदर्भ ग्रंथ .... । जरा घंटी दबाने पर नौकर हाजिर हो जाता है । पास ही पानी रखा हो तो भी वह खुद होकर तो पानी ले ही नहीं सकती। डनलप के गद्दों पर लेटे रहो या विलायती धुन पर घूमते रहो ... । या कामू काफ्का की किताबें पढते रहो ! एक सही अहसास । पूरी कालोनी में सबसे ऊंची और सबसे आलीशान कोठी है उसकी ... । होली है आज पर किसके साथ खेलें...पिछलें इक्कीस साल से यह दर्द उसे कुरेदता रहता है....किसी पडोसी बच्चे या समवयसा से गुलाल ही लगवा ले, पर पापा मानेंगे, उनकी नजर में तो सारे पडोसी बौने है , और पापा बौनों का साथ एक पल भी गवारा नहीं करते, उसे लगता है , वह चीख पडेगी वैसे ही , बेमतलब , फिजूल मे।
( अतिरिक्त-अंक ५ अगस्त १९७२)
1 comment:
पूंजीवाद और अपनी सुविधाओं के खतरों से आगाह कराती है लघुकथा।
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