पेट सबके हैं
वर्षों से सूखी जमीन चटखती जा
रही थी। दरारें धीरे-धीरे चौड़ाती गई और इंसान उसमें समाने लगे। भयंकर हाहाकार
चारों तरफ लपटें मार रहा था। उसने सोचा –‘सस्ती का
जमाना है मकान बनवा लेना चाहिए। फिर ऐसा सुनहरा मौका नहीं मिलने का।” लकड़ी, ईंट, चूना, धूल के भाव मिलने
लगा था। माल और मजदूरी दोनों ही सस्ती।
रोज शाम को
मजूर मालूम करने आते- “कल काम चलेगा न?’ वह कभी हाँ कह देता,
कभी कह देता-‘पानी का
प्रबंध नहीं हो पा रहा है। कुएँवाला बहुत पैसे मांगता है, बड़ी मुश्किल
हो गई है! कैसा ज़माना आ गया है!’
लूबा और देवा
उसके पास कल की चिन्ता लेकर आए। “भई, कल तो सिरफ एक मजूर की जरुरत है। लूबा, तू आ जाना। पांच रुपये मिलेंगे भई।” आधी मजूरी को आधा कर दिया उसने। पर लूबा कुछ नहीं बोला।
देवा बोला,
“मैं भी कल आ जाऊंगा, मुझे आप तीन
रुपये ही देना।”
वह उदास चिंतामग्न स्वर में अपने भूखे परिवार का रोना रोने
लगा।
“अच्छा तो
देवा,
तू ही आ जाना। लूबा तुझे परसों लगा लेंगे।” उसने दयालु होकर कहा।
लूबा ने देवा का गला पकड़ लिया, “साले, तू मेरे भाते में
झपट्टा मार रहा है !”
“साले, तेरे ही पेट है
क्या! बाकी सबके पेट में पत्थर पड़ा है?” देवा बोला और दोनों गुत्थम–गुत्था हो गए।
“अरे भई! क्यों लड़ते हो!” उसने चारपाई
से उठते हुए कहा, “मेरी बात तो सुनो !” उसने लगभग उन्हें
झिंझोडते हुए कहा, “अच्छा! तुम दोनों आ
जाना। तीन-तीन रूपये दूँगा। आखिर भई, पेट सबके
हैं!”
*********
आग
नयी कॉलोनी उठ रही है। ठेकेदार की ट्रकें भाग रही हैं। मशीनें रेत, गिट्टी और सीमेंट मिला रही हैं। रोड-रोलर चल रहे हैं, राजगीरों के हाथ मशीन की तरह चल रहे हैं। मजदूर पत्थर ढो
रहे हैं,
सीमेंट ढो रहे हैं, कंक्रीट ढो
रहे हैं।
जानते हैं, ये मजदूर-मजदूरिनें
कौन हैं?
आदिवासी भील, आधुनिक
सभ्यता से कोसों दूर लेकिन इनके सीने में भी दिल घड़कता है। रक्त नलिकाओं में खून
दौड़ता है,
कभी-कभी खौलता भी है। मृदंग की थाप पर पाँव थिरकते हैं, स्वर फूटते हैं और रात देर तक नाचते-गाते वहीं खुले आकाश
तले सो जाते हैं।
एक सत्पुरूष जो शाम के समय टहलते हुए उधर से निकलते, ईर्ष्या से भर जाते। प्रकृति की गोद, ठंडी हवा के झोंके, चाँदनी रात, नाच और गाना आह! क्या जीवन है! किन्तु अब सर्दी है, जरसी के ऊपर कोट पहनने पर भी ठण्ड लगती है। अब उन्हें खुले
आकाश में चूल्हे जलाते और चूल्हे के आसपास सिमटे नंग-धडंग बच्चों को देख वे उदास
हो जाते हैं।उनका मन दया से भर जाता। कुछ करना चाहिए, वे सोचते हैं।शहर के गणमान्य व्यक्तियों, यानी जिनमें दान दे सकने की हैसियत थी, जिनकी जमीनें थी, जायदादें थी, धन्धे थे, व्यापार थे, ठेके थे, मिलें थी; की मदद से कम्बल खरीदे गए।और एक शाम वे मजदूरों में कम्बल
बांटने पहुँच गए। उनके साथ-साथ और भी गणमान्य लोग थे। मजदूर अलाव के चारों ओर बैठे
बातचीत कर रहे हैं। औरतें रोटी पो रही हैं।
“यह कौन है?” सत्पुरूष ने एक
अनजान चेहरे को देखकर पूछा।
“यही वो शख्स है, हिंस्त्र
पशु। जंगल से भागा नक्सली।”
“इनको संगठित कर रहा है।” ठेकेदार उनके
कान में फुसफुसाया।
वह अनजान चेहरा उठता है, उसके साथ
मजदूर भी उठते हैं। वह ठोस मुद्रा में धीरे-धीरे आगे बढ़ता है।उसके चेहरे पर आग की
लपटें धधक रही हैं। आँखों के लाल डोरे बाहर निकलकर स्थिर हो गए हैं।
“हम वो नहीं हैं, यकीन करो, अभी कोई चुनाव का समय नहीं है”। गाँधी- टोपी ने सफाई दी।
“हम वो नहीं है, पादरी जो
कम्बल बाँटकर तुम्हारा धर्म परिवर्तन करेंगे।”
“हम वो नहीं हैं, मौलवी जो
तुम्हें एक चीथड़ा सुख देकर मुसलमान बनायेंगे”।
“हम तो हिन्दू है, तुम्हारे भाई”।
“नहीं-नहीं, हम तो इन्सानी फर्ज
निभा रहे हैं”। सत्पुरूष ने कहा।
“इन्सानी फर्ज!” वह हॅंसा, ‘क्या खूबसूरत नाम दिया है! दिनभर लूटो और रात के वक्त फर्ज
निभाओ’। वह फिर हॅंसता है। एकाएक तेवर बदल जाते हैं। अन्दर से
लावा फूटता है।
“न हमें हिन्दू बने रहने की रिश्वत चाहिए, न क्रिस्तान बनने का लालच”।
“हम गरीब सही, भिखमंगे तो
नहीं”। बुधिया ने हिम्मत बटोरी।
“नहीं-नहीं, बुधिया ये हमें
खरीदने आए हैं,
ताकि कल हम दिहाड़ी बढ़ाने की, झोंपड़ी बनवाने की, स्नान-शौचालय, दवा-दारू की मांग न करें। यह दया नहीं, हमारे हक को छीनने का षड्यंत्र है। अपनी लूट को इन्सानियत
का जामा पहना रहे हैं’। वे सब अपना-सा मुँह लिए लौटने लगे।
“गुण्डा कहीं का, बेचारों को
तबाह करने पर तुला हुआ है”। ठेकेदार फुसफुसाया। बच्चे टुकुर-टुकुर कम्बलों को देख रहे
थे।
“सरदी बढ़ गयी है। आओ आग के पास बैठेंगे”। वह बच्चों से बोला।
*********
सोते वक्त
कमरे में दो चारपाईयाँ बिछी हैं। बीच में एक दहकती हुई अँगीठी कमरे को गर्म कर
रही है। एक चारपाई पर बूढ़ा और दूसरी पर बुढ़िया रजाई ओढ़ कर बैठे हुए हैं। वे यदाकदा
हाथ अँगीठी की तरफ बढ़ा देते हैं। दोनों मौन बैठे हैं जैसे राम नाम का जाप कर रहे
हों!
“ठण्ड ज्यादा ही पड़ रही है।” बूढ़ी बोली,
“चाय बना दूँ?”
“नहीं!” बूढ़ा अपना टोपा नीचे
खींचते हुए बोला,
“ऐसी कोई खास सर्दी तो नहीं!” बूढ़ी खाँसने लगती है। खाँसते-खाँसते बोली, ”दवा ले ली?”
बूढ़े ने प्रतिप्रश्न किया, “तुम ने ले ली?”
“मेरा क्या है! ले लूँगी।” वह फिर खांसने लगती है।
“ले लो, फिर याद नहीं रहेगा।” बूढ़ा फिर कुछ याद करते हुए बोला, “हाँ,
बड़के की चिट्ठी आई थी।”
बूढ़ी ने कोई जिज्ञासा नहीं दिखाई तो बूढ़ा स्वतः ही बोला, “कुशल है। कोई जरुरत हो तो लिखने का कहा है।”
“जरुरत तो आँखों की रोशनी की है।” बूढ़ी ने व्यंग्य किया, “अब तो रोटी-सब्जी के पकने का भी पता नहीं लगता।”
“सो तो है।” बूढ़ा सिर हिलाते हुए
बोला,
“लेकिन वह रोशनी कहाँ से लायगा!”
कमरे में फिर मौन पसर जाता है। वह उठती है, अलमारी से दवा की शीशी निकालती है, “लो दवा पी लो।”
बूढ़ा दवाई पीते हुए कहता है, “तुम मेरा कितना खयाल रखती हो!”
“मुझे दहशत लगती है, तुम्हारे
बिना।”
“तुम पहले मरना चाहती हो। मैं निपट अकेला कैसे काटूँगा?” बूढ़ा आले में पड़ी घड़ी की तरफ देखता है, “ग्यारह बज गए!”
“फिर भी मरी नींद नहीं आती।” बूढ़ी बोली।
“बुढ़ापा है समय का सूनापन काटता है।”
बूढ़ा सोते हुए, खिड़की की तरफ
देखता है,
“देखो, चाँद खिड़की से झाँक
रहा है!”
“तो इसमें नई बात क्या है?” बूढ़ी ने रूखे स्वर में टिप्पणी की।
“अच्छा, तुम ही कोई नई बात
करो।”
बूढ़ा खीज कर बोला।
“अब तो मेरी मौत ही नई घटना होगी!” बूढ़ी बोली।
कमरे में फिर घुटनभरा मौन छा जाता है।
“क्यूँ मेरी मौत क्या पुरानी घटना होगी?” बूढ़े ने व्यंग्य और परिहास के मिले-जुले स्वर में प्रतिवाद
किया।
“तुम चुपचाप सोते रहो।” बूढ़ी तेज
स्वर में बोली,
“रात में अंट-संट मत बोला करो!”
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गोली नहीं चली
मेगाफोन से शांत होने का आग्रह। मेगाफोन से तितर-बितर होने का आदेश। चतुर लोग
किनारे खड़े तमाशा देखने की इंतजार में बीडी-सिगरेट फूँक रहे हैं। जिनका
दिल बैठ गया है,
वे घरों में बैठे राम-राम जप रहे है। अब क्या होगा? जुझारू लोग खड़े हैं। खड़े ही नहीं अड़े भी हैं। घृणा और क्रोध भभक रहा है। गरम-गरम लू
चल रही है।पसीना आते आते सूख जाता है। लू के थपेड़े लोग भूल गए हैं। याद है तो सिर्फ
एक नारा ‘विक्टीमाइजेशन वापस लो’।
पुलिस तैयार है।सभी साज-सामान से लैस: लाठी, आँसू गैस, राइफल, यहाँ तक कि मशीनगन भी! अस्पताल और फायर ब्रिगेड को
आपातकालीन आदेश दिए जा चुके हैं।
“इसका फैसला सड़क पर नहीं हो सकता।” मैनेजिंग डायरेक्टर ने कांपते हुए कहा।
“यहीं करना होगा। तेरे बाप को भी करना पड़ेगा।” कई स्वर एक साथ चीखे।
मजिस्ट्रेट एवं एस.पी.,
बीच-बचाव करने की कोशिश कर रहे हैं। घेरा तगड़ा है, टूटेगा कैसे?
पुलिस आदेश मिलते ही लाठी चार्ज कर देती है।आँसू गैस के गोले फोड़ दिए जाते है।
कुछ लोग लाठियाँ छीन लेते हैं।
उसे जीप में बैठा कर सुरक्षित जगह पहुँचा दिया गया। घायल
लोग अस्पताल पहुँचाए गए। जुझारू लोगों पर
पुलिस ने मुकदमे बनाए। कानून जो हाथ में लिया था और अगर नहीं लेते तो न्याय और
मुक्ति लड़ाई कैसे जारी रहती?
वे शांति और व्यवस्था चाहते हैं।
और वे जीने का सम्मानजनक हक माँगते हैं।
किनारे खड़े लोगों ने लड्डू फोड़े, गनीमत है गोली नहीं चली वरना दो-चार घर बर्बाद हो जाते। मुकदमे
में चार-पाँच साल की थुक्का फजीहत तो रहेगी ही। उन्होंने राय जाहिर की: भैया लफड़े
को आगे मत बढाओ।
सचेत एवं जुझारू लोगों ने जबाब दिया: यह वर्ग संघर्ष पीछे
कैसे हटेगा मेरे भाई!
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