अपनी बात
’पेट सबके हैं’ पुस्तक १९९४ में प्रकाशित हुई थी। तबसे यह कथा संग्रह लघुकथा क्षेत्र
के रचनाकारों के बीच चर्चा का विषय रहा है। इस जरुरी और महत्त्वपूर्ण पुस्तक ने
लघुकथा को प्रतिरोधी शक्ति के रूप में चिन्हित किया, जो आज भी एक मानक के
रूप में मान्य है। व्यंग्य इसकी शक्ति है और व्यंजना इसकी ताकत। शब्द शक्ति को
पहचान कर उसका संयमित उपयोग लघुकथा के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करता है। अर्थगर्भी शब्द अर्थ
के चिंतन विस्तार को संभव बनाते है। कबीर अपने दोहों के माध्यम से लक्षित लोगों पर
शब्द की चोट किया करते थे। चाहे मुल्ले
पंडित हो या सामाजिक परम्पराएँ। कबीर की इस चोट ने ही उन्हें अब तक जिन्दा रखा है। ’शब्द की चोट’
क्या होती है यह इस संग्रह की बहुत सी रचनाओं में लक्षित की
जा सकती है जैसे तुम्हारे लिए, शर्त, पेट सबके हैं, बघनखे, दाल-रोटी इत्यादि। लघुकथा और उसके रचनाकार अब ’शब्द की चोट’ को अच्छे से समझने लगे हैं और उसका प्रयोग अपनी रचनाओं में
भी करने लगे हैं।
चूँकि यह पुस्तक अब
अप्राप्य है और यदाकदा लघुकथा के विद्यार्थियों को इसकी जरुरत पड़ती रहती है इसलिए
इसका पुनः प्रकाशन आवश्यक समझा गया। अब इसे कुछ संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण के रूप में ऑनलाइन प्रकाशन से प्रकाशित करवाया
ताकि इसकी उपलब्धि प्रिंट ऑन डिमांड के माध्यम से हमेशा बनी रहे।
इस पुस्तक में अग्रलेख ’लघुकथा लेखन की
सार्थकता’
और पचहत्तर लघुकथाओं के साथ एक परिशिष्ट भी दिया है जिसमें
कुछ विद्वजनों ने इस पुस्तक के बारे में अपना अभिमत अंकित किया है। उन्होंने
संग्रहित लघुकथाओं पर विचार करते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की है जो मेरे लिए
प्रेरणा और पथप्रदर्शक बनी रहेगी। और लघुकथा के रचनाकारों के लिए भी उपयोगी साबित
होगी। बदलाव सिर्फ इतना है कि तीन अप्रासंगिक रचनाओं की जगह दूसरी लघुकथाएँ इस
संग्रह में शामिल की गई हैं।
सम्पर्क 228,
नया बाजार,
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