चेतना
भूत के पाँव दीखते हैं। मैं उसके धड़ को देखना चाहता हूँ।ऊपर नजर करते ही धड़
गायब। बस अँधेरे का एक काला धब्बा।
धड़कन तेज होती है। धड़धड़ाती है। भूख का एहसास मिट जाता है।
शरीर काँप उठता है। चारों तरफ़ देखता हूँ सिर्फ़ एक भय का अस्तित्व चारों तरफ़ फैला
पड़ा है। आँखें भींच लेता हूँ। चिल्लाने या पता नहीं रोने की कोशिश करता हूँ।लेकिन
कर कुछ नहीं पाता।
आँखें खोलने का साहस जुटाता हूँ। भूत के पाँव मेरी ओर बढते
हैं। फिर कुछ दूरी पर आकर रुक जाते हैं।केवल पाँव। मैं बेहोश होने ही वाला था कि
अँधेरे के हाथ मेरे गले के इर्द–गिर्द चलने लगे। मानों
उसकी मोटाई नाप रहे हों। अचानक पाँव भी गायब हो जाते हैं। उनकी पहचान मिट जाती है, और अँधेरे के मजबूत हाथ का शिकंजा मुझे जकड़ लेता है। जड़वत।
जैसे अहिल्या पत्थर बन गई थी। सब कुछ समाप्त। किसी का कोई अस्तित्व नहीं था।
एक एहसास। भयंकर पिशाची अट्टहास। मेरे अस्तित्व को अन्तिम
चुनौती थी। यकायक मैं अस्तित्व के खतरे से मुक्त हो जाता हूँ। सब कुछ से निबटने को
तैयार। आत्मा शरीर के मुकाबले विशालकाय हो चुकी थी। चेतना कह रही थी, चुनौती स्वीकार करो।
चेतना प्रज्वलित होकर ऊपर उठती है। लपटें, लाल सूर्ख लपलपाती लपटें किसी भी अँधेरे का मुकाबला कर सकती
हैं। भूत को भून कर खा सकती है। मैं चाहता हूँ – वे हाथ और पाँव मेरी तरफ़ बढ़ें मगर यह क्या! अब वे अपने आप
को बचाने में लग गए हैं। अँधेरा मेरे लिए अब अचीन्हा होता जा रहा है।
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चिनगारी
उसे चिगारियों से खेलने का शौक था। उसका पिता चिनगारियों को खतरनाक समझता था। उसके
शिक्षक,
स्वजन भी उसे टोकते थे। जब वह चिनगारियों को हाथ में लेकर
घुमाता तो आग का एक गोला बन जाता था। वह उन्हें इतनी तेजी से घुमाता कि दहकता गोला
मिटता ही नहीं था। कुछ लोग उसके हाथ से चिनगारी भरी लकड़ी खींच लेते या डराने के
लिए कहते-ऐसा करेगा तो रात बिस्तर में मूत देगा।
ठंडी के दिनों में वह अक्सर बिस्तर में मूत देता। तब गली
में जलते अलाव के चारों तरफ घेरा डाले बच्चों के साथ चुपचाप बैठ जाता और बुढ़िया
दादी से कहानी बहुत ध्यान से सुनता। जैसे वह स्वयं राजकुमार है। घोड़े की टापेऺ उसे
अपने कानों में लगातार सुनाई दे रही हैं। कमर में तलवार टंगी है और हलकी-सी आहट पर
वह तलवार खींच लेता है।
लेकिन यकायक ही कल्पना की उड़ान थम जाती है। चाकू को हाथ मत
लगाना,
बहुत तेज है। हाथ कट जायगा। जैसे चाकू अपना ही हाथ काटने के
लिए हो और तलवार अपनी ही गर्दन। उससे चाकू छीन लिया जाता और टाँड पर रख दिया जाता, जहाँ उसका हाथ नहीं पहुँच सके। उसका मन होता कि राजकुमार की
तरह तलवार चलाए और दुश्मनों को पछाड़ दे। राज प्राप्त कर, राजकुमारी से शादी कर ले। गहराइयों को पाट दे, ऊँचाइयों को इन्सानों की हदबंदी में ला दे।
कहानी एक तरफ रह जाती। उसके मन की उड़ान ऊँचाइयाँ भरती। हसीन
