सभा चालू रक्खो
यूनियन की आमसभा हो रही थी। परसों वर्क्स कमेटी के चुनाव की तारीख है। आम
मजदूरों के बीच वे अपनी साख को मजबूत करना चाहते हैं, ताकि भॎरी बहुमत से जीतें।
नेताजी बोल रहे थे, “साथियों! हमने आपके लिये क्या नहीं किया? आगे भी करते
रहेंगे। उनका कहना था कि हमने ये किया, वो किया, ये कर देंगें, वो कर देंगे, वगैरह वगैरह
..” के बाद, “ये लाल झंडे वाले हैं, बड़े खतरनाक
हैं,
हिंसावादी है। हिंसा यानि गुंडई के दम पर मजदूरों पर धौंस
जमाते है। मैनेजमेंट की गोद में बैठकर संघर्ष का राग अलापते हैं। ये लोग रूस और
चीन के एजेंट है। राष्ट्र प्रेम की बात छोड़ो, राष्ट्रद्रोही
हैं। ये चाहते हैं हड़ताल हो, तालाबंदी हो, ताकि देश कमजोर हो और चीन या रूस हम पर हावी हो जाएँ ...”
“अबे ओ भडवे, यह भाषण तो
ठीक है पण यह बता,
तुम किसके एजेंट हो, -अमेरिका,
ब्रिटेन, मैनेजमेंट या
कांग्रेस के।”
“कौन है ये गद्दार!” मंच से कोई
नेता चिल्लाया।
“अरे कोई नहीं, पियक्कड़ है। आप लोग सभा चालू रक्खो।”
दस मजबूत पट्ठे उसे पकड़कर ले गए।
हथकण्डे
यूनियन कार्यकारिणी की सीक्रेट
मीटिंग चल रही थी। सचिव महोदय काफी गम्भीर थे, कुछ चिंतित
भी;
बोले, “साथियों! वर्क्स
कमेटी क्या है?
हमारी मदद से उत्पादन बढ़वाने का जरिया। अगर वर्क्स कमेटी ही
मजदूरों की समस्याएँ हल कर लेती तो यूनियन की जरुरत क्या है? यह बात सभी यूनियनें जानती हैं। फिर भी वर्क्स कमेटी के
चुनाव ऐसे लड़े जा रहे हैं,
जैसे विधानसभा के चुनाव जीत कर सरकार बनानी हो।”
कुछ सुस्ताकर, अपनी बात जारी रखी,
“वास्तव में बात यह है कि ये जो कॉमरेड हैं, वे वर्क्स कमेटी में बहुमत साबित कर हमारी मान्यता को अपने
सिर ओढ़ लेना चाहते हैं।”
पदाधिकारियों
के चेहरों पर मुर्दनी छा गई।
“और अगर
मान्यता चली गई तो हमारे एवं मैनेजमेंट के मधुर सम्बन्ध ब्रेक हो जाएँगे।”
“अबे, तू तो ऐसे बोलता है जैसे हम अनाथ हो जाएँगे। हम मजदूर हैं
और संघर्ष करना जानते हैं।”
एक जुझारू साथी ने कहा।
“बीच में मत
बोलो!”
सचिव महोदय चिल्लाए।
“ये क्या बात है, मैं जब भी
कोई बात कहता हूँ ....उसे पूरी तो होने दें और ध्यान से सुने फिर अपना मत व्यक्त
करें।”
फिर समझाने के अन्दाज में बोले, “हाँ,
तो बात ये है कि हम मजदूरों के छोटे-छोटे काम मिल-मिलाकर
करा देते थे। इसलिए मजदूर हमारे साथ रहते आए हैं। अगर यह आधार भी समाप्त हो गया तो
हमारे समर्थन में कमी आ सकती है इसलिए हमें चुनाव में कमर कस कर काम करना है, तमाम मतभेद भुलाकर।”
“मान्यता चली गई तो क्या यूनियन समाप्त हो जायगी?” एक कार्यकारिणी सदस्य, जो मैनेजमेंट
से कई फायदे उठा चुका था,
बोला।
“क्या बेवकूफी की बात कर रहे हो!” सचिव महोदय गुर्राए, “कैसे चली जाएगी?
