Monday, December 22, 2008

छात्राओं के लिए प्रश्नपत्र



नोट- किन्ही दस प्रश्नो के उत्तर दो। अन्तिम प्रश्न अनिवार्य है ?
1 कभी-कभी रसोईघर में स्टोव क्यों फट जाता है और उससे बहुएँ ही क्यों जलती है । घबराएँ नहीं , और सही उत्तर दें ?
2 कई बार ऐसा होता है कि ससुराल मे बहू की लाश पंखे से झूलती नजर आती है; क्यों? यह सीन आप में डर पैदा करता है या क्रोध. कारण सहित उत्तर दो ।
3 अक्सर ऐसा होता है कि बहू की पीठ पर निशान नजर आते है। ये निशान किस के घोतक है ? इसका इलाज बता सकते हो तो बताओ।
4 ससुराल वालों के ताने सुनने में जो बहू दक्ष होती है यानि सुनी को अनसुनी कर देती है, फायदे मे रहती है इस बारे में आपकी राय क्या है, स्पष्ट लिखो ।
5 जो बहुएँ अपमान सह सकने की हिम्मत रखती है उन्हें हम साहसी महिला कहेंगे । सही या गलत ।
6 बहू को ससुराल में सम्मान कब मिलता है? जब वे अपने साथ ,,,,,,,,,,,, लाएँ । खाली जगह भर कर बताओ कि बहुओं को ससुराल में सम्मान मिलता भी है या नहीं ।
7 बहू के लिए सबसे बडा विलेन कौन होता है ? पति,सास,ससुर,ननद, देवर या जेठ ।
8 क्या कारण हैं कि सास बहुओं के आगे झूठे बर्तनों और गंदे कपडों का ढेर लगा देती है और दिन में तीन बार पौंछा लगवाती है?
9 पति नाम का जन्तु अक्सर घुग्घु क्यों बन जाता है , कारण सहित उत्तर दो ।
10 सास ,ससुर ,देवर,ननद और पति के पारिवारिक सहयोग का एक क्रूर व वीभत्स उदाहरण दो।
नहीं मालूम हो तो अखबार पढो ।
11 विवाहोपरांत अगर तुम्हारे साथ कोई हादसा हो जाय तो तुम ससुरालवालो या पीहर वालो को कोसोगी या कोई कदम उठाओगी । बताओ वह कदम कौन सा होगा ?
12 नारियों से संबंधित जितने कानून है वे सरल रुप में दसवीं के कोर्स में लगाए जाएँ अथवा अशोक महान और शाहजाहाँ को ही पढा जाय । अपने विचार लिखो ।
13 कौन सा लडका तुम्हारी पहली पसंद होगा 1) इंजीनियर 2) अध्यापक 3) क्लर्क ,4दहेज विरोधी । निस्सकोंच जवाब दो । साथ में यह भी बताओं की सबसे हाइ रेट किस की होगी?
१४ घर में गैस के दो-दो कनेक्श्न होने पर भी राशन कार्ड पर सास मिट्टी का तेल क्यों मंगवाती है।

Sunday, December 14, 2008

ग्लोबल विलेज

गाँधीजी के आर्थिक स्वराज का सपना अब साम्राज्यवाद की गोद में खेल रहा है हमें बताया जा रहा है कि इस देश की समस्याएँ साम्राज्यवाद ही हल कर सकता है । क्योंकि 21 वीं सदी में साम्राज्यवाद ने मानवीय चेहरा प्राप्त कर लिया है। पूँजीवाद की विश्व विजय को वैश्वीकरण कहा जा रहा है इसका नेतृत्व जी-8 के देश कर रहे है, इन देशों का सिरमौर संयुक्त राज्य अमेरिका है । विश्व बैंक , अन्तर्राष्टीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन के जरिये जी-8 के देश पूरे विश्व में मुक्त विचरण (व्यापार) की सुविधा के लिए दबाव बना रहे है , विदेशी पूँजी ,विदेशी तकनीक ,विदेशी कर्ज और विदेशी वस्तुएँ भारत को कुछ ही वर्षो में जापान बना देगी और फ़िर अमेरिका ,बस उन्हे थोडी सुविधाएँ दीजिए ,उनकी सलाह (शर्ते) मानिए प्रतिबन्ध हटा लीजिए फ़िर देखिए भारत स्वर्ग की सीढियाँ चढने लगेगा इस ग्लोबल विलेज में सबके लिए सुख -सुविधा होगी ,गरीबी, बेरोजगारी व अभाव विश्व के नक्शे से मिट जायेंगे एक नयी सभ्यता करवट लेगी। मुक्त बाजार के पैरोकारों का यह सपना सचमुच पूरा होने वाला है ,बस इनका मार्च मत रोकिए ।
लेकिन हमारी जी-8 के देशों से एक ही विनती है कि हमने तो प्रतिबंध हटा ही लिए है और बाकी बचे भी आज नहीं तो कल हटा ही लेंगे ,लेकिन आप भी तो अपने देश में हमारे प्रवेश पर लगे प्रतिबंध हटाएँ , श्रम को भी तो मुक्त विचरण करने दें , फ़िर देखते हैं विश्वविजयी तिरंगा प्यारा कहाँ-कहाँ नहीं फ़हराता तब 2 अक्टूबर के दिन आर्थिक स्वराज्य का सपना हम भारत में नहीं जी-8 के देशों मे देखेंगे । आमीन्