ख्वाबों के नवरंग छिटक जाते। तब उसे गहराई का अन्दाज लगता। पता लगता उस गहराई के
तल में वह स्वयं बैठा हुआ है, दुबका-सा। उस जैसे और लोग भी अपनी पोटलियों को पेट और टाँगों
के बीच दबाए बैठे हैं। कभी उसे अपनी पोटली में तबाही का सामान दीखता,
तो कभी चिनगारी।
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आतंक
अचानक उन्होंने पिस्तौलें निकाल लीं। कड़कती बिजली अचानक हरे-भरे पेड़ों पर गिर
जाए,
कुछ ऐसा ही हुआ उस समय।
वे चार थे। दो पग्गड़ धारी थे जिनकी दाढ़ियों पर फट्टे कस कर
बँधे हुए थे,
मगर पग्गड़ ढीले थे। मूँछें ऊपर की ओर उठी हुई थीं, लम्बे,हट्टे–कट्टे जवान। आँखें पूरी चौकसी में थीं। पिस्तौल पर हाथ की
पकड़ ऐसी मजबूत थी जैसे हाथ में ही पिस्तौल उग आया हो। दूसरे दो, जिनकी मसें अभी भीग रही थी, दाढ़ी पर मुलायम बाल उग रहे थे, वे जींस की
पैंट और बुशर्ट पहने थे। जबकि पहलेवाले दो ने सलवार और कमीज पहन रखी थी। वे
एक-दूसरे से पीठ सटाकर पिस्तौलें ताने खड़े थे। आदेश के मुताबिक बस सुनसान कच्चे रास्ते
से होती हुई खाली खेतों की तरफ भागने लगी। फिर आया खाली मैदान, बस्ती से दूर।
आदेश मिलते ही बस रुकी। पग्गड़ धारी बस से उतरे। अन्दरवाले
युवकों ने एक-एक के सात आदमी बस से उतारे। बाकी बस–यात्री आदेश के अनुसार सीट के नीचे बैठ गए। बस–यात्री,
भयभीत और आतंकित। पता नहीं क्या होगा!
यकायक गोलियों की आवाज सुनसान बियावान को तोड़कर, उनके ह्रदय और मस्तिष्क को बेध गई। पेरालिसिस का अटैक हो
गया बस यात्रियों पर। सात लाशें धूल में लोट गई।
वाहे गुरु की फतह! अब तेरे पंथ को कोई खतरा नहीं।
उनका आदेश मिलते ही बस ड्राइवर ने बस चला दी।
उन सात में से एक बच गया था। उससे पूछा, “तुम्हें कैसा महसूस हुआ?”
वह बोला, “आप खड़े हैं, चुपचाप, फूलों को निहारते हुए और अचानक एक अन्धा आदमी आपसे टकरा जाय।
आप गिर जाओ और आपकी टाँग टूट जाए तो किस पर गुस्सा करोगे! किससे बदला लोगे?
आदमी को अन्धा बनाने की कीमियागिरी इन्हीं गुरुद्वारों,
मस्जिदों और मन्दिरों में व्याप्त है। सोचिए,
क्या ये पूजा के स्थल हैं?”
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अन्धी दौड़
एक बहुत बड़ी भूल-भुलैया है। उसके मुहाने पर चूहों का रेवड़ छोड़ दिया है। वे
भागते हैं,
बेतहाशा। वे दौड़ते हैं, अंधे कोनों
से टकराते हैं। लहूलुहान होते हैं। लेकिन दौड़ना छूटता नहीं।
नहीं दौड़ने का मतलब है पीछे छूट जाना। पीछे रह जाने का मतलब
है,
अपने अस्तित्व को संकट में डालना। वे नहीं जानते कि
भूल-भुलैया में घुसने के बाद आगे दौड़ रहे हैं या कहीं उन्होंने पीछे की दौड़ तो
नहीं अख्तियार कर ली है। कुछ चूहे इस दमघोंटू वातावरण से बाहर निकल कर खुले में
साँस लेना चाहते हैं मगर बाहर निकलने का रास्ता भूल गए हैं।
“क्या हमें इस अंधी दौड़ में भागने की बजाय मिलकर इस
भूल-भुलैया को तोड़ नहीं देना चाहिए।” एक चूहे ने
कहा।
कई चूहे ठिठक गए। सोचने लगे, “क्या ऐसा हो सकता है?”
