Sunday, May 31, 2020

छोटी कथाओं की बड़ी बात 10

सुहाग की निशानी
अतुल मोहन प्रसाद

 ‘माँ! मैं बैंक की परीक्षा में पास हो गई हूँ|’                                                       ‘बहुत ख़ुशी की बात है बेटे ! तुम्हारी पढाई पर किया गया खर्च सार्थक हो गया |गांव में कॉलेज रहने का यही तो लाभ है| लड़कियां बी ए तक पढ़ जाती हैं |’ माँ ख़ुशी का इजहार करती हुई बोली| |                                                                                                      ‘इंटरव्यू लगभग तीन माह बाद होगा| बैंक की शर्त के अनुसार कंप्यूटर कोर्स करना आवश्यक है|’                                                                                                                                         ‘तो  कर लो| लो|                                                                                                                                                     ‘शहर जाकर करना होगा उसमें पांच हजार के करीब खर्च है |’ उदास होती हुई बेटी बोली|                                                                                      ‘कोई बात नहीं‘ माँ अपने चेहरे पर आई चिंता की रेखाओं को हटाती हुई बोली, ‘मैं व्यवस्था कर दूंगी |’                                                                                 ‘कैसे करोगी माँ?’ बेटी विधवा माँ की विवशता को समझती थी|                                                                                                            ‘अभी मंगल सूत्र है न ?किस दिन काम आएगा उसको बेचकर ...’                                                                                                           ‘नहीं माँ !वह तो तुम्हारे सुहाग यानी पिताजी की निशानी है तुम उसे हमारे लिए ...’ 
                                                                               ‘तुम भी तो उसी सुहाग की निशानी हो, उसी पिता की निशानी हो| इस सजीव निशानी को बनाने के लिए उस निर्जीव निशानी को गंवाना भी पड़े तो कोई गम नहीं|’ कहती हुई माँ के कदम आलमारी में रखे मंगल सूत्र की ओर बढ़ गए |




लंच बॉक्स 
अतुल मोहन प्रसाद

बिट्टू के पिताजी के विद्यालय जाने के समय ही किसी कार्यवश उनकी पड़ोसन आ गई |                                    ‘आज बिट्टू के पापा अवकाश पर हैं क्या?’ पड़ोसन ने बिट्टू की माँ से सवाल किया |                                        ‘नहीं तो |विद्यालय जाने के लिए ही निकले हैं|” बिट्टू की माँ ने कहा |                                              ‘आज खाली हाथ जा रहे हैं? लंच बॉक्स नहीं लिए हैं ?’ पड़ोसन ने एकसाथ दो सवाल दाग दिए|                           'जब से विद्यालय में सरकार ने छात्रों के लिए दोपहर में भोजन की शुरुआत की है, उन्होंने लंच बॉक्स ले जाना बंद दिया है|’ पड़ोसन को आश्वस्त करती बिट्टू की माँ ने कहा|

Wednesday, May 20, 2020

छोटी कथाओं की बड़ी बात 9



संवेदन पीठिका
-कृष्णलता यादव

अपनी दादी के सामने बैठी अनि एक पल दादी के चेहरे को देखती, दूसरे पल उसकी नजरें दादी के पलस्तर बंधे हाथ पर जा टिकती. तत्क्षण उनका बायाँ हाथ अपने नन्हें हाथों में लेकर बोली, ‘दादी, अगर हाथ टूटना ही था तो यह वाला टूट लेता.’                                           
‘फिर क्या होता, बेटू?” दादी ने लाड से भरकर पूछा.  ‘फिर आप उस वाले हाथ से लिखती रहती और आपको चुप-चुप नहीं बताना पड़ता. अब तक बहुत सारी कविता और कहानियां लिख चुकी होती न ?”                                                                                 अनि को अपने बाहुपाश में समेटते हुए दादी ने उसका माथा चूमा और अस्फुट शब्दों में कहा, ‘मेरी बेकली को समझनेवाली मेरी बच्ची, तुम संवेदना का गहना पहनकर धरती पर आई हो. दुआं करती हूँ, यह गहना यूँ ही दिपदिपाता रहे.’ कहते-कहते उनकी आँखों से दो मोती ढलक पड़े.




