पहचान
लक्ष्मेंद्र चोपड़ा
अंतिम यात्रा की तैयारियां हो रही थी। पूरा परिवार बहुत दुखी था। उसका दुःख देखकर तो अनजान भी दुखी हो जाता। वह जार जार रो रहा था ,
उसके जीवन का सब कुछ चला गया था। अपना होश हवास तक नहीं था उसे।
'चलो अंतिम दर्शन कर लो 'परिवार के बूढ़े पुरोहित ने अंतिम दर्शन की रस्में शुरू कर दी। पुरोहित श्लोक पढता जाता ;समझाता 'दुखी मत हो ,
बेटा पांव छू लो और हट जाओ.'आखिर वह भी दुःख से टूटा बेहोश सा आया। उसकी रुलाई थम नहीं रही थी।
पुरोहित की समझाइश सुनते ही चौंका ,सीधा तन के खड़ा हो गया,कड़क कर बोला -; बक रहे हैं पंडितजी मैं और इसके पाँव छूऊँगा अपनी
बीबी के ---आपका दिमाग तो ठीक है ?'
(आठवें दशक की लघुकथाएँ संपादक सतीश दुबे प्रकाशन वर्ष 1979 )
लक्ष्मेंद्र चोपड़ा
अंतिम यात्रा की तैयारियां हो रही थी। पूरा परिवार बहुत दुखी था। उसका दुःख देखकर तो अनजान भी दुखी हो जाता। वह जार जार रो रहा था ,
उसके जीवन का सब कुछ चला गया था। अपना होश हवास तक नहीं था उसे।
'चलो अंतिम दर्शन कर लो 'परिवार के बूढ़े पुरोहित ने अंतिम दर्शन की रस्में शुरू कर दी। पुरोहित श्लोक पढता जाता ;समझाता 'दुखी मत हो ,
बेटा पांव छू लो और हट जाओ.'आखिर वह भी दुःख से टूटा बेहोश सा आया। उसकी रुलाई थम नहीं रही थी।
पुरोहित की समझाइश सुनते ही चौंका ,सीधा तन के खड़ा हो गया,कड़क कर बोला -; बक रहे हैं पंडितजी मैं और इसके पाँव छूऊँगा अपनी
बीबी के ---आपका दिमाग तो ठीक है ?'
(आठवें दशक की लघुकथाएँ संपादक सतीश दुबे प्रकाशन वर्ष 1979 )
1 comment:
सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए रोते हैं ऐसे आदमी
औरत ऐसे लोगों की निगाहों में कामवाली बाई होती है
मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
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