काला सूरज
अनिल चौरसिया
कल्लू ने सोचा ,मुझे
क्या एतराज हो सकता है .
नहीं शायद उसने कुछ नहीं सोचा. फालतू लफड़े में कौन पड़े ? उसे तो बस काम करना है .काम करता रहा .
नहीं शायद उसने कुछ नहीं सोचा. फालतू लफड़े में कौन पड़े ? उसे तो बस काम करना है .काम करता रहा .
अचानक उसे बीमारी ने
आ घेरा .अजीब सी बीमारी –जबान को लकवा मार गया .उसने हिम्मत नहीं हारी .जबान का
काम आँखों से लेना चाहा .आँखों की भाषा सुनना किसी के बस की बात नहीं .उन्होंने जब
देखा कि अदना सा कल्लू दु:साहस करके जबान कि बजाय आँखों से बोलने कि कोशिश कर रहा
है तो गुस्से में आकर उसकी आँखों कि रोशनी भी छीन ली .
कल्लू प्रसन्न था –अब
केवल सुन सकता था .केवल सुनने वाले को हर कोई पसंद करता है ,पत्नी भी !उसने फिर
सुना,कोई कह रहा था –मैं सूरज हूँ !
उसने देखना चाहा
,आँखों में कालापन था .कहीं सूरज काला तो
नहीं हो गया –शायद !
छोटी- बड़ी बातें संपादक
महावीर प्रसाद जैन /जगदीश कश्यप (१९७९ )
1 comment:
मैं सूरज हूँ सबसे शक्तिशाली दबंग . कल्लू, एक मजदूर ,शक्तिहीन ; विरोध करके तो लफडा ही होना है
उसे काम करते जाना है लेकिन काम करते बोलना भी चाहता है लेकिन शक्तिशाली ने बोलने कि आजादी
छीन ली . बोलने वाले का गुस्सा अब आँखों से छलकने लगा .तो उन्होंने आँखों कि रोशनी छीन ली .वह केवल सुन सकता है और व्यवस्था को सुनने वाले बहुत पसंद है .सूरज से संवाद संभव नहीं है
काला सूरज रोशनी का प्रतीक नहीं है यह तो काले दिनों कि याद दिलाता है जब जबानों को लकवा मार गया था आपातकाल के दौरान . अभी फिर उसी दौर कि आहट सुनाई पड़ रही है अब कि मिडिया दबंग के पक्ष में चौबीस घंटे सेवारत है कल्लू कि आवाज कहीं सुनाई पड़ती है ?
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