सरकार हमारी है। सीक्रेट बैलेट कभी होने नहीं देंगी और
मान्यता जायगी नहीं। फिर सारे अफसर हमारे साथ है और मजदूरों को अफसरों की मेहरबानी
की जरुरत होती ही है।”
“फिर भी मान्यता चली गई तो ...?”
“मान्यता चली जायेगी कैसे चली जायेगी? हम यहाँ नेतागिरी
कर रहे हैं कोई भाड़ नहीं झोंक रहे। हम सारे हथकण्डे जानते है। ये एमएलए, एमपी कब काम आएँगे। फिर मंत्री है, लेबर कमिश्नर है तमाम कड़ियाँ एक से एक गुंथी हुई। हमारे
कब्जे में है,
समझे।”
आधी रोटी की तसल्ली
“यह अन्याय है। आपको रिप्रेजेंटेशन देना चाहिए। हम पूरा
सपोर्ट करेंगे।”
वह सोच में पड़ गई। उसे इस स्कूल में अध्यापिका हुए दो वर्ष
हो चुके थे। इस दौरान उसने दौड़-भाग कर काम किया। यहाँ तक कि दूसरी टीचर्स ईर्ष्या
भी करने लगी। फिर भी उसे स्थायी पद पर नियुक्त नहीं किया गया।
आज फिर इन्टरव्यू है नये लोगों को बुलाया गया है। उसे कॉल
तक नहीं किया गया। हाँ,
उसे आश्वासन जरुर दिए गए कि और लोगों के साथ उसकी नौकरी भी स्थायी
कर दी जायगी। फिर बेकार इन्टरव्यू की झंझट में क्यों पड़े?
बात ठीक थी। लेकिन, वास्तव में
वैसा नहीं होना था। किसी सम्बन्धी का ही चयन होना था, जैसे कि पहले हुआ था। फिर भी उसे क्षीण प्रत्याशा थी। वह हो–हल्ला मचाकर मैनेजमेंट की निगाह में नहीं आना चाहती
थी।
“फायदे के बदले नुकसान हो सकता है।” उसने कहा था। तब मैं सोच में पड़ गया।
“कैसे?” मैंने पूछा था।
“अभी तक तो गनीमत है,” उसने कहना आरम्भ किया,
“कल को मैं उनकी आँख की किरकरी बन गई तो चौबीस घंटे के नोटिस
पर निकाल फेकेंगे। और वैसे हो सकता है, एड-हॉक बेसिस
पर ही दो चार साल और चल जाय।”
“ठीक है!” मैं कह भी क्या सकता था। और वह कर भी क्या सकती थी। मैं
नीचे अपने पाँव के अँगूठे की हरकत देखता रहा और वह खिड़की के बाहर देखने का प्रयास
करने लगी।
*********
इक्कीसवी सदी
मदारी डुगडुगी बजाता हुआ गोलचक्कर काटता है। लोग जमा हो रहे है। लो, मजमा लग गया।
''
हाँ तो भाईसहाब, मेहरबान, कद्रदान कमर कस कर बैठिए और एक से एक नायाब खेल देखिए।
-जमूरे!
-हाँ उस्ताद।
-जाएगा?
-हाँ जाऊँगा।
-कहाँ जाएगा?
-इक्कीसवी सदी में।
-ये मुँह और मसूर की दाल (मदारी हँसता है ) खैर, अच्छे-अच्छे खाँ इक्कीसवी सदी में जा रहे हैं तो तू पीछे
क्यों रहे ?
तू भी जा।
-पहुँच गया, उस्ताद।
-जमूरे!
-हाँ,
उस्ताद।
-जरा पलट कर देख।
-इक्कीसवी सदी में जानेवाला पलट कर नहीं देखता।
-तो आगे देख।
-चकाचौंध में कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है उस्ताद।
-तो ये चश्मा ले, इसे पहन और
ठीक से देख, अब दिखाई देता है ?
