सुहाग की निशानी
अतुल मोहन प्रसाद
‘माँ! मैं बैंक की परीक्षा में पास हो गई
हूँ|’ ‘बहुत ख़ुशी की बात है बेटे ! तुम्हारी पढाई पर किया गया खर्च सार्थक हो गया
|गांव में कॉलेज रहने का यही तो लाभ है| लड़कियां बी ए तक पढ़ जाती हैं |’ माँ ख़ुशी
का इजहार करती हुई बोली| | ‘इंटरव्यू लगभग तीन माह बाद होगा| बैंक की शर्त के अनुसार कंप्यूटर कोर्स
करना आवश्यक है|’ ‘तो कर लो| लो| ‘शहर जाकर करना होगा उसमें पांच हजार के करीब खर्च है |’ उदास होती हुई
बेटी बोली| ‘कोई बात
नहीं‘ माँ अपने चेहरे पर आई चिंता की रेखाओं को हटाती हुई बोली, ‘मैं व्यवस्था कर
दूंगी |’ ‘कैसे करोगी माँ?’ बेटी विधवा माँ की विवशता को समझती थी| ‘अभी मंगल सूत्र है न ?किस दिन काम आएगा उसको बेचकर ...’ ‘नहीं
माँ !वह तो तुम्हारे सुहाग यानी पिताजी की निशानी है तुम उसे हमारे लिए ...’
‘तुम भी तो उसी सुहाग की निशानी हो,
उसी पिता की निशानी हो| इस सजीव निशानी को बनाने के लिए उस निर्जीव निशानी को
गंवाना भी पड़े तो कोई गम नहीं|’ कहती हुई माँ के कदम आलमारी में रखे मंगल सूत्र की
ओर बढ़ गए |
लंच बॉक्स
अतुल मोहन प्रसाद
बिट्टू के पिताजी के विद्यालय जाने के समय ही
किसी कार्यवश उनकी पड़ोसन आ गई | ‘आज
बिट्टू के पापा अवकाश पर हैं क्या?’ पड़ोसन ने बिट्टू की माँ से सवाल किया | ‘नहीं तो |विद्यालय जाने के लिए ही निकले
हैं|” बिट्टू की माँ ने कहा | ‘आज खाली हाथ जा रहे हैं? लंच बॉक्स नहीं लिए हैं ?’ पड़ोसन ने एकसाथ दो
सवाल दाग दिए| 'जब से विद्यालय में सरकार ने छात्रों के लिए दोपहर में भोजन की
शुरुआत की है, उन्होंने लंच बॉक्स ले जाना बंद दिया है|’ पड़ोसन को आश्वस्त करती
बिट्टू की माँ ने कहा|
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