लघुकथा लेखन की सार्थकता
पिछले पच्चीस वर्षो के दौरान विपुल मात्रा में लघुकथा साहित्य सृजित हुआ है।
इस दौर में सैकड़ों नये लेखकों ने लघुकथा को अपनी सर्जनात्मक उर्जा प्रदान की है
तथा लघुकथा साहित्य को नई दिशाएँ व नये आयाम प्रदान किए हैं।
पाठकों के के तईं लघुकथा एक सर्व-पठनीय एवं सहज-बोधगम्य
विधा रही है। जहाँ भी लघुकथाएँ प्रकाशित हुई है, उन्हें पाठकों द्वारा सबसे पहले पढ़ा गया हैं। क्योंकि ये रचनाएँ कम समय में
ज्यादा पाने का एहसास देती हैं। लघुकथा में सम्प्रेषणीयता का संकट नहीं है। न ही
पांड़ित्य-प्रदर्शन का स्कोप। अतः पाठकों द्वारा इस विधा को बहुत ही पसन्द किया
गया।
लघुकथा वास्तव में जनविधा रही है तथा जनभाषा का प्रयोग करते
हुए इसने जनता के दुख-दर्दो और आकाँक्षाओं को अभिव्यक्ति दी है। लघुकथा राजनैतिक पैऺतरेबाजी, भ्रष्टाचार, अत्याचारऔर अनैतिकता
पर प्रहार करने में सक्षम रही है। सामाजिक रिश्तों में आए ठंडेपन और व्यक्ति की
आत्मकेन्द्रितता को भी लघुकथा ने बड़ी तीखी अभिव्यक्ति दी है। निश्चित ही, भविष्य लघुकथा का है।
लघुकथा ने साम्प्रतिक जीवन की जटिलताओं को सरलीकृत रूप में
प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है ताकि वे पाठकों के लिए बोधगम्य हो सके। जीवन की
छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास भी लघुकथा ने किया
है तथा छोटे आदमी के छोटे-छोटे संघर्षो को भी साहित्य में जगह दिलाई है। ऐसे
कथा-पात्रों की आवश्यकता नहीं रही, जो
महानायक हों और जिनके जीवन में बड़ी-बड़ी त्रासदियाँ घटती हों या जिनके जीवन में कई
उतार-चढ़ाव व मोड़ आए हों। लघुकथा ने इस आवश्यकता को समाप्त कर दिया है। रोजमर्रा की
छोटी-छोटी घटनाएँ लघुकथा की विषय-वस्तु बनती है। उन पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही
हैं। इस तरह लघुकथा-साहित्य भी बेहतर समाज निर्माण के लिए पृष्ठभूमि का निर्माण कर
रहा है।
लघुकथा लेखक की दृष्टि पैनी है, तभी तो वह आज की विसंगतियों, विरोधाभासों और विडम्बनाओं पर ठीक से प्रहार कर पाया है। तभी तो पतनशील
मूल्यों व मान्यताओं और नितान्त स्वार्थपरता को व्यंग्य की जद में लेकर नोच डाला
है।
मजे की बात है कि लघुकथा का बच्चों से लेकर बूढ़ों तक
सामान्य पाठक से लेकर चिन्तकों तक पर प्रभाव है। तभी तो मौलिक चिंतक जैसे टैगोर, जिब्रान, शेखसादी ने इस
कथारूप को अपनाया। यह कथारूप किस्सागोई से लेकर दार्शनिक फलसफे तक को अभिव्यक्त कर
सकता हैं। यह इसकी आत्यन्तिक सामर्थ्य है।
लघुकथा-साहित्य के लिए सबसे अच्छी बात यह रही थी कि इसके
लेखकों ने मुख्यतः लघुकथा लेखन को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम चुना इसलिए अपनी
समस्त उर्जा भी इसी विधा को दी। वे इस बात से ग्रसित नहीं थे कि साहित्य में उनका
स्थान दोयम दर्जे का है।
लघुकथा साहित्य में कला, कला के लिए प्रश्न
अप्रासंगिक है क्योंकि यह स्वांत-सुखाय विधा नहीं है। यह जनाभिमुख विधा है और इसकी