पहचान
-कृष्णलता यादव       
सार्वजनिक कार्यालय में काउंटर पर कर्मचारियों की लम्बी कतार. किसी के सामने पट्टिका नहीं. न जाने इनमें रत्ना कौन है. पूछने पर एक कर्मचारी ने बताया, पकौड़े-सी नाक, बिल्ली की सी आँखें, हाथी के से कान और ऊंट के से होंठों वाली महिला रत्ना है.                                    मैं कुछ आगे बढ़ी. दिमाग में बिल्ली, ऊंट, हाथी के चित्र बनने –बिगड़ने लगे तो झुंझलाहट हुई.एक अन्य कर्मचारी से पूछताछ की. उत्तर मिला, “सबसे भोली सूरतवाली स्त्री को रत्ना  समझिए.”                                                                  मस्तिष्क में रह-रह कर प्रश्न उठ रहा था. रत्ना के बहाने इन दोनों ने अपनी पहचान नहीं बता दी?     

     


Monday, May 11, 2020

छोटी कथाओं की बड़ी बात 8




परिवर्तन


–मालती बसंत
वह बहुत सीधी-सादी लड़की थी. कॉलेज में पढ़ती थी. फिर भी आधुनिक वेशभूषा से उसे परहेज था. साडी पहनती, कसकर एक चोटी बनाती, माथे पर बड़ी–सी बिंदी, पिता की आज्ञाकारी, हमेशा नजरें झुकाए चलती.                                                                                               लेकिन उसने देखा, वह तेजी से पिछड़ती चली जा रही है. सहेलियों में उपेक्षा पाती, लड़के उसके सीधेपन का मजाक उड़ाते.                                                 यह सब सोचकर उसने अपने को बदल डाला. उसने आधुनिक ढंग के कपडे सिलवा लिए. बाल कटवा डाले. बोलने में अंग्रेजी लचक लाने लगी. एकदम मॉडर्न लड़की की तरह उसका व्यवहार हो गया.                                                                             पढाई ख़त्म होने पर एक बहुत अमीर, सुन्दर, पढ़े-लिखे लडके से उसकी बात चली तो लडके ने उसे देखकर इंकार कर दिया कि उसे फैशन की तितली नहीं, सीधी-सादी घरेलू पत्नी की जरुरत है.                                                                                   अब फिर से अपने को बदलना उसे बहुत कठिन लग रहा था. 
  
प्रेमविवाह
-मालती बसंत
कॉलेज में वाद-विवाद का विषय था- प्रेम-विवाह उचित है या अनुचित? कई छात्र –छात्राओं  ने इसमें भाग लिया और प्रेम-विवाह को उचित ठहराया, किन्तु सिर्फ दो ही विद्यार्थी ऐसे थे, जिन्होंने प्रेम-विवाह अनुचित है पर जोरदार भाषण दिए. वे थे बी.ए. की छात्रा नीलम और एम.ए. का छात्र  विनोद.                                                                       नीलम विनोद के विचारों से सहमत थी और विनोद नीलम के विचारों से. इन्हीं विचारों के कारण वे एक दूसरे के निकट आए और सत्र के अंत तक दोनों प्रेम-विवाह का निर्णय ले चुके थे.  


Friday, May 1, 2020

छोटी कथाओं की बड़ी बात 7




व्रती
– कान्ता राय

सालों गुजर गए थे, मोहित विदेश से वापस नहीं लौटे.   

प्रतिदिन फोन का आना, धीरे-धीरे हफ़्तों का अंतराल लेते हुए, महीनों में बदल गया.                                         

   पतिव्रता अपने धर्म का निर्वाह किए जा रही थी कि आज ऑफिस में काम के दौरान अशोक दोस्ती से जरा आगे बढ़ ए.    

  उसने इंकार नहीं किया और व्रत टूट गया.

बैकग्राउंड
- कान्ता राय
"ये कहाँ लेकर आये हो मुझे।"
"अपने गाँव, और कहाँ!"
"क्या, ये है तुम्हारा गाँव?"
"हाँ, यही है, ये देखो हमारी बकरी और वो मेरा भतीजा "
"ओह नो, तुम इस बस्ती से बिलाँग करते हो?"
"हाँ, तो?"
"सुनो, मुझे अभी वापिस लौटना है!"
"ऐसे कैसे वापस जाओगी? तुम इस घर की बहू हो, बस माँ अभी खेत से आती ही होगी"
"मै वापस जा रही हूँ! सॉरी, मुझसे भूल हो गई। तुम डॉक्टर थे इसलिए ...."
"तो ....? इसलिए क्या?"
"इसलिए तुम्हारा बैकग्राउंड नहीं देखा मैने।"