-हाँ उस्ताद।
-क्या देखता है?
-मंत्रीजी विदेशी कम्पनियों से तोपें, पनडुब्बियां और लड़ाकू विमान खरीद रहे हैं।
-और?
-और भड़वे तालियाँ बजा रहे हैं।
-अच्छा बता मंत्रीजी क्या भाषण दे रहे हैं?
-कह रहे हैं विदेशी तकनीक और पूँजी को अपनाकर हम स्वदेशी बना
रहे हैं और देश को आत्मनिर्भर कर रहे हैं।
-अबे ठीक से बोल, कहीं मंत्रीजी
खुद तो आत्मनिर्भर नहीं हो रहे हैं '।
-मैं क्या जानू ! उस्ताद।
-दिमाग पर जोर डाल। विदेशों में सम्पति तो नहीं खरीद रहे हैं
मंत्रीजी। आँखों की सर्च लाईट से देख।
-स्वीस बैंक के खाते में बैंलेस बढ़ तो नहीं रहा है।
-जमूरे!
-हाँ उस्ताद।
-अब जरा आगे चल।
-चल दिया।
-क्या देखता है?
-शिष्ट मंडल विदेश रवाना हो रहा है।
-यानी लग्गे-भग्गे भी पिकनिक पर जा रहे हैं।
-नहीं उस्ताद, देश को आगे
बढा कर इक्कीसवीं सदी में ले जाना है तो विदेश तो जाना ही पड़ेगा।
-जमूरे! तुझे पता है गाँधीजी लंगोट पहन कर लंदन गये थे।
-हाँ।
-तो बता, लौटते समय अपने साथ क्या लाए थे ?
-उनके पास टीवी, टेप,
विडियो, ब्लू फिल्म के कैसेट
थे और उनकी लंगोटी मेन्चेस्टर से बनकर आई थी।
-बकता है, शर्म नहीं आती झूठ
बोलते,
उस्ताद यह ईक्कीसवी सदी है, झूठे का बोलबाला सच्चे का मुँह काला।
-जमूरे एक बात बता इक्कीसवी सदी, है कैसी?
-जैसे मुम्बई का नरीमन पॉइंट जैसे हेमामालिनी, जैसे माधुरी दीक्षित जैसे ऐश्वर्या राय।
- गरीबी, बीमारी बेरोजगारी का
क्या हाल है?
-बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ती।
-क्यों?
-क्योंकि जो भूखे गरीब बेरोजगार थे उन्हेऺ इक्कीसवी सदी में
आने ही नहीं दिया। वे बीसवीऺ सदी मे सड़ रहे हैं और सड़ेंगे। उनसे कहा था कि
इक्कीसवी सदी में चलना हो तो इन्हेऺ छोड़ो, वे छोड़ न
पाये गरीबी और अज्ञानता,
इसलिये रह गये 20वीं सदी में।
-जमूरे अब चश्मा खोल।
-नहीं खोलता।
-क्यों?
-क्योंकि मैऺ बीसवीऺ सदी जैसी घटिया सदी में नहीं आना चाहता।
बेहतर होगा तुम भी चश्मा लगाकर 21 वी सदी में आ जाओ।
-अबे क्या बकता है। उठ और पेट के वास्ते जनता से माँग।
*********
लोकतंत्र के पोषक
नया मंत्री भ्रष्ट है। उसने अपने नाम बगीचों और मकानों के पट्टे करवा लिए हैं।
“भ्रष्ट मंत्री गद्दी छोड़ो” नारों का शोर बढ़ता गया। जनता भड़क उठी थी।जनता सडकों, गलियों और बाजारों में पहुँच गयी थी। आरोपों का सिलसिला
लम्बा था सरकार सोच में पड़ गई। मंत्री के विरुद्ध आरोपों की जाँच के लिए एक
उच्चस्तरीय जाँच समिति का गठन होगा।
“तो क्या मुझे सार्वजनिक रूप से कठघरे में खड़ा होना होगा?” मंत्री ने मुख्यमंत्री से पूछा।
“आप ही कोई रास्ता सुझाइए!”
“मैं क्या बताऊँ?”
“तो सुनो, आप इस्तीफा मुझे दे
दो। जनता का ध्यान हट जायगा। फिर सरकार मामले को ढीला कर ड्राप कर देगी। जनता अपनी
विजय पर झूम उठेगी और आप जनभावनाओं और लोकतंत्र के पोषक माने जाओगे।”
काल के गर्भ में सब कुछ डूब गया। आज फिर रेडियो से नए
मंत्रिमंडल के गठन के समाचार आ रहे हैं। वे मंत्री अब केबिनेट स्तर के मंत्री बन
गए हैं। जनता उन्हें बधाई दे रही है। अखबार वाले उनके सम्मान में लेख लिख रहे हैं।
जनता उन्हें बधाई दे रही हैं।
आज वे सम्माननीय मंत्री है।
*********
अपना–अपना दर्द
राधा सुबह नौ बजे आ जाती है। आते
ही चाय-नाश्ते के बर्तन माँजती है और फिर कपड़ों का गट्ठर लेकर पीटती, पानी में खँगालती, सफ़ेद कपड़ों
पर नील लगाती और फिर उन्हें छत पर सुखाने डाल देती। फिर होता झाड़ू-पोंछा का काम निपटते–निपटते उसे ग्यारह-बारह बज जाते हैं। इस बीच वह सेठानी की हिदायतें सुनती रहती है:
“मुन्ने की
शर्ट का कालर ठीक से धोना।”
“इतने जोर से
क्यों कूटती है,
कपडे़ फट जाएँगे।”
“तू तो साबुन
पानी में बहाए दे रही है।”
राधा के लिये इन सबका उत्तर होता “हाँ, माँजी।”
सेठानी तखत
पर अधलेटी काजू टूँगते हुए निर्देश देती।
सेठानी को मिठाई खाने का भी शौक था। लालाजी जब रात लौटते तो मिठाई का दोना
लाना नहीं भूलते।
राधा एक घर
से दूसरे और फिर दूसरे से तीसरे। उसके शरीर में फुर्ती थी। सेठानी की तरह चर्बी
नहीं चढ़ी थी उसके शरीर पर। उसका तो पेट पीठ से छू रहा था और हाथों की हड्डियाँ एवं
नसें उभर आयी थीं।
वह कल्पना करती, काश! उसका
शरीर भी सेठानी की तरह गुदाज होता, तो रात को वो
हाड़ तो नहीं तोड़ पाते।
सेठानी मुटा गई थी और उनके शरीर में लगातार दर्द रहता। कभी कमर में, तो कभी सिर में। राधा अपनी ताकत लगाकर सेठानी की मालिश करती
तो उसकी ऊँगलियों कि हड्डियाँ दुखने लगती।
न साला दिन में चैन,
न रात में।
रात सोते वक्त भी कहाँ आराम। छुटका छातियाँ चूसता रहता है
और वह बेवड़ा आकर हाड़ तोड़ता है।
लेकिन सेठानी के घर लाला रात नौ बजे मिठाई का दोना लेकर आता
है। तब सेठानी मिठाई खाते-खाते दर्द का रोना लेकर बैठ जाती है। थका हुआ सेठ उसे
गोली देकर आराम करने की हिदायत देता है। सेठानी जागती रहती है और दर्द के मारे
कराहती रहती है।
*********
मकान
परियोजना क्षेत्र। शहर से दूर जंगल में, जहाँ पहले
कोई बस्ती नहीं थी,
अब सरकारी कॉलोनी है। ज्यों-ज्यों भर्ती बढती गई, मकान कम पड़ते गए। और अंतत: मजदूरों के लिए एक कमरे के
अस्थायी मकान बना दिए,
जिसकी छत एसबेस्टस शीट की थी।
मजदूरों के मकान में एक कमरा, कॉमन लेटरीन और बाथरूम। उसी कमरे में प्लाईवुड का पार्टीशन डालकर एक छोटा
रसोईघर बना दिया। उसी एक कमरे में पति-पत्नी और बच्चे किसी तरह सो लेते हैं। पर
माँ-बाप को डेढ़ फीट के खुले बरामदे को ही मकान समझना पड़ता है।
दो कमरों के क्वाटर्स की वरीयता सूची में उसका नम्बर चौथा
था। वह जल्दी ही क्वार्टर प्राप्त कर लेना चाहता था।
“कुलश्रेष्ठ का क्या हुआ?” उसने पूछा।
“सस्पेंड है।” दोस्त ने जबाब दिया।
“सस्पेंड तो वह साल भर से है?” उसने आगे जानकारी चाही।
“इन्क्वारी चल रही है। फ़ाइनल स्टेज पर है।”
“अच्छा, क्या
सोचते हो?”
“डिसमिसल पक्का है। सारे गवाह बदल गए।”
“सच!”
उसकी आँखों में चमक उभर आती है। तेजी से विचार उसके मस्तिष्क
में फ्लेश कर गए। भटनागर और गाँगुली तो सउदी अरेबिया जा रहे हैं। कुलश्रेष्ठ चला
ही जायगा। अब चाहे छँटनी हों या नहीं, क्वार्टर
मिलना तय है।
लड़के की पढ़ाई केलिए कमरा अलग से हो जायगा,
अगले साल उसे बोर्ड की परीक्षा देनी है।
*********
विवाह
“अगर ये बुड्ढा कुछ दिनों बाद मरा होता तो ...”
“कौन बुड्ढा?” पति ने जानना चाहा।
“यही कमला का
ददिया ससुर! बाद में मरा होता तो कमला के हाथ पीले कर छुट्टी पा जाते।”
“बात तो तुम
ठीक कह रही हो,
लेकिन मौत किसके हाथ में हैं!”
“पिछली चैत
में शक्कर तीन रुपये थी अब आठ रुपये। दाल चार रुपये अब बारह रूपये हो गई है।”
“मैं ही जानता
हूँ,
घर का खर्च कैसे चलता है।”
“मैं भी समझती
हूँ। जब से जगदीश की शादी हुई है, एक पेट और आ गया है।”
“इसलिए सोचता
हूँ,
जितनी जल्दी हो, महँगा-सस्ता
कैसे भी,
कमला की शादी से निपट ही जाऊँ।”
“ठीक कहते हो, जवान लड़की बाप के घर भॎर होती है और ससुराल में ही शोभती
है।”
शहंशाह और चिडि़या
एक शहंशाह अपने विशाल महल में सुख की नींद सो रहा था।
भोर हुआ चाहती थी। चिडि़याँ उसके खूबसूरत बगीचे में चहचहाने
लगीं,
फुदकने लगीं–एक डाल से
दूसरी डाल,
चोंच में चोंच डालकर बच्चों पर अपना प्यार उँडेलने लगीं।
शहंशाह की नींद में खलल पड़ा।
‘‘ये क्या चें–चें मचा रखी
है! खत्म कर डालो इन्हें!’’
हुक्मरान का हुक्म!नौकरों की बिसात क्या! तोप–तमंचे लेकर तैयार।
वजीर इकट्ठा हुए।
पहला प्रस्ताव आया, ‘‘हजूर इन्हें देश–निकाला दे दें लेकिन पड़ोसी देश से जब–तब आतंकवादी घुसपैठियों की तरह हमारी सीमा में घुस आएँगी।’’
दूसरे वजीर ने कहा,‘‘इसलिए मेरे विचार में इन्हें जेलों में बन्द कर थर्ड ग्रेड यातनाएँ दी जानी
चाहिए,
ताकि इन्हें सबक मिले कि एक शहंशाह की नींद में खलल डालने
का क्या अंजाम होता है।’’
तीसरे वजीर ने असहमत होते हुए कहा, ‘‘इससे तो जनभावना हमारे खिलाफ हो जाएगी। अतः हमें एक विधेयक पास
कर इनकी जीभ पर पहरा बैठा देना चाहिए।’’
चौथे वजीर ने एक तजवीज और पेश की, ‘‘ऐसा करने से शहंशाह को तानाशाह का खिताब मिलेगा, मेरे विचार में इन पर भुट्टो पर चले राजद्रोह के मुकदमे की तरह, मुकदमा चलाकर बाकायदा कानून की उचित प्रक्रिया से इन्हें फाँसी
की सजा दे दें। तब कोई क्या बोलेगा!’’
तानाशाह बोले,‘‘बेहतर! बहुत बेहतर!’’
तभी चिडि़यों का झुंड पेड़ों से उड़ा और चहचहाता हुआ चारों
दिशाओं में उड़ चला।
*********
सयानी लडकी
छाया रुआँसी घर लौटी थी। आज फिर
कुछ लड़कों ने उसके साथ छेड़खानी की। माँ अपने आप बड़बड़ाने लगी, “मैं बाज आई तुम्हारी, इन शिकायतों
से। बहुत हो गई पढ़ाई,
घर बैठकर मेरे काम में हाथ बटाओ, समझी!’
छाया सुबकने
लगी।
माँ ने
समझाते हुए कहा,
“जमाना खराब है। अकेले इधर-उधर मत जाया कर। और जरा यूँ बन
ठनकर कॉलेज जाने की क्या जरुरत है! जमाना देखकर चला कर। कहाँ तक तुम्हारी कोई
रखवाली करता फिरेगा?’
चाय पीते–पीते माँ ने सारा किस्सा पिताजी को सुना दिया। आखिर में
बोली,
“तुम्हें दिखाई नहीं देता, लड़की सयानी हो गई है। जल्दी रिश्ता-विश्ता ढूँढ़ो और हाथ पीले कर छुट्टी पाओ। कहीं
ऊँच-नीच हो गई तो कालिख पुत जायगी, कालिख!’
‘कौन लड़के थे?’ पिताजी ने संजीदे होकर पूछा।
‘गुंडे होंगे!
आजकल गुंडागर्दी बढ़ रही है।अखबार में आए दिन छेड़खानियों की खबरें छपती है।मैंने
छाया को समझा दिया है।”
“किसने छेड़खानी की है?” महेश ने घर में घुसते वक्त जो शब्द सुने थे, वे शीशे की तरह उसके कान में उतर रहे थे, ”मैं अभी उन लौडों को देख लूँगा।”
महेश चेतावनी बन सामने खड़ा था।
छाया सुबकते
हुए बोली,
“कुछ नहीं भैया यह तो रोज का मामला है। इस समाज में लड़की
होना ही जुर्म है।”
“तू नाम तो
बता!”
महेश ने ताव खाते हुए कहा।
“गुंडों से
उलझोगे?”
पिताजी जैसे उसके पुरुषत्व का मखौल उड़ा रहे थे, “जरा जमीन पर उतरो। गुंडे, पुलिस,
प्रशासन और समाज तुम्हारा भुरता बना डालेंगे।” पिताजी ने उसे यथार्थ का आईना दिखा दिया।
“पापा! न केवल
आप नपुंसक हो,
बल्कि अपनी औलाद को भी नपुंसक बना रहे हो। कायर और भीरु, आतंक के आगे झुकता जाए, झुकता ही चला जाए। अगर समूचा समाज ऐसा हो जायेगा तो
हमारी बहू-बेटियों को उनकी सेवा-टहल करनी पड़ेगी। कोई नहीं तो मैं अकेला ही इन
लोगों से टकराऊँगा।”
“अकेले लहूलुहान हो जाओगे, मेरे बेटे! जाओ और समाज मैं अपनी हैसियत बढ़ाओ।
फिर देखो,
मजाल है कोई तुम्हारी बहन को आँख उठाकर भी देख ले।”
महेश सोचता है। छाया सुबकना बंद करती है।
बाहर लड़के और लड़कियाँ जुलूस निकाल रहे हैं। हाथों में
तख्तियाँ हैं,
मुँह पर नारे। महिलाओं पर अत्याचार ...नहीं सहेंगे नहीं
सहेंगे ..महेश और छाया बाहर आकर जुलूस में शामिल हो जाते है।
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