Saturday, July 11, 2015

इज्जत

इज्जत
अंजना अनिल
खजानो बड़ी हडबडी में एक गठरी सी लेकर आँगन में आयी तो बेटे ने पूछ लिया –कहाँ जा रही हो माँ ? -कहीं नहीं ,तू यहीं बैठ .खजानो ने गठरी छुपा लेने की कोशिश करते हुए कहा –मैं अभी आती हूँ .—यह तुम्हारे हाथ में क्या है ?
-कुछ नहीं ....कुछ भी तो नहीं ! कहती खजानो चोर की तरह बाहर निकल गई .
गठरी में खजानो की दो पुरानी सलवारें और एक साडी थी .गली में आकर वह पड़ोस के मकानको घूर कर बुदबुदाने लगी ,--कमबख्त ! पता नहीं अपने आप को क्या समझते हैं ..हम गरीब सही पर किसी से मांग कर तो नहीं खाते ...कटोरी लेते हैं तो कटोरी दे भी देते हैं ...अपना ओढते है ...अपना पहनते हैं ..फिर भी इनकी नजर हम पर लगी रहती है ...मर तो नहीं गए हम ..अभी हिम्मत बाकी है .
दोपहर को खजानो अपने लापता पति को खोज खबर लेकर निराश सी वापस आ रही थी तो घर पहुंचते पहुंचते सोचा कि पड़ोसन से थोडा आटा मांग ले ताकि बेटे को तो कम से कम खिला पिला दे .परन्तु वह पड़ोसन कि दहलीज पर ही ठिठक गई .वो अपनी बर्तन मांजने वाली से कह रही थी –खजानो के घर को जानती हो,चार दिन से अंगीठी नहीं जली.
यह सच था मगर खजानो तिलमिला गयी थी .
वापिस आकर खजानो ने आखिर अंगीठी जला कर दहलीज पर रख ही दी .रसोई में पड़े टीन कनस्तर खाली भन भनारहे थे ...पर  अंगीठी थी कि पूरी तरह भभक रही थी .ऐसे में बेटे से रहा नहीं गया ,बोला –माँ पिताजी का कोई पता ठिकाना नहीं ..घर में कहीं अन्न का दाना नहीं दिखाई दे रहा ,तुझे फिक्र है क्या  ? बता अंगीठी पर क्या धरेगी ?
--बेवकूफ ! तमाचा जड़दिया खजानो ने उसके गाल पर .
--धीरे बोल ...इज्जत के लिए सब कुछ करना पडता है!


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