विषय-वस्तु साम्प्रतिक जीवन से प्राप्त होती है; विशेषतौर पर जहाँ व्यक्ति, परिवार, समाज या व्यवस्था सड़ रही हो। वहाँ इसकी दृष्टि पहले जाती है। इन अर्थो में लघुकथा शासक-शोषक
वर्गां का हित पोषण नहीं कर सकती है। यहाँ तक कि प्रेम सन्दर्भो के लिए भी इसमें
कोई विशेष स्थान नहीं है।
लघुकथा की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक आधारभूमि :
वे कौन-सी सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक परिस्थितियाँ थी, जिसने लघुकथा की विधा को इतना विस्तार दिया कि नवलेखन के
केन्द्र में यह विधा आ गई।
जो लोग लघुकथा को अगम्भीर लेखन मानते है, उनका कहना है कि लघुकथा लिखने में मेहनत नहीं करनी पड़ती और
वह आधे घण्टे की बैठक में लिख ली जाती है। इस सरलता के कारण, इस तरफ लेखन की प्रवृत्ति बढ़ी है। कइयों का मानना है कि
पाठक इसे इसलिए पसन्द कर रहे हैं, क्योंकि इसके पढ़ने
में कम समय लगता है। तो कइयों ने यह भी कहा कि आगे गम्भीर लेखन करने के लिए नये
लेखक लघुकथा के माध्यम से वर्जिस कर रहे है। लेकिन ये गम्भीर कहे जानेवाले चिंतक इस विश्लेषण की ओर उन्मुख
नहीं होते कि क्या वजह है कि लघुकथा ने आठवें दशक में उफान ले लिया? वे इसे आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सन्दर्भो में नहीं देखते।
मैंने अपने एक लेख हिन्दी लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में लघुकथा
के उद्भव की आधारभूमि का उल्लेख किया है -सन् 1967 के आते-आते इस तथाकथित आजादी से आम भारतीय का मोहभंग हो चुका था। जो
अपेक्षाएं वह नये लोकतंत्र,
प्रगति और योजना से लगाए बैठा था, वे चूर-चूर हो गयी। एक तरफ बेरोजगारी, विपन्नता, पीने के पानी तक का
अभाव,
स्वास्थ्य एवं शिक्षण सेवाओं की कमी थी तो दूसरी ओर
गगनचुंबी इमारतें,
भव्य औद्योगिक साम्राज्य, पाँच सितारा संस्कृति को पोषित करते कालेधन के स्वामी और नवधनकुबेर मौज मस्ती
कर रहे थे। राजनैतिक स्तर पर आस्था का विघटन, राजनेताओं के
खोखले आश्वासन,
सत्ता की दौड़, भ्रष्टता,
स्वार्थपरता एवं मूल्यहीनता आमजन में मोहभंग की स्थिति के साथ-साथ निराशा को भी
गहरा रही थी। जन आन्दोलन निराशा को तोड़ने की कोशिश में लगे थे, कुछ नया कर जाने का उत्साह पैदा हो रहा था। चुनाव और फिर
संयुक्त सरकारें,
नये लोग, नये चेहरे कुछ आशा
जगा रहे थे। सामाजिक ढाँचा गाँवों में अभी भी अर्ध-सामन्ती था। लोग वर्गो एवं
जातियों में बँटे थे और अपने परम्परागत धन्धों में लगे थे, किन्तु औद्योगिकरण ने उन्हें मटियामेट कर दिया था। कुछ
लोगों को नये अवसर मिल रहे थे और वे दोनों हाथों से मुफ्त का माल लूट रहे थे। उखड़े
ग्रामीणजन नगरों-महानगरों की गन्दी बदबूदार झोंपड़ियों में बसर कर रहे थे। गाँवों
पर कसे सामन्ती शिकन्जे को तोड़ने के लिए दुस्साहसी नक्सलवादी नये क्रांतिकारी
रूझान को जन्म दे रहे थे। ऐसी परिस्थितियों से गुजरनेवाला सृजनशील मानस सामाजिक
यर्थाथ को अभिव्यक्ति करने की प्रसव पीड़ा भोग रहा था।
किन्तु साहित्य की विरासत, जो उन्हें मिल रही
थी,
वह कोई उत्साहजनक या प्रेरणादायक नहीं थी। अकविता, भूखी पीढ़ी, श्मशानी पीढ़ी और नई
