Saturday, December 28, 2013

अपनी बार


अपनी बार
पृथ्वीराज अरोडा
उसने दुखः और रोष में अपनी बडी बहन को लिखा—दीदी ! दो लडकियों के बाद लडका होने की हमें बहुत खुशी
है,परन्तु जो फ़ेहरिस्त तुमने बना भेजी है,वह सामान कहां से लाएं ! घर की हालत तुमसे छिपी हुई नहीं है।
फिर रीति-रिवाज तो आदमी के अपने ही बनाए हुए हैं, वह उसे तोड भी तो सकता है!
दो वर्ष बाद उसने अपनी मां को लिखा—मां ! जो कुछ मैंने लिख भेजा है वह सामान जरूर आना चाहिए 
पहला बच्चा  है –वह भी लडका । इधर बहुत बडा समारोह करने जा रहे हैं    मैं जानती हूं कि घर की हालत है
परन्तु किया भी क्या जाए, ये रीति-रिवाज तो निभाने ही पडते है !

(छोटी-बडी बातें 1978)

Thursday, September 26, 2013

प्यासी बुढ़िया

 प्यासी बुढ़िया  



 शंकर पुणतांबेकर 



'माई ,पानी देगी मुझे पीने के लिए ?'
'कहीं और से पी ले .मुझे दफ्तर की जल्दी है .'
'तू दरवाजे को ताला मत लगा .मुझ बुढ़िया पर रहम कर.मुझे पानी दे दे .मैं तेरी दुआ मनाती हूँ -तुझे तेरे दफ्तर में तेरा रूप देखकर तरक्की मिले .'
'तू मेरी योग्यता का अपमान कर रही है ?'
बड़ी अभिमानिनी है तू !तेरे नाम लाटरी खुले ,मुझे पानी दे दे .'
'कैसे खुले!मैं आदमी को निष्क्रिय और भाग्यवादी बना देने वाली सरकार की  जुआगिरी का टिकट कभी नहीं खरीदती .'
'मुझे पानी दे दे माई .तेरा पति विद्वान न होकर भी विद्वान कहलाए और किसी विश्वविद्यालय का वाइस -चांसलर बने .'
'चल जा !मेरे पति को मूर्ख राजनीतिज्ञों का पिछलग्गू बनाना चाहती है क्या !'
'तेरे पूत खोटे काम करें ,औरतों  ,लोगों पर भारी अत्याचार करें औरतों के साथ नंगे नाचें तब भी उनका बाल बांका न हो .बस तू  पानी दे दे मुझे.'
'लगता है बड़ी दुनिया देखीहै तूने !लेकिन हम लोग जंगली नहीं है ,सभ्य हैं और हमें अपनी इज्जत प्यारी है .जा,कहीं और जाकर पानी पी .'
'तेरा पति बिना संसद के ही प्रधानमंत्री बने .सोच इससे भी बड़ी दुआ हो    सकती है ?चल,दरवाजा खोल और मुझे पानी दे .'
' देती हूँ तुझे पानी पर मेरे पति को दोगला ,विश्वासघाती बनने का शाप मत दे'
  बुढ़िया जब पानी पीकर चली गई तो औरत के मुंह सेनिकल पड़ा -यह बुढ़िया ,बुढ़िया नहीं ,हमारी जर्जर व्यवस्था है जो सस्ती दुआएं फेंक कर हमारा पानी पी रही है ...नहीं ,पी नहीं रही ...हमारा पानी सोख रही है .


 (तनी हुई मुट्ठियाँ  संपादक -मधुदीप/मधुकान्त  इंद्रप्रस्थ प्रकाशन ,दिल्ली प्र.सं.1980)








Wednesday, August 28, 2013

ओस


बल्रराम अग्रवाल
रात्रि की शीत का अभाव पाकर सूर्य समय से कुछ पहले ही संध्या के आंचल में छिप जाना चाहता था।शरीर के ताप को चीर देने वाली शीत ने हल्के अन्धकार में ही नगर के मकानों
के द्वार बंद कर दिये थे।धीरे-धीरे घोर अन्धकार नगर की गलियों में बिखर गया। चिंघाडती वायु शीत का सहयोग पाकर वृक्षों का सीना चीर देना चाहती थी।
सारा नगर उपयुक्त ताप से लिपटा सो रहा था ।नगर से दूर खेतों खलिहानों के बीच एक पुरानी झोपड़ी मे दीपक की लौ शीतलहर को न झेल पाने के कारण
कुछ समय काँपने के पश्चात लुप्त हो गई । खेत में कहीं दूर कई सियार एक साथ हूंके। फटे लिहाफ को कुछ और लपेट कर वृद्धा ने शीत को भूलने की कोशिश की ।
मेघों ने धीमी छिडका -छिडकी करके शीतलहर को मित्रता का प्रमाण दिया । झोपड़ी की देहरी के समीप ही एक कोने में पड़ी बछिया ने सिर को पेट में कुछ और अधिक
घुसेड़ लिया ।
शीत को भुलाकर तेजी से भागते ठिगने युवक ने झोंपड़ी में प्रवेश किया । शीघ्रता  में चलने  के कारण वह बछिया से टकरा गया ।
--अम्बा ! बछिया की भिंची सी आवाज उभरी ।
--कौन ! वृद्धा ने यूं ही पूछा ।
--दादी माँ रात बिता लूँ !
--...............................
--हाय राम ! वृद्धा खाँसते खाँसते हकलाई ..... मुझे उठा .... । खांसी ने शेष शब्दों को कफ में मिलाकर धरती पर उलट दिया ।
--उठों नहीं ,तुम सो जाओ दादी माँ ! मैं बैठे ही रात गुजार लूँगा । युवक ने घुटनों को पेट में घुसेड़ कर उनको दोनों हाथों के घेरे में जकड़ लिया ।
ओस मे नहाई सूर्य की भोर किरणों ने झोंपड़ी की कपाटहीन देहरी को घेर लिया । ढेर से कफ को मक्खियों ने दिनभर का भोज्य समझ  अपना लिया ।
ठिगना युवक बछिया सहित रातों रात अंतर्ध्यान हो चुका था । ओस में सीले हुए तिनकोंवाली वृद्धा की झोंपड़ी को ,उस पर लदी फली -फूली बेल सहित ,गिरवी रखकर
सेठ ने कुछ रुपये दे दिये । पड़ोसियों ने वृद्धा के निर्जीव शरीर को अरथी पर जकड़ने का श्रेयअपने कंधों पर ले लिया । मोहक कहलाने वाली गुनगुनी किरणें
शीत -वायु को पीठ पर टिकाकर श्मशान को एक और आगमन का संदेश सुना आई । ( छोटी -बड़ी बातें 1978  सम्पादक-महावीर प्रसाद जैन/जगदीश कश्यप )

Monday, June 3, 2013

आठवे दशक की लघुकथाए

देश

सिमर सदोष

वहां पानी की बहुत तंगी रहती थी ।बाल्टी भर पानी के लिये लोगों को मीलों तक चलना पडता था।वहां आदमी नहीं,मिलों ऊंट बसते थे !
एक बार सैलानियों का एक दल उस क्षेत्र में जा पहुंचा ।उनके पास पानी का काफ़ी भंडार था,जो कम से कम दो साल चल सकता था ।
गांव के लोग आश्चर्य चकित से आते और दूर खडे उन्हें टुकुर-टुकुर ताका करते।
एक दिन एक सैलानी ने गांव वालों की भीड में सबसे पीछे एक संगमरमरी बुत खडा देखा । उसे गौर से देखने के लिये वह उसके नजदीक जा खडा हुआ
। उसकी नज़र भांप कर बुत के समीप खडे एक बूढे ने खींसे निपोरते हुए कहा-मेरी बेटी है हजूर!
सैलानी ने उन्हें साथ ले जाकर एक मटका पानी दिया। बूढा बहुत खुश हुआ! उस दिन बाप -बेटी कोई तीन महीने पश्चात नहाए।रात को अन्य सैलानियों ने देखा कि
उस सैलानी के खेमे में हल्की रोशनी जल रही है। उन्होंने खेमे में से आती कुछ आवाजें भी सुनी,जैसे वह किसी बुत के साथ खेल रहा हो।
धीरे-धीरे रात भर हल्की-हल्की रोशनी में नहाये खेमों की संख्या बढती गई और सैलानियों का पानी का भंडार निश्चित समय से पहले ही खत्म होने लगा ।
 अतः एक रात मुँह अंधेरे ही वहां से कूच कर गये । प्रातः किसी अनजाने भय के कारण कोई भी अपने घर से बाहर नहीं निकला। दोपहर तक हर कोई जान चुका था कि प्रायः
हर घर में से एक-एक संगमरमरी बुत गायब है ।सब एक दूसरे से  मुँह चुरा रहे थे ।

(छोटी-बडी बातें सम्पादन-महावीर प्रसाद जैन-जगदीश कश्यप प्रकाशन वर्ष 1978 पंकज प्रकाशन दिल्ली)


Monday, April 29, 2013

जिंदगी


जिंदगी

महावीर प्रसाद जैन
शादी के बाद पहली रात उन्होंने अपने भावी जीवन  को व्यवस्थित  करने की योजनाएं बनाते हुए बितायी ण्दोनों ने अपनी सीमित आय को देखते हुए यह निर्णय भी लिया  कि अभी कम.से.कम पांच साल अपने बीच बच्चा नहीं आने देंगे
  दोनों खुश थे बावजूद ढेर.सी दिक्कतों के। पति की आय में से कुछ भी बचना मुश्किल था ।गुजर बडी खींचतान से होती थी।पर दोनों समझदार थे। हालात से जूझना जानते थे ।
  एक दिन पत्नी ने बडे उदास लहजे में कहा.सुनो! तुम किसी डाक्टर या नर्स को जानते हो जो एबोर्शन—
.दीपा ! यह.
.हां...!
दोनों हैरान थे! यह क्योंकर और कैसे हो गया!बहुत एहतियात के बावजूद भी ।
.दीपा! यह क्या हो गया हम अपना भी पूरा नहीं कर पा रहे हैं और फिर—
.इसीलिए तो कह रही हूं कि ...
  रात को खाना वगैरह खाकर वे सोने लगे तो पत्नी ने सुबह की बात आगे बढाई।पति चुपचाप सब सुनता रहा।उसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह सारा दिन इस नयी स्थिति से निपटने का ढंग सोचता रहा था।पत्नी भी टूटी.टूटी.सी लग रही थी।
पत्नी बोली.जब इस तरह इससे मुक्ति मिल सकती है तो फिर हम उदास क्यों है ?
.तुम उदास हो ?
.नहीं आने वाले सुख से डर रही हूं !
.सुखों से डरते नहीं दीपा!
.और किया भी क्या जाये ?
.वही जो करना चाहिये अनायास वह उठ बैठा और पत्नी को स्वयं मे समेटता हुआ बोला.आने वाले की प्रतीक्षा में हम उसके स्वागत की तैयारियां करेंगे वह हमे नई जिंदगी देगा—
.हमारे हर सुख.दुख की लडाई में एक  और नाम शामिल हो जायगा ! कहते हुए पत्नी ने भी पति  को   बाहों में समेट लिया और उसे लगा कि वह पहले से अधिक सुरक्षित हो गई है !
(छोटी-बडी बातें  १९७८)

Monday, March 25, 2013

पासा


सतीश दुबे

खाना लगा दूं
हूं !
मूड तो अच्छा है ?
हां !
स्मिता आजकल जिद नहीं करती ?
हूं !
अब बाजार भाव फिर बढने लगे हैं ।
हां !
पडोस के वर्माजी का बच्चा बहुत बीमार है ।
हूं !
थोडी मिठाई भी लीजिए ना !
ऊं-हूं !
नीता की शादी में  चलेंगे ना ?
हां-हां !
आपकी क्लास-फैलो कुमुद आई थी,बडी देर तक इंतजार करती रही---!

अच्छा? कब? कहां है आजकल?कैसीहै? तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?बताओ,और क्या-क्या कहा उसने?

मैंने यह सब उससे पूछा था किन्तु वह हां -हूं करती रही ।

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प्रतिनिधि लघुकथाएं । 1976 । साहित्य संगम ,इंदौर

Thursday, February 21, 2013

रोजी


                   रोजी

       महेश दर्पण

तडाक---तडाक---तडाक--- उसने पूरी ताकत से सोबती के गाल पर तीन चार तमाचे जड़  दिये।वह अभी और मारता पर पीछे से सत्ते ने हाथ रोक लिया—पागल हुआ है क्या---डेढ हड्ड़ी की औरत है मर गई तो—?
उसके हाथ रुके तो जबान चल पड़ी
—हरामजादी आंख        फाड़-फाड़ कर क्या देख रही है –रात भर में तुझे दो ही रुपये मिले बस ? निकाल कहां छिपा रखे है--- रोटी तोडते समय  तो ऐसे   ---।
सोबती की लाल आखें, जो अब तक झुकी हुई चुपचाप सुने जा रही थी,उसकी ओर उठ गई –चुप भी कर हिंजडे—रात भर बीड़ी के पत्ते मोडे हैं  और तू----तन बेचना होता तो तुझे खसम ही क्यों करती !
(समग्र-१९७८)(छोटी-बडी बातें  १९७८)

Friday, January 11, 2013


सत्याग्रही 
प्रभासिंह
वे सत्याग्रह करने आई   थी। भुखमरी, बेरोजगारी, पिछड़ापन दूर करने और शिक्षा व्यवस्था को नया मोड़ देने के लिए।
वे राजनीति नहीं समझती थीं फिर इन सारी समस्याओं से ग्रस्त थी। जाड़े की हडडी कंपा देने वाली सर्द रातों के लिए , एक कम्बल तक उनके पास नहीं था। और शरीर पर चिथड़े ही चिथड़े थे।
दल की ओर से सत्याग्रह और फिर गिरफता्री में, महिलाओं का नाम आ जाने से सत्याग्रह का रिकार्ड कायम हो जाता । बस इसी आधार पर वे सत्याग्रही दल के नेताओं द्धारा फुसलाकर लाई गई थी।
तीन दिनों के निरंतर प्रयास के बाद भी वे जेल नहीं ले जाई गई तो नेताओं के लिए वे बेकार साबित होने लगी और वे लोग उन्हें टरका देने के उपाय सोचने लगे।
चौथे दिन दल के नेताओं ने सुबह में कार्यालय खाली पाया। वे चली गई थी पर कार्यकर्ताओं के धोती, लौटा और कुछ कम्बलों के साथ ही।
वे अपने अभियान में सफल रही थी, जबकि नेताओं का सत्याग्रह विफल गया था।


अतिरिक्त(मार्च1973)
रेगिंग
कृष्णा अगिनहोत्री
पिता कृषक । सीधी बंजर भूमि पर निंरतंर प्रयास से कुछ पैदा कर सके।
एक पुत्र : उसे कृषि में योग्य बनाने के लिए कृषि महाविधालय भेजा। गरीबी का आंचल फाड़कर वे किसी प्रकार प्रत्येक माह रूपये भेज देते और मंदिर में जाकर ईश्वर से प्रार्थना करते कि बेटा अच्छी तरह पास हो जाय।
लड़का सीधा सच्चा पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए लगन निष्ठा में अग्रसर । सीधी वेषभूषा सादा आचरण। लड़के उसे छेड़ते साधु महाराज की जय। उसे बहुत कहा गया परंतु वह गाढ़ी पैतृक कमाइ से अपने मित्रों की खिलाने पिलाने को सहमत न हुआ। लड़के बिगड़े उसे निर्वस्त्र करके सताया। परंतु उसने रूपये नहीं दिये। वह जानता था कि इनके जाने पर वह फीस जमा न कर सकेगा।
आप लोग जितनी चाहे रेगिंग ले पर मैं बहुत गरीब हूं मुझसे रूपये मत मांगी। लड़का रोने लगा।
ठीक है बच्चू गरीब है तो पढ़ने क्यों आया देख लेगे? छात्रों का झुण्ड चला गया।
लड़का प्रतीक्षा करता रहा एक से पन्द्रह तारीख आ पहुंची पर मनीआर्डर नहीं आया। वह सर पकड़ कर बैठा रहा । आज उसके कमरे में शानदार पार्टी थी पर वह कोने से खाली आंखो में ताकता रहा ।
उसके रूम -पार्टनर ने घकियाया- अबे बुद्धु चुप क्यां है इतना भी नहीं समझता तेरा ही तो माल है खाता क्यों नहीं
क्या !
हां परसों ही तो मेरा मनीआर्डर राजीव ने तेरी ओर से लिया था। उसकी आंखों का खालीपन बढ़ने लगा। बढ़ता गया वह जोर से चीखा मेरी फीस और अचानक चीख मारकर चुप हो गया।
साधु महाराज की जय....जय ।  पर वह चुप रहा। भूखा प्यासा चुप रहा। चुप्पी बढ़ती ग ई। लड़केसाधु महाराज की जय... कहते कहते बिखर गये। पर वह बैठा रहा। वैसा ही चुप और खाली।
मानसिक चिकित्सालय की मोटर आ ग ई। वह पागलखाने के कमरे में बैठा बुदबुदाया।
रेगिंग लो रूपये मत लेना।

अतिरिक्त(मार्च1973)     आई