लेकिन दौड़ फिर भी जारी रहती है।
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रोमांस के रंग
भाव विभोर हो वह बोली,
“मुझे पूनम का खिला चाँद अच्छा लगता है। और तुम्हें?”
उसने सख्त और सपाट स्वर में उत्तर दिया, “आकाश की बाँहों से उगती सूर्य-किरणें।”
“कोई साम्य है भला!” उसने टिप्पणी
की।
“लगता तो नहीं है, फिर हम क्यों
मिलते हैं?
क्यों साथ-साथ गुनगुनाते हैं? क्यों अठखेलियाँ करते हैं?”
“पता नहीं। ऐसा
क्योंकर हो जाता है।”
वह उसकी अँगुलियों से खेलने लगी।
“क्योंकि....शायद हमारा सपना एक हो। हमारी कल्पना का रंग एक
हो।”
उसने उसे बाँहों में भरते हुए कहा।
“शायद!” वह उसके सीने से
चिपक गई।
“फर्क है, तुम्हारा रोमांस
काल्पनिक है जो यथार्थ के थपेड़ोऺ से चकनाचूर होने लगता है। लेकिन मेरा रोमांस
यथार्थ से उगता सपना है। इसमें जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच की
चट्टानों से टकराने की क्षमता है। और यह सब मैं तेरे रोमांस के भरोसे कर लेता हूँ।”
“आह! आओ हम अपने सपने साकार करें।”
वह निश्चिंत हो उसका हाथ थामे चाँदनी में फुदकने लगी। उसे
लगा,
रोमांस के बिना जीवन अधूरा है। वह महसूस करने लगी कि रोमांस
के रंग यथार्थ की धरती पर ही ज्यादा चटख होते हैं।
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अन्तहीन ऊँचाइयाँ
सूरज बादलों में छिपता-छिपता अस्ताचल की ओर जा रहा था, जैसे कोई अपराध करके लौट रहा हो। वनस्पतिहीन ढालूपहाड़ियों
पर धूप के चकते प्रकाश के फोकस के रूप में यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं। बाकी बची जगह
आभाहीन होकर भी बदसूरत नहीं है।
जहाँ रहस्य हो, वहाँ देखना
भी अच्छा लगता है। मैदान में फैली धूप को कौन देखता है! बादलों को निहारो तो
मटमैले काले बादल अपने भीमकाय रूप में आसमान में फैले पड़े हैं। उनकी किनारें चाँदी
के गोटे के समान या हिमालय की हिमानी चोटियों की चमकती धूप के समान चमक रही है।
पहाड़ियों पर धूप के चकते घूमते हैं, जैसे हवाखोरी
के लिए निकले हों! पक्षियों के झुण्ड जंगल की ओर लौट रहे हैं। क्षितिज रंगों से
आपूर होने लगा है। ऐसे में झिलमिलाते पानी में सूरज के डूबने का दृश्य कितना
मनोहारी,
आनन्ददायक और सुन्दर है। निराशाओं, हीनताओं, कुंठाओं और आत्महत्या
के विचारों से आप्लावित मैं, नदी के इस छोर पर
आया था और पाँवों को पानी में डालकर बस यूँ ही देखे जा रहा था।
मैं अंतिम समय में शान्त हो गया। सारी सफलता-असफलता अब बस
यहीं समाप्त। मस्तिष्क में जमी भीड़ यकायक गायब हो गई। सुन्दरता का अथाह सागर हिलोरें
लेने लगा। सामने प्रकृति की अमूल्य निधियाँ विमुक्त फैली पड़ी हैं। क्या ये सभी
मुझसे अभी छूट जाएँगी? मैं अब तक कूड़ा-करकट ही इकठ्ठा करता रहा, यह अथाह सौंदर्य कहाँ देख पाया?