Saturday, November 29, 2008

सबसे बड़ा शहीद

भारत में ऐसे नेता है , जिन्हें महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाना कुछ हजम नहीं होता , उनका कहना है - भारत माँ है , गाँधी तो उसके सपूत थे , पिता होने का प्रश्न ही कहां है ? वे पक्के हिन्दू थे और मुसलमानों का पक्ष लेते थे , इसलिए गोड़से उनसे बहुत नाराज रहा करता था लेकिन गोड़से अंग्रेजों से नाराज नहीं था , महात्मा गाँधी से नाराज था , वह देशभक्त था और देश के लिए उसने राष्ट्रपिता की जान ले ली और बदले में फाँसी पर झूल कर शहीद हो गया आज भी उसके कई हमखयाली उसकी शहादत से तुलना करते हैं यह देश भक्ति भी कितनी कुत्ती चीज है कि राष्ट्रपिता को गोली मारकर देशभक्त कहलाया जाए , आज भी ऐसे देशभक्त हैं , जो गोड़से को ठीक मानते हैं , बल्कि बिल्कुल ठीक मानते हैं अगर ऐसे देशभक्तों के हाथों मे सत्ता आ गई तो गोड़से सबसे बड़े देशभक्त व शहीद माने जायेंगे , हो सकता है कुछ सालों बाद संसद में उनके चित्र का अनावरण भी हो ।

लोकतंत्र के कलाकार


भारत में लोकतंत्र के सूत्रधार गाँधीजी थे । इसलिए सरकार के सभी कार्यालयों में महात्मा गांधी की तस्वीर लगी है गांधीजी का विश्वास था कि यहां के सांसद, विधायक, मंत्री , मुख्यमंत्री , राष्ट्रपति आदि ढाई आने गज की खादी पहनेंगे । यही नहीं वे यह भी उम्मीद करते थे कि वे दो - चार घंटे सूत और उसी का धोती कुर्ता बनवा कर पहनेंगे । वे देश के आदर्श नागरिक होंगे जो दरिद्र नारायण और देश की सेवा में जुटे रहेंगे जिनके जीवन का ध्येय ही गरीबों का कल्याण होगा वे सादा जीवन , सादा भोजन और सादा निवास अपनायेंगे ।
लेकिन यह जरुरी तो नहीं कि जब पात्र मंच पर आयें तो वे सूत्रधार के अनुसार ही चले , पात्र कठपुतली तो है नहीं कि सूत्रधार की अंगुलियों पर नाचें । फिर ये तो जीवित पात्र थे , हाड - माँस के पुतले , इनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थी , इनके अपने परिवार थे , नाते - रिश्तेदार थे , पुत्र - पुत्रियाँ थीं , जिनकी अपनी आकांक्षाएं थी । ऊँचे लोग ऊँचे लक्ष्य । लक्ष्य को आँख से ओझल मत होने दो । गांधीजी की तरह , लक्ष्य साधने में साधन और साध्य का विवाद मत लाओ , साधन को भूलो , साध्य को साधो , जायज - नाजायज का चक्कर छोड़ो मंच तुम्हारा है , जो चाहो सो दिखाओ , जनता को तो अन्तत: तालियाँ बजाना ही है ।
लोकतंत्र का कलाकार जानता है , वोट हासिल करना कितना मुश्किल है , लोगों को तोड़कर, तो कहीं जोड़कर , तो कहीं जोड़ - तोड़ कर वोट प्राप्त करने होते हैं , एक - एक सीट के लिए 50-50 लाख का दाँव लगाना पड़ता है और वेतन क्या मिलता है ? लोकतंत्र के कलाकार का वेतन - भत्ता भरपूर होना चाहिए ताकि वे लोकतंत्र में अपनी भूमिका ठीक तरह से निभा सके अबकि बार संसद इस मामले मे एक हो गई और उन्होनें अपने लिए इतने वेतन - भत्ते और पेंशन तय किये कि जीते जी कम नहीं पड़ेगी जब यह बिल संसद मेरे पास हुआ तो विपक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा । राष्ट्रीय एकता का अप्रतिम उदाहरण देखकर दीवार पर टंगे महात्माजी ने अपना चश्मा उतार , आँखे पौंछी और फिर चश्मा लगाकर यथावत फ्रेम मे फिट हो गये ।

Friday, November 7, 2008

रघुनाथ मिश्र की गजल



रघुनाथ मिश्र की गजल

कितने हो गये तबाह, हम तलाशेंगे ।
चश्मदीद कुछ गवाह हम तलाशेंगे ।
ठिठुर रहे हैं सर्द रात में, असंख्य जहाँ ,
वहीं पे गर्म ऐशगाह , हम तलाशेंगे ।
यहाँ ये रोज भूख - प्यास महामारी है ,
वहाँ पे क्यों है वाह -वाह , हम तलाशेंगे ।
खुलूस -ओ - प्यार की आबोहवा जहरने में ,
उठी है कैसे यह अफवाह , हम तलाशेंगे ।
जिन बस्तियों ने हर खुशी बाँटी उनमें ,
ठहरी है क्यों कराह, हम तलाशेंगे ।
बहते हुए दरिया का अचानक यूं ही ,
ठहरा है क्यों प्रवाह हम तलाशेंगे ।
चश्मदीद :- आखों देखा , ऐशगाह :- ऐयाशी की जगह , खुलूस -ओ - प्यार :- प्यार भरी सच्चाई , आबोहवा :- जलवायु

रघुनाथ मिश्र की गजलें





रघुनाथ मिश्र की गजलें
1
मुल्क की हालत , बड़ी गम्भीर है।
प्रश्नचिन्हों में घिरी , तस्वीर हैं ।
चल रहीं हैं , बे-नियंत्रित आँधियाँ,
गर्दनों पे घूमती , शमशीर है ।
आम जन हैं, हसरतों में मौत की,
जिंदगी कुछ खास की जागीर है।
मंजिलों की ओर बढ़ते पाँव को ,
रोकती वर्चस्व की , जंजीर है ।
उग रहे हैं भूख के , जंगल घने ,
मौसमों में दर्द की , तासीर है ।
आरजूएँ लुट गई , इन्सान की ,
चन्द सिक्कों में बिकी तदबीर है॥
शमशीर :- बीच में झुकी हुई तलवार , वर्चस्व :- तेज , प्रबलता , तदबीर :- उपाय , युक्ति

Wednesday, October 22, 2008

अरविंद सोरल की गजल



अरविंद सोरल की गजल

सिक्के हवा में देखिए यूं न उछालिए
जलते हुए सवाल हैं ऐसे न टालिए ।

ढाल की व्यवस्थाएं चरमरा गई ,
खंजर उठाइये या गर्दन निकालिए ।

इस चमन में आपने बोये थे कुछ बबूल ,
हो सके तो अब जरा दामन संभालिये ।

अब हमारी चाल भी तो देखिये हुजूर !
आपने तो दाँव अपने आजमा लिये ।

हमारे हाथ बढ़ चुके हैं नोचने नकाब ,
क्या हुआ जो आपने चेहरे छिपा लिए ।

बेशक हमारे खून को चूसा गया मगर ,
बाकि है अगर एक भी कतरा उबालिए ।



शकूर अनवर की गजल



शकूर अनवर की गजल


हवाओं से बहुत लड़ना पड़ेगा ,
समंदर का सफर महंगा पड़ेगा

सजा लो अपनी दीवारें सजा लो,
गरीबों का लहू सस्ता पड़ेगा

चलो सर्पीली राहों से निकल लें
ये सीधा रास्ता लम्बा पड़ेगा ।

अभी उस बेवफा से कुछ न कहना,
वो सबके सामने झूठा पड़ेगा ।

मेरे उड़ने की कोई हद नहीं है
मुझे ये आसमां छोटा पड़ेगा

समन्दर से अगर मिलना है 'अनवर'
नदी के साथ ही बहना पड़ेगा ।

Saturday, October 11, 2008

अखिलेश 'अंजुम ' की गजल



घर बिना छ्त बनाये जायेंगे ,
लोग जिनमें बसाये जायेंगे ।


आपका राज हो या उनका हो,
हम तो सूली चढ़ाये जायेंगे ।


साल - दर -साल बाढ़ आयेगी ,
आप दौरों पे आये जायेंगे ।


बूढ़े बरगद पे देखना जाकर ,
अब भी दो नाम पाये जायेंगे ।


हम तो होते रहेंगे यूहीं हवन
लोग उत्सव मनाये जायेंगे ।

चाँद शेरी की गजल


नादान न बन कोई तेरा यार नहीं है
जुल्मत में तो साया भी वफादार नहीं है

कार पाए जो मजबूर जवानी की हिफाजत
कानून के हाथों में वो तलवार नहीं है

हर सिम्त नजर आते हैं रावण के फिदाई
अफसोस कहीं राम का अवतार नहीं है

वो सिख है न ईसाई न हिन्दू न मुस्लमां
जिस शख्स में इंसान का किरदार नहीं है

दौलत से नहीं दिल से इसे जीत ले 'शेरी'
ये प्यार है नादां कोई ब्यौपार नहीं है

Monday, September 15, 2008

जूते की जात

विक्रम सोनी

उस दिन अचानक धर्म पर कुण्डली मारकर बैठे पण्डित सियाराम मिसिर की गर्दन न जाने कैसे ऐंठ गयी और उन्हें महसूस हुआ कि उनकी गर्दन में 'हूल' पैदा हो गया है। पार साल लखमी ठाकुर के भी 'हूल' उठा था।
अगर रमोली चमार उसके हूल पर जूता न छुआता तो… कैसा तड़पा था। यह सोचकर उन्हें झुरझुरी लगने लगी, तो क्या उन्हें भी रमोली चमार से अपनी गर्दन पर जूता छुवाना होगा। हुँ! वह खुद से बोले ,''उस चमार की यह मजाल!" तभी उनकी गर्दन में असहनीय झटका सा लगा और वे कराह उठे।
"अरे क्या है- बस जरा जूता ही तो छुवाना है। उसके बाद तो गंगा जल से स्नान कर लेंगे । जब शरीर ही न रहेगा चंगा तो काहे का धर्म पुण्य?"
रमोली को देखते ही मिसिरजी ने उसे करीब बुलाकर कहा,"अरे रमोलिया, ले तू हमारा गरदनियाँ में तनिक जूता छुवा हूल भर गइलबा ।"
"ग्यारह रुपया लूँगा मिसिरजी ।"
" का कहले? हरामखोर , तोरा बापो कमाइल रहलन ग्यारह रुपल्ली ?"
"मिसिरजी, इस जूते को कोई खरीदेगा नहीं न! और में झूठ बोल कर बेचूँगा नहीं!"
"खैर, चल लगा जूता, आज तोर दिन है। देख, धीरे छुआना तनिक, समझे!"
जब रमोली जूता लेकर टोटका दूर करने उठा तो उसकी आखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गये जुल्मोसितम और अपमान के दृश्य साकार हो उठे ।
उसने अपनी पूरी ताकत से मिसिरजी की गर्दन पर जूता जड़ दिया । मिसिरजी के मुख से एक प्रकार की डकराहट पैदा हुई, ठीक वैसी ही जब मिसिरजी ने उसके पिता पर झूठा चोरी का इल्जाम लगाया था और मिसिरजी के गुण्डे लाठी से उसे धुन रहे थे। तब बाप की दुहाई वाली डकराहट क्या वह भूल पायेगा ?
"अरे मिसिर देख, तोरा हूल हमार जुतवा मा बैठ गैइल।" और मिसिर की गर्दन तथा चाँद पर लाठियों के समान जूते पड़ने लगे। गाँव वाले हैरान थे, किन्तु विचित्र उत्साह से इस दृश्य को देख रहे थे।

आंधी


चित्रेश

ठाकुर रघुराज सिंह को रमेसरा का रग-ढ़ंग जरा भी न सुहाता था । ऐसा भी क्या हलवाहा कि बस काम से काम । बात - व्यवहार की दमड़ी भर अकल नहीं । ठाकुर अपनी तरफ़ से खेती- बाड़ी की चर्चा छेड़ते तो भी उस चढ़ती उम्र के लौंडे के चेहरे का भकुआपन न दरकता, जबकि रघुराज सिंह इस मौके पर उसके मुँहासों भरे गहरे सावँले चेहरे पर पालतूपन की तरलता देखने का प्रयास करते थे । वे अपना मन समझाने के लिए अक्सर सोचते - अभी जल्दी ही बाप मरा है। गम भूलते ही रास्ते पर आ जायेगा।
मगर रमेसरा ठहरा पक्का बागी। उस दिल हल बैल खूँटे से लगा वह पनपियाव की तैयारी कर रहा था कि सामने से रघुराज सिंह आ गए। उसने कौढ़ भर की डली दिखाते हुए उजब किया, "बाबू साहेब!ठ्कुराइन भखरी के अन्दर से इतना- सा गुड़ भेजकर बगदा देती है। इससे मुँह भी नहीं मिठाता।"
ठाकुर अवाक् ! ऐसी बात कभी नहीं उठी थी। खुद इसका बाप जगेसरा बीस बरस इसी देहरी की गुलामी करके चुपचाप मर गया, लेकिन ये कल का छोकरा कैसी आँखें तरेरे ताक रहा है। लिहाज का नाम - निशान नहीं। मन की कड़वाहट चेहरे की इक्का- दुक्का झुर्रियों को गहराती त्योरियाँ तान गई। इच्छा हुई आज कर ही दे मनहूस का पनहिया सराध! पर जमाने की हवा जरा- सी बात मसले में बदल सकती थी।
अब दीन - ईमान तो रहा नहीं,बस दूसरे को हड़प जाने की नीयत बाँधते बैठे हैं। तिस पर रमेसरा ठहरा अकेला, न बीवी , न बच्चे, माँ का क्या भरोसा, चालीस साल की चामारिन खाँ रंडापा भोगने यहाँ बैठी रहेगी! किसी का घर चोखट करेगी ही । ऐसे मे यह भी गुस्सा में भाग - वाग गया तो।
इस ऊहापोह के बीच उन्हें मरते समय जगेसरा पर बकाया अनाज का सवाई ड़ेढ़ी की बैसाखी पर निरन्तर बड़ा होता ढेर और बदले मैं मिला मजबूत और टिकाऊ हलवाहा गायब होता दिखने लगता है…वे क्षण भर में संभल गए। बनावटी प्रेम से बोले,"देख बेटा, गुड़ की थोड़ाई पर न जा। ईसकी मिठास का ख्याल कर। ऐसी चीजें कोई भर पेट खाई जाती हैं।"
रमेसरा खून का घूँट पीकर रह गया। दूसरी बेला में वह हल लेकर खेत पर पहुँचा और हर एक कुण्ड में कई- कई मरतबा हल चला, खूब गहरी जुताई करने लगा। शाम को टहलते हुए ठाकुर साहब खेत में पहुँचे। मन में दबी गुस्से की आग शोला बनकर बनकर लपक उठी," अरे अब क्या तमाशा देख रहा है? अब तक सारा खेत जुत जाता, मगर तू सिर्फ पन्द्रह -बीस कुंड…"
" बाबू साहेब कुंड काहे गिनते हैं, इसकी गहराई देखें, गहराई।" रमेसरा ने निर्भीक होकर उनकी आँखो में झाँकते हुए जवाब दिया था… और रघुराज सिंह एकदम सन्न रह गए। जमाने की हवा एक बार फिर उन्हें आंधी मे परिवर्तित होती दीख रही थी ।

रुतबा



माधव नागदा

गाँव में दो शादियाँ एक ही दिन थी । सौभाग्यकांक्षिणी ठाकुरपुत्री के बरात आ रही थी , जबकि चिरंजीव चमार की बरात जा रही थी । मह्त्व लगन का उतना नहीं था, जितना कि महारात्रि का । इस रात धूम - धड़ाके और बाजे - गाजे के साथ दुल्हा , दुल्हन की बन्दोली निकलने वाली थी। किसी ने ठाकुर साहब को सूचना दी , "इस बार चमारों की बन्दोली घोड़े पर निकलेगी ।"
ठाकुर साहब पहले ही से मूँछों को बट दे रहे थे । बट खा - खा कर जब मूँछें केकड़े के डंक की तरह हो गयी तो वे बोले , "लट्ठ बाजों को कह देना तैयार रहें ।"
"अरे नहीं ,हुजूर । कानून इन्ही का रखवाला है। आजकल तो सीधा गैरजमानती वारंट आता है । कुछ ऐसी तरकीब भिड़ाई जाय कि अपनी बंदौली का रुतबा ऊँचा रहे।"
"हम माइक वाला बैँण्ड लायेंगे ।"
"हुकुम ,चमार भी वही ला रहे हैं ।'
"तो हम साथ मैं जनरेटर भी लायेंगे। दोनों ओर दस-दस ट्युबलाईटें।"
"बड़ो हुकुम , वे बारह-बारह ला रहे हैं।"
"अच्छा ।" ठाकुर साहब की बायीं मूँछ फड़की । वे कुछ देर सोचते रहे । एकाएक उनकी आँखो में चमक दौड़ गयी, " अपने बाइसा की बंदोली कार में निकालेंगे । है हिम्मत चमारों की ?
" परंतु अन्न्दाता , रास्ता बहुत खराब है , सँकरा है । पिछ्ली बार अकाल राहत का पैसा आया, वह सब तो हवेली में…।"
ठाकुर साहब गाँव के सरपंच भी थे । अकाल राहत के धन ने उन्हें कितनी राहत दी , वे खूब अच्छी तरह जानते थे। इसलिए बोले कुछ नहीं , सिर्फ आँखें तरेरीं और फिर से सोचमग्न हो गये । सोचते -सोचते न जाने क्या बात सूझी कि जोर से हँस पडे। एक दीवारकम्प ठहाका। जब हँसी कुछ रुकी तो पेट थाम कर बोले , "अच्छा ही किया जो हमने मार्ग नहीं बनवाया, वरना ये चमारटे कार भी ले आते," फिर जरा तेज होकर बोले , "रुतबे की ही बात करते हो तो बोलो , हमारे मुकाबले की हवेली है, किसी चमार के पास? बोलो, है?"

Monday, September 8, 2008

चुनौती


भगीरथ
ठुकराई की ठसक रखने वाले सुमेरसिंह ने बादामी के बापू भैरा भांबी को बुलवाया । भैरा 'जै माता जी 'कह आंगन में उकडूँ बैठ गया।
सुमेरसिंह ने जमाने के तेवर भाँपते हुए अपनी ठसक छोड ,समझाईश करने लगे 'देख भैरा,जो हो गया सो तो हो गया, जवानी के जोश में होश कहाँ रहते हैं ,नादानी कर बैठा, नालायक कहीं का, चाहो तो हमारे जूते मार लो लेकिन हमारे बेटे को माफ़ कर दो।
तुम्हारा-हमारा पीढियों से व्यवहार चला आ रहा हैं । हमारें व्यवहार में आग लगाई का कोई फ़ायदा नहीं , आज जो तेरे पीछे खडे है न ,वे कल दिखाई नहीं देंगे
ये शब्द सुमेरसिंह की ठसक को चूर-चूर कर रहें थे , उसके अहंकार और श्रेष्ठता को आहत कर रहे थे ,लेकिन क्या करें ,समय ही ऐसा है।
बादामी का बापू चुप्प ,बोले तो क्या बोले ? हमेशा 'हाँ हुकुम ' कहता रहा है। ठाकुर कों गिडगिडाते देख उसे अच्छा लगा, उसके कलेजे में ठंडक पड गई । ह्र्दय कह रहा था बिचारा मांफ़ी माग रहा है, माफ़ कर दो। कैसे माफ़ कर दे सुमेरसिंह के बेटे को जिसने सरेआम हथियार बंद खुली जीप में बदामी को उठा लिया, कैसे माफ़ करें उस हरामी के पिल्ले को, जिसने उसकी इज्जत पर सरेआम हाथ डाला। कोई माफ़ी-वाफ़ी नहीं ।युगों से चला आ रहा यह अत्याचार और अपमान, अब यहीं रूकेगा। सोचते -सोचते उसका चेहरा सख्त हो गया ।ठाकुर ने बादामी के बापू का प्रतिक्रियाहीन सख्त चेहरा देख पेंतरा बदला । 'ठीक है, फ़िर यह जंग भी लड़ के देखलो। हाँ इतना जान लो कि चाकू और खरबूजे की जंग में , पेट खरबूजे का ही फटता है, बाप होकर बेटी की बदनामी करवