फर्क
अनवर सुहैल
फुटपाथ पर दोनों की गुमटियां है. एक मोची की, दूसरी धोबी की. मोची शुद्र और धोबी मुसलमान. दोनों फुर्सत में अपनी दीन-हीन दशा पर चिंता किया करते. मोची अपने साथ छुआछूत और दुतकार से दुखी रहता. मुसलमान धोबी ने उसे समझाया, ‘भाई, छुआछूत, ऊँच-नीच का बर्ताव तो हमारे समाज में भी होता है ....उसे तो हम बर्दाश्त कर लेते हैं. लेकिन शुक्र है कि तुम्हें कोई पाकिस्तानी, आतंकवादी या देशद्रोही तो नहीं कहता !’
एक नसीहत और ...
अनवर सुहैल
अहमद इंजीनियरिंग पढने महाराष्ट्र जा रहा था. अब्बा उसे एक नई जगह में गुजर–बसर के लिए ऊंच-नीच समझा रहे थे. अहमद उन नसीहतों को अपनी गाँठ में बाँध रहा था. आखिर अब्बा ने दुनिया देखी है...ठीक तो समझा रहे हैं. अंत में एक नसीहत और दी, ‘और हाँ...सफर में या किसी अनजान जगह में लोगों के बीच ये जाहिर न होने देना कि तुम मुसलमान हो. मुमकिन हो तो कोई ऐरा-गैरा यदि नाम पूछे तो उसे अहमद की जगह अरविन्द, रमेश, महेश जैसे नाम बताओ....इंशाअल्लाह ! मुसीबतों से बच जाओगे.’
1 comment:
दोनों लघुकथाएं बेहद संवेदनशील है।
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