मैं अपने मानस को मुक्त कर देता हूँ! शान्ति के सफ़ेद कपोत
को क्यों कैद कर रखा है! उसे उन्मुक्त होने दो, व्योम की अन्तहीन ऊँचाइयों तक उड़ने दो। सूरज डूब चुका था,
अब मुझे भी लौट जाना चाहिए।
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धापू घाचण सोचती है
घाणी का बैल, घाणी में जुता गोल चक्कर काट रहा है। आँखों पर चमड़े की पट्टियाँ लगा दी गई ताकि आजू-बाजू
देख नहीं सके और चक्कर खाकर गिर नहीं जाए।
घाचण धापू घाण
पलटती जा रही है और बैल को हाँक भी रही है।
धापू को लगता
है कि औरत की जिन्दगी भी घाणी के बैल जैसी है। आँखों पर मोटी ओढ़नी का घूँघट पड़ा
रहता है ताकि उसकी नजर नीची ही रहे, सामने और
आजू-बाजू नहीं। घूँघट का सिरा जितना लम्बा होगा, उतनी ही इज्जत। घूँघट ऊपर खिसका नहीं कि औरतें ताने कसने लगती, “राम !राम! नाक तक घूँघट ले आई, बेशर्म कहीं की।”
जब साथ रहते
हैं और साथ-साथ काम करते हैं तो ससुर को भी बहू से कुछ पूछना ही पड़ता है। तब बहू
घूँघट की ओट रखकर भी ससुर से नहीं बोल सकती। बोले तो बेशर्म। तब या तो बहू इशारे
से समझा देती है या मुँह से "बच्च” की आवाज से ‘हाँ’
और ‘डचकारे’ से ‘ना’
कहला देती है। इससे भी पूरा नहीं पड़ता तो घर या पड़ौस के
किसी बच्चे को बुला,
उसे धीरे से कहती है। तब वहीं बात बच्चा जोर से कहता है।
साथ-साथ काम करने वालों के बीच, आमने-सामने रहते संवाद कितना कमजोर है कि बहू की बात कई बार
ससुर ठीक से समझ नहीं पाता। धापू सोचती है, ‘नर्स बाई और मास्टरनी तो खुले मुँह
पूरे गाँव में घूमती है और वे सबसे बात भी करती हैं, बुजुर्ग हो,
जवान हो या बच्चे हो। तो वो क्या बेशरम है? उनकी तो गाँववाले इज्जत भी करते है। फिर मेरे लिए यह सब
क्यों?“
धापू सोचती है कि पशु की तरह है मेरा जीवन गूँगा,
अन्धा और बोझ ढोनेवाला, घाणी के बैल जैसा! धापू सोचती ही जाती है। घाण पलटना भूल
जाती है। बैल अपनी ही रफ्तार से चलता जा रहा है। क्या वह भी ऐसे ही चलती
जायेगी....” धापू
घाचण सोचती है।
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अँधेरे द्वीप
अँधेरे के पंख! वह कहीं भी उड़कर पहुँच जाता है, अपने विशाल डैने फैलाकर।
हाथ को हाथ नहीं सूझता। हाथ से पकड़ने की कोशिश करो, काला स्याह नाग मुट्ठी की पकड़ में आ जाता है। छोड़ा नहीं जा
सकता,
उसे और कसकर पकड़ना पड़ता है।
आखिर अस्तित्व का प्रश्न है।
अँधेरा, वह सीधे तौर पर डंक
नहीं मारता। वह बिजली की तेजी सा फैल जाता है।
कोई रास्ता नहीं सूझता। लड़ाई कैसे जारी रखी जाए।
आदमी पागल सा डोलता है। सड़कों पर चिल्लाता है। उसका
सम्पूर्ण नैतिक बल टूट जाता है। बौखलाहट। घबराहट।
वह कौन है जो सीधे सामने न आकर, अँधेरे को सुनियोजित तरीके से बिछा देता है हमारे बीच।
एक-दूसरे तक की दूरी योजनों तक फैल जाती है। अँधेरेद्वीप! एक-दूसरे से कटे-कटे।
अपने आप में डूबे। योगी की तरह।