कहानी जैसे आन्दोलन थे। साहित्यकार अराजकतावाद के खोल में अस्तित्ववॎद को हिन्दी
साहित्य में बेच रहे थे। मध्यवर्ग से आए लेखक, जो निराशा के
शिकार थे,
अजनबीपन, कुण्ठाओं और संत्रास
के कृत्रिम संसार में भटक रहे थे तथा रोमांच, सेक्स और
रोमनी दिवास्वप्नों के मध्यवर्गीय टटपूंजिया सपनों में खोए थे।
इनके बीच से कहीं कोई वास्तविक चीख अँधेरे में बिजली-सी
कौंध जाती। लघु पत्रिकाएँ जगह-जगह से प्रकाशित होने लगी। राह की तलाश में कई तरह
के आन्दोलन से साहित्य भर गया, किंतु धीरे-धीरे यह
महसूस किया जाने लगा कि जिस साहित्य के केन्द्र में आम जन नहीं है, जीवन की यर्थाथ अभिव्यक्ति नहीं है, जो बहुजन संवेदना का वाहक नहीं है, वह साहित्य थोथा है। कहानी आमजन के आसपास, उसके समान्तर होने लगी। कविता में भोगा यथार्थ महत्वपूर्ण
होने लगा और रचनाकार का आक्रोश कविता में ज्वालामुखी-सा फूटने लगा। व्यंग्य की धार
पैनी होने लगी। आदर्श उपहास के पात्र हो गए। ऐसी ही परिस्थितियों की गंगोत्री से
लघुकथा की गंगा निकली।
छोटी-छोटी घटनाएँ, मामूली
स्थितियाँ एवं अनचीन्ही मामूली सी बातें, जो आम आदमी
के जीवन में अहम भूमिका निभा रही थी, उनकी ओर
पाठकों का ध्यान आकर्षित करना जरूरी था। आमजन उन नायकों की तरह नहीं थे, जिनके जीवन में महान घटनाएँ या त्रासदियाँ घटित होती हों।
वह तो मामूली आदमी था,
जिसका जीवन मामूली बातों से भरा था। जिनके जीवन में उपवन
खिल जाने की आशाएँ समाप्तप्रायः दिख रही
थी,
उन स्थितियों के दंश वह महसूस कर रहा था और उन्हें
अभिव्यक्त करने की तड़प सृजनशील मानस महसूस कर रहा था। इसीलिए कहानी और कविता के
परम्परागत ढाँचे टूट रहे थे।
अभिव्यक्ति की प्रसवपीड़ा के आगे विधाओं की सीमाएँ आड़े आ रही
थी। सृजनशील मन अभिव्यक्ति चाहता था, अभिव्यक्ति
साहित्य में जमे नाना प्रकार के रूपवाद के तमाम ताम-झाम से मुक्त होकर कथ्य की
प्रमुखता चाहती थी। अभिव्यक्ति को एक फार्म की तलाश थी और आठवें दशक के प्रारम्भ
में ही उसे यह फार्म उपलब्ध हो गया। मामूली आदमी के मामूली जीवन में महत्वूपर्ण
होती मामूली बातों की अभिव्यक्ति लघुकथा कर सकती थी। जो कथ्य की प्रमुखता पर बल
देती थी। इसीलिए इस विधा को पुनर्जीवन मिला और इसके पुराने फ्रेम को तोड़फोड़ दिया
गया और नये फ्रेम में नई तस्वीर मढ़ दी गई।
विशिष्टताएँ
लघुकथा एक कथ्य-प्रधान विधा है। कथ्य की अस्पष्टता लघुकथा को बहुत कमजोर कर
देती है। चूँकि लघुकथा कथा का लघुरूप होने के नाते लघुता इसकी विशिष्टता हुई।
लघुता के कारण ही यह कथ्य पर अधिक फोकस करती है। लघुकथा का फार्म एक कथ्य को ही
निभा पाता है। कथ्य की एकान्विति आवश्यक है, इस विधा में।
इसमें प्रधान तथा गौण कथ्य समान्तर नहीं चल सकते।
लघुकथा सुगठित होती है, एकदम कसी
हुई। इसके गठन में अनावश्यक विवरण तथा वाक्य तो क्या शब्द भी नहीं होते। कसी हुई
लघुकथा वह है जिसमें न जोड़ा जा सके, न घटाया जा
सके।
प्रभाव में लघुकथा ‘घाव करे
गम्भीर’
की प्रकृति की होती है। प्रभाव की गहनता इस बात पर निर्भर