जीवन को ही सम्पूर्ण दुखों, कष्टों और तकलीफों
के लिए जिम्मेदार मान बुद्ध की मानिंद निर्वाण के सोच में दार्शनिक से डूब जाते
हैं।
तब साँप अँधेरे की ओट में अपना काम आसानी से कर जाता है और
हम तिलमिलाते हैं। हाथ-पैर पटकते हैं और
हम अंतिम रूप से लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।
हमारे लिए जीवन सीधी सरल रेखा नहीं है। अभावों, अज्ञान और अपमान से भरा जीवन है हमारा। जीवन से हमें अथाह प्यार है। खिलते-मु्स्काते
फूलों की पुकार और प्यार की मनुहार हमें अभिभूत कर देती है। इन फूलों पर ओले गिरते
देख हम गुस्से से भर जाते हैं। गुटरगूँ करते कबूतर के जोड़े को बाज झपट जाए, हमारे बर्दाश्त के बाहर की बात है। संघर्ष, क्रोध और घृणा इसी प्यार की अभिव्यक्ति है। जीवन को हम
चहचहाते हुए देखना चाहते है।
निराशा, टूटन और जुड़न, फिर एकबद्ध होकर संघर्ष हमारे जीवन की कहानी है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
बिखराव टकराव और फिर जुड़ाव। संघर्ष-दर-संघर्ष अंधेरे के जाले साफ करता है।
तब तूफानी लहरें हिलोरें लेने लगती हैं। नए जीवन का निर्माण
होने लगता है। तब अँधेरे द्वीप प्रकाशपुंज
से झिलमिलाने लगते हैं।
*********
फैसला
हीरा ने पंचायत में अर्जी दी कि उसके पट्टे की जमीन के एक फुट अन्दर तक प्रेमा
ने कब्ज़ा कर लिया है और उस पर उसने मकान बनाना भी आरम्भ कर दिया है।
पहले तो हीरा और प्रेमा में खूब कहासुनी हुई। कुछ लोग
बीच-बचाव को भी आए पर कोई हल नहीं निकला। अत: हीरा को मजबूर हो पंचायत में जाना
पड़ा।
पंचायत बैठी। पहले दिन दोनों तरफ से सुनवाई हुई, काफी नोक-झोंक के साथ। दूसरे दिन दोनों पंचों के पास दौड़ते–दौड़ते गए। उनकी अपनी–अपनी जाति के
पंचों ने उन्हें आश्वस्त किया। अब प्रेमा और हीरा ने मूँछें फड़काई। अभी तक वे सरपंच
के पास नहीं पहुँचे थे और वहाँ पहुँचना जरुरी था।
हीरा और पञ्च, प्रेमा और
पञ्च,
सरपंच से मिले। सरपंच ने बारी–बारी से उनके साथ गुपचुप बातें की। दोनों ने केस के हिसाब
से सरपंच को थैली भेंट की। फिर क्या था, दोनों की बाँछें
खिल गई।
फिर पंचायत बैठी। कोई निर्णय नहीं हुआ। मामला आगे की तिथि
में चला गया। फिर उससे भी आगे की तिथि में। अनिर्णय की स्थिति चलती रही। मकान पूरा
बन गया।
“मकान अब तोड़ा तो नहीं जा सकता!”
सरपंच ने हीरा को समझाया, “कुछ ले देकर केस रफा–दफा करो। क्यों आपस में बैर मोल लेते हो?”
फिर दोनों में बाकायदा समझौता कराया गया। सरपंच अभी भी उनको
देखकर मुस्करा देता है।
*********
मुनाफाखोरी
अखबार की सुर्खियाँ सामने थीं –जहरीली शराब
पीने से बम्बई में पचास जनों की मृत्यु। पन्द्रह महिलाएँ भी।
एक सज्जन, जो मेरे पास ही पान
की दुकान पर खड़े थे,
मेरे हाथ से अखबार लेकर पढ़ने लगे। सुर्खियाँ पढ़ते ही बोले, “साले! भूखों मरेंगे मगर शराब जरुर पीएँगे। ले बेटा, अब भुगत। अरे! औरतें भी, वाह! भारतीय
नारी!”
मैं उनका मुँह देखने लगा।
शराबियों के प्रति सहानुभूति होना अस्वाभाविक है। लोग बोलते–बोलते चुप हो गए। मैं हैरान! महाशय! जहरीली शराब बनाने
वालों और बेचने वालों को धन्यवाद दे आओ। और न हो तो उन्हें भारत–रत्न दिलवाने का यत्न करो।” कुछ लोग व्यंग्य को लक्षित कर मुस्कराए।
“आप शराबियों के हिमायती हैं। शराब से ---“ वे उपदेश देने लगे। इतने में मेरी निगाह अन्तिम पृष्ठ की एक
खबर पर पड़ी। मैंने कहा,
“महाशय! प्रवचन बन्द कीजिए और यह खबर पढ़िए।”
खबर थी–मिलावटी मूँगफली का
तेल खाने से पेरालिसिस।”
अब बोलिए! यही न कि तेल नहीं खाना चाहिए था। डॉक्टर हमेशा
तेल–मसाले खाने को मना करते हैं आप शायद उस वाकए को भूल गए
जिसमें ग्लूकोज चढ़ाने से एक सौ मरीजों की मृत्यु हुई थी। क्यों! यही कहोगे कि
एलोपैथी इलाज नहीं करवाना चाहिए था। मूत्र चिकित्सा क्यों नहीं की।”
सभी लोग ठहाके लगाकर हँसे। वे महाशय चलते फिरते नजर
आए।
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आत्महंता
उसने जीवन के सपने सँजोये थे, किन्तु वे चटखते रहे, टूटते रहे। ठीक उस शीशे की तरह, जिसमें उसकी असली शक्ल कई ख़ानों में विभक्त होकर टूटने का
पूर्ण अहसास दे जाती है।
बेकारी के दिन व्यतीत करते कितना फ्रस्ट्रेशन हुआ था उसे।
सब सम्बन्ध अर्थहीन और निरर्थक हो गये थे। वे दिन मानसिक तौर पर बहुत ही यातनाजनक
थे। वह सनकी और बदमिजाज हो गया था। वह अक्सर आत्महत्या के बारे में सोचने लगा था।
कभी-कभी उसमें आक्रोश की भावनाएँ उफनने लगतीं।
यकायक ही परिस्थितियाँ बदल गयीं। नौकरी मिलते ही दुनिया
इन्द्रधनुषी दिखने लगी। परिवार एवं दोस्तों में उसकी कद्र होने लगी। यहाँ तक कि वह
अपनी स्वयं की निगाह में सम्माननीय हो गया।
बॉस की भृकुटि पर उसकी नजर रहने लगी। उसका हिलना-डुलना, रोना-मुस्कराना सब भृकुटि पर निर्भर रहने लगा। उसका पूरा
प्रयत्न होता कि भृकुटि तने नहीं। जिन मानवीय मूल्यों के बारे में वह अक्सर सोचा
करता था,
अब वे उस भृकुटि में समा गये थे।
फिर भी, वक्त-बेवक्त, वह महसूस करता कि जीवन परिधि में बन्ध गया है। परिधि- जिसकी
किनारी चाँदी के गोटे-सी चमकती थी। लेकिन उसके अन्तर में एक भयानक घुटन-भरा अँधकार
हिलोरें ले रहा था। वह चाँदी की चकाचौंध में आँखें बन्द किए अँधकार में डूबा रहा।
सब-कुछ जानते-महसूसते हुए।
उसे अब तीव्रता-से महसूस होने लगा है कि वह सुविधाजनक
किश्तों में आत्महत्या कर रहा है, जिसका अफ़सोस उसे है भी और नहीं भी।
*********
हड़ताल
माँगपत्र. सभा. आमसभा.
मैनेजमेंट. बातचीत. खत्म. लेबर कमिश्नर. बातचीत. बीचबचाव.
फेल्योर
रिपोर्ट. आमसभा. गरमागरम. जनसभा. तेजतर्रार. आक्रोशी चेहरे. मुट्ठियाँ. बंधी.
जुलूस. मशाल जुलूस. नारे. गगनभेदी. मैनेजमेंट. कान में रुई. दिल में षडयंत्र.
धमकी. एक्शन. अनुशासनात्मक कार्यवाही. धौंस. कानून. चेहरे. चैलेन्ज. चेहरे.
तमतमाए. मुट्ठियाँ. कड़क. नारे. भड़ास. गाली गलौज. कार्यवाही. जबाबी.
नोटिस.
हडताल. डंके की चोट. काम का चक्का. जाम. चमचे. गद्दार. पिट्ठू. गुंडे. आक्रमण.
षडयंत्र. उकसाना. फंसाना. दबाना. धमकाना. लालच. नारे. जुलूस. धरना. घेराव. पुलिस.
अलगाव. लौह टोपधारी. राइफलधारी. पेट की खातिर. आँसू गैस. लाठी चार्ज. स्थिति.
परिस्थिति. विस्फोटक. मजिस्ट्रेट. मैनेजमेंट. शासन. भगत. मिलीभगत. तोड़ो. घेरा. तोड़ो.
एकता. लालच. टुकड़े. डर. सुरक्षा. कड़े. इंतजाम. धारा. १४४. जुलूस. बन्द. घेराव.
बन्द. धरना. प्रदर्शन. बन्द.
गद्दार.
पिट्ठू. फैक्टरी. धुआँ. मजदूर. भड़का. धारा. टूटी. जेलभरी. आन्दोलन. उभरा.
मैनेजमेंट. बौखलाया. चालें. पाँसा. टर्मिनेशन. सस्पेंशन. चार्जशीट. पुलिस केस.
३२०. ३०४.
टूटन. हताशा.
बिखराव. मैनेजमेंट. खिलखिलाहट. सरकार. सख्ती. मजदूर यूनियनें. सहयोग. आर्थिक.
नैतिक. एकबद्ध. एक्शन. सरकार. दबाब. मैनेजमेंट. झुकाव. रुख. समझौतावादी.
मैनेजमेंट. बौखलाहट. धमकी. तालाबंदी. नुकसान.
हड़ताल. तीस
दिन. घाटा. मालिक. चिन्ता. मजदूर. जोश-खरोश. मजदूर-मजदूर. भाई-भाई. लड़के लेंगे.
पाई-पाई. मजदूर. एकता. बलिदान. त्याग. इतिहास. विजय. जिंदाबाद.
समझौता. विजय. खुशी. मजदूर. संग्रामी. कोर्ट. कचहरी. बहस.
तारीख-दर-तारीख. बहस. साल-दर-साल.
*********
मंथन
आतप्त मन पर हिम-बूँदों की बौछारें।भीग के रह गया मन।भीगा-भीगा।शीतल एहसास
उभरता है,
और तमाम तपन को अपने अन्दर समेट लेता है। हवा में ठंडापन बरपा गया है। पवन
श्रावण के झूले झूलती,
विहँसती युवतियों की तरह बेफिक्र डोल रही है। मन कहता है, व्यर्थ ही इतनी आग समेटी। क्यों समेटी मैंने तपन अपने अन्दर!
क्या पाने के लिये यात्रा प्रारम्भ की थी और हाथ
क्या लगा! मैं किससे और क्यों आगे निकलना चाहता था। मैंने दूसरों को छोटा
करने और स्वयं को बड़ा बनाने के प्रयत्न में लपलपाती ईर्ष्या, द्वेष और चिन्ता को अपनी सम्पति बना लिया। जिसकी लौ ने मेरी सहजता, शान्ति और प्रफुल्लता को छीन लिया। प्रेम के अंकुर तक नहीं फूटे मेरे ह्रदय की
धरती पर।
लेकिन क्या मैं अपनी प्राथमिकताओं को बदल पाऊँगा?
हवाएँ सनसनाती हैं। पेड़ों से बूँदें झिर रही है। एक मेमना
पेड़ के नीचे खड़ा ठिठुर रहा है। मन करता है उसे गोद में भर लूँ और प्यार की आँच से
गरमा दूँ।
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