करती है कि कथ्य के प्रकटीकरण के लिए लेखक ने क्या संयोजन किया है। उसने अपने
रचना-कौशल का उपयोग किया है या नहीं। अक्सर कथ्य सीधे-सीधे निष्कर्ष रूप में
अभिव्यक्त नहीं होते,
जैसा कि नीति-कथाओं में होता है। कथ्य प्रकटीकरण सांकेतिक
एवं अभिव्यंजनात्मक होता है, तो कभी वह प्रच्छन्न
भी हो सकता है। कथ्य के उद्घाटन में व्यंग्य का बहुत प्रयोग हुआ है। कथ्य का
कौशलपूर्ण उद्घाटन ही लघुकथा के प्रभाव को घनीभूत करता है।
जैसा कि पहले ही व्यक्त किया जा चुका है, लघुकथा सहज संप्रेषणीय होती है और उसे होना भी चाहिए।
अन्यथा वह अपनी उपयोगिता खो देगी। लघुकथा अक्सर द्वन्द्व से आरम्भ होकर, तेजगति से चरम की ओर चलती है तथा चरमोत्कर्ष पर अप्रत्याशित
ही समाप्त हो जाती है। लघुकथा का अंत अक्सर चौऺकानेवाला तथा हतप्रभ करने वाला होता
है। इस तरह का अंत पाठक की जड़ता को तोड़ता है, ठण्डे बर्फ
दिलों को तीव्र उष्मा देकर पिघला देता है लेकिन ऐसे अन्त के प्रति अत्यधिक आग्रह
होने से कई लेखकों में वीभत्स एवं गर्हित चित्रण की प्रवृति बढ़ी है।
लघुकथा के कथानक आम जीवन से ओत-प्रोत होते है, जो सामान्य जन की आंकाक्षाओं, सपनों,
संघर्ष और दुख को व्यक्त करते है। लघुकथा सामान्य जीवन की
छोटी-छोटी घटनाओं व उन पर सामान्यजन की प्रतिक्रिया को व्यक्त करती है। अक्सर
लघुकथा जीवन की कुरूपता पर फोकस करती है ताकि वह परिवर्तन की प्रेरक शक्ति बन सके।
लघुकथा में एब्सट्रेक्ट कथानक बहुत कम मिलते है जो विचारधारात्मक स्तर पर प्रतीकों
व रूपकों के माध्यम से व्यक्त होते है, लेकिन यह
लघुकथा की केन्द्रीय प्रवृत्ति नहीं है।
चूँकि लघुकथा लघु होती है अतः इसमें परिवेश के विस्तृत
विवरण नहीं होते,
परिवेश सांकेतिक भाषा में संक्षिप्त रूप में व्यक्त होता
है। इसी तरह चरित्र-चित्रण के लिए भी उतना स्कोप इस विधा में नहीं होता।
लघुकथा जनाभिमुख विधा होने के कारण इसकी भाषा जनभाषा ही हो
सकती है। भाषा की विशिष्टवर्गीय भव्यता इसमें नहीं होती, लेकिन भाषा का सौन्दर्य जरूर होता है। आखिर जनभाषा में भी
तो अलंकरण होते है जो मुहावरें, लोकोक्तियों, व्यंग्योक्तियों
द्वारा व्यक्त होते हैं।
लघुकथा के प्रमुख तत्व
लघुकथा एक सृजनात्मक रचना है, जो स्वयं में
सम्पूर्ण होती है। इसके गठन में कई अवयव होते हैं जो एक आयविक पूर्णता में
संश्लिष्ट होते है,
लेकिन रचना के बाहर इनका कोई महत्व नहीं होता है, वे रचना में ही महत्पूर्ण होते है।
कथानकः-घटनाओं, पात्रों व परिवेश
के सुसंगिठत ढाँचे को कथानक कह
सकते है। कथानक मौलिक एवं यथार्थपरक होने चाहिए, साथ ही वे विश्वसनीय भी होने चाहिए। अतियथार्थवादी, अतिरंजित, असामान्य वीभत्स, लम्बे व जटिल कथानक लघुकथा के लिए उपयुक्त नहीं हैं। अक्सर
लघुकथा अपने को एक घटना तक सीमित रखती है या घटना के किसी एक आयाम पर केन्द्रित
करती है। इसमें उपकथाएँ व अंतःकथाएँ नहीं होती। एकाकी कथानक ही लघुकथा के लिये
सर्वोत्तम होते है। कथानक तेजी से, बिना अपने
प्रवाह को अवरुद्ध किए,
चरम की ओर लक्षित होता है।
कथ्यः-कथ्य, यानी रचना के माध्यम से कहा जानेवाला सन्देश। यही लघुकथा का प्राण है। लघुकथा के कथ्य स्पष्ट
होने चाहिए। अस्पष्ट कथ्य रचना के अस्तित्व को ही खतरे में डाल देते हैं। इसमें एक
से अधिक कथ्य नहीं होते। लघुकथा के कथ्य विचारधारात्मक भी हो सकते हैं और
संवेदनात्मक भी। रचना के सृजन का उद्देश्य ही कथ्य है। आज के समय में, जब आम आदमी व्यवस्था और उसका प्रबन्ध करनेवालों से लगातार
छला जा रहा हो,
तब तो कथ्य और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कथ्य और रूप के द्वन्द्वात्मक
सम्बन्धों से रचना का विकास होता हैं। पूर्ववर्ती लघुकथाओं में उपदेश व नीति के
कथ्य थे और उसके अनुरूप ही उनका फॉर्म था। चूँकि
आधुनिक लघुकथाओं के कथ्य यथार्थ की जमीन पर खड़े हैं, इसलिए इनका फॉर्म पूर्ववर्ती लघुकथाओं से भिन्न है। कथ्य के
स्तर पर नई जमीन तोड़ी जानी चाहिए। अक्सर कथ्य की विविधता न होने का कारण लेखक का
वर्गीय चरित्र होता है। उसे अपने से इतर वर्गो का अनुभव नहीं होता। अतः जरूरी है
कि लेखक के सम्पर्क में सभी वर्ग हों, ताकि उसका
अनुभव विविधता लिए हो और प्रामाणिक भी हो।
लघुकथा के कथ्य अक्सर व्यवस्थाजन्य विकृतियों, विषमताओं और विसंगतियों पर फोकस रहते हैं। लघुकथा ने
राजनैतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार, अवसरवाद व छद्म
मानवीय सम्बन्धों में आई आत्मकेन्द्रिता को उकेरने का सफलता पूर्वक प्रयास किया
है।
संवादः- अक्सर लघुकथा में
कथ्य प्रकटीकरण संवाद के माध्यम से होता है। लघुकथा में संवाद छोटे, चुस्त, सटीक एवं तार्किक
होने चाहिए। संवाद लघुकथा में चुस्ती-फुर्ती और कसावट ले आते है। संवाद कथा के
प्रवाह को आगे बढ़ाते हैं। संवाद पात्रों के अन्तः सम्बन्ध एवं उनके कार्य-व्यापारों
के सम्बन्ध की जानकारी देते हैं। संवाद यह भी सूचित करते हैं कि पात्र किस वर्ग के
हैं ओर उनका चरित्र कैसा हैं। कथोपकथन में नाटकीयता हो सकती है, क्योंकि नाटकीयता संवादों को प्रभावी बनाती है। नाटकीयता
रचना में पाठकों की रुचि को बनाए रखती है।
भाषाः-लघुकथा चूँकि जीवन के यथार्थ को प्रतिबिम्बित करती है। आमजन
तक पहुँचने की अपेक्षा रखती है, अतः उसकी भाषा जनभाषा ही हो सकती है। और भाषा का सौन्दर्य भी तो यही है।
भाषा संक्षेपण में भी सहायक होती है। इस सन्दर्भ में कभी-कभी लम्बे जटिल वाक्य तो
कभी-कभी छोटे-छोटे अर्थगर्भी वाक्य भी रचनाकार की मदद कर सकते हैं। यह निर्भर करता
है रचनाकार के कौशल पर तथा रचना की आत्यन्तिक जरूरतों पर। भाषा की सांकेतिता तथा
व्यंजनात्मकता का लघुकथा में अतिमहत्वपूर्ण स्थान है। भाषा के ये उपकरण एक तरफ
लघुकथा के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वहीं लघुकथा
में विस्तार को रोकने में समर्थ हैं। चूँकि लघुकथा भ्रष्ट व्यवस्था पर सीधे चोट
करती है,
विरोधाभासों एवं विसंगतियों को उघाड़ती है, अतः इसकी भाषा भी दो टूक एवं व्यंग्यात्मक होती है। भाषा आँचलिकता
से ओत-प्रोत हो सकती है किंतु आँचलिकता का अतिरिक्त मोह अन्य हिन्दी भाषी पाठकों
के लिए रचना को दुरूह बना देता है।
शैलीः-तकनीक और शैली क्या
है?
अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की योजना ही तो है। तकनीक
जहाँ रचना की आंतरिक बुनावट पर ध्यान केन्द्रित करती है, वहाँ शैली
अभिव्यक्ति की विशिष्टता पर केन्द्रित होती है। तकनीक शैली का सम्बन्ध लेखक के
रचनाकौशल और कथा की आत्यन्तिक जरूरतों पर निर्भर करता है। प्रतीक और रूपक ऐसे होने
चाहिए,
जो जनसाधारण के लिए बोधगम्य हों। अत्यधिक रूपवादी आग्रह
रचना को दुरूह बना देता है। लघुकथा में
मुख्यतः निम्न शैलियों का प्रयोग हुआ है- 1. विरोधाभास 2. रूपक 3. संवाद 4. पैरोडी 5. प्रतीक 6. व्यंग्य 7.
दृष्टांत 8. अतिरंजना 9. एकालाप 10. गद्यगीतात्मक 11. फेंटेसी 12.
अमूर्त 13. आत्मकथात्मक या
संस्मरणात्मक।
समीक्षा के मानदण्ड
उपरोक्त विश्लेषण हमें समीक्षा के मानदण्ड तय करने में सहायक होगा। वह वह
कसौटी जिस पर लघुकथा को परखा जा सके, जो यह बता
सके कि रचना अच्छी है या बुरी। समीक्षा जहाँ एक तरफ विधा में उफान आए कचरे पर
रोकथाम करेगी,
वहाँ दूसरी तरफ रचना के विकास में भी सहायक होगी। वह पाठक
में रचना को समझने की दृष्टि भी देगी। समीक्षा निर्मम नहीं होनी चाहिए। निर्मम
समीक्षक न तो पाठक का भला करता है, न ही लेखक
का। अतः समीक्षा सहानुभूतिपूर्ण लिखी जानी चाहिए, जिसका उद्देश्य अपना पांडित्य प्रदर्शन और रचनाकार को छोटा सिद्ध करना नहीं
होना चाहिए। समीक्षा के मानदण्ड श्रेष्ठ रचनाओं को आधार बनाकर तय किए जाते है न कि
मानदण्डों के आधार पर श्रेष्ठ रचनाएँ रची जाती है।
प्रस्तुत लेख के विश्लेषण के आधार पर हम निम्न मानदण्ड तय
कर सकते हैः-
1.
सम्प्रेषणः- जो कला समझ में न आए, वह प्रशंसा
भी प्राप्त नहीं कर सकती। न ही रचना अपने उद्देश्य की पूर्ति करती है, क्योंकि लेखक स्वयं रचना के माध्यम से अपना मन्तव्य पाठक तक
पहुँचाना चाहता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाए तो रचना व रचनाकर्म निरर्थक हो जायगा।
कोई रचना पाठक में सौन्दर्य-बोध तभी जगा पाती है, जब वह अपना मन्तव्य पाठक तक सम्प्रेषित कर देती हो।
2.
प्रभाव की सघनताः- अगर कथ्य का सम्प्रेषण प्रभावपूर्ण है तो पाठक, वाह! कर उठेगा। सोचने पर विवश होगा या उसे झकझोर देगा तथा वे भाव पाठक में
तरंगित होंगे,
जो लेखक रचना के माध्यम से पाठक में पैदा करना चाहता है।
रचना संवेदना,
भाव और विचार की वाहक होती है। यह कार्य वह तभी पूरा कर
सकती है,
जब वह कथ्य व शिल्प दोनों स्तर पर प्रभावी हो। घनीभूत
प्रभाव के लिए निम्न बिन्दुओं पर बल दिया जा सकता हैः कथानक अनुभूतिजन्य, छोटे, तथा सामान्य जीवन से
जुड़े हो। कथानक छोटे हों तथा छोटे कालखंड में घटित हो। जटिल व लम्बे कथानक न हों।
कथानक सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत होने चाहिए।
कथ्य पैने, प्रहारात्मक, मार्मिक या हृदयस्पर्शी हों। कथ्य के स्तर पर नई जमीन तोड़ी
जानी चाहिए। कथ्यों में विविधता हो तथा कथा में कथ्य की एकान्विति हो।
भाषा जीवन्त एवं प्रवाहमयी हो। भाषा में सांकेतिकता एवं
व्यंजनात्मकता हो। पात्रों की भाषा पात्रानुकूल हो। भाषा दो टूक एवं व्यंग्यात्मक
हो। लघुकथा के लिए आदर्श भाषा जनभाषा ही है।
3.
कथा की बुनावट - कसी हुई रचना वह होती है जिसमें एक शब्द भी फालतू न हो
और न ही उसमें कुछ जोड़ने की जरूरत हो। अनावश्यक प्रसंग, विवरण व विस्तार न हों। चुस्त-सटीक एवं संक्षिप्त संवाद
रचना में कसाव उत्पन्न करते हैं। लघुकथा के गठन में आरम्भ एवं अंत का विशेष महत्व
है।
4.
सामाजिक मूल्यों के
सरोकारः- साहित्य मूल्यगत होता है। साहित्य नये मूल्यों का सृजन
करता है,
जो समाज के विकास में सहायक हो, जो मानव कल्याण में रूचि रखते हों। साहित्य उन मूल्यों पर
प्रहार करता है जो मानव मानव में विभेद करता हो, जो स्वतंत्रता,
समानता और मानवमात्र के कल्याण में बाधा उत्पन्न करता हो।
मूल्य समाज के सन्दर्भ में उचित व अनुचित का विवेचन करता है।
5.
भाषा शैलीः- भाषा-शैली को समीक्षा का मानदण्ड बनना ही है, क्योंकि रचना में भाषा बहुत महत्पूर्ण है। रचना सृजन का
माध्यम ही शब्द है। अतः भाषा कौशल रचना में प्राण फूँक देता है। इस पर चर्चा हो
चुकी है।
शैली से तात्पर्य रचना की शैली से भी है तथा लेखक की
विशिष्ट शैली से भी है। लेखक की विशिष्ट शैली का तात्पर्य यह है कि वह अपनी भाषा
शैली से पाठकों के बीच पहचाना जाने लगता है। श्रेष्ठ रचनाकार इस मंजिल तक पहुँच
जाते हैं।
लघुकथा की विभिन्न शैली की चर्चा पहले हो चुकी है, उनका विस्तार इस आलेख की सीमा में नहीं है।
6. कथ्य:- लघुकथा-साहित्य में
कथ्यों के दुहराव बहुत हैं। इसका एक कारण लेखक का केवल मध्यमवर्गी होना है। अन्य
वर्गो के लेखक इस विधा में साहित्य रच नहीं रहे हैं। कथ्य की विविधता के लिए जरूरी
है कि लेखक को सभी वर्गो के सम्पर्क में आकर उनके दृष्टिकोण से परिचित होना चाहिए, उनके जीवन से
परिचित होना चाहिए। कथ्य की सामाजिक प्रासंगिकता हो तथा श्रेष्ठ मूल्यों को
प्रतिष्ठित करनेवाले कथ्य हों। कथ्य प्रकटीकरण का समायोजन भी लघुकथा में विशेष
महत्व रखता है और लेखक को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
लघुकथा की समीक्षा में कथानक, कथ्य, भाषा-शैली, संवाद प्रभाव, संप्रेषण, कसावट, मूल्य-बोध आदि औजार महत्वपूर्ण हैं और समीक्षा को इसी
परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए।
भगीरथ
रावतभाटा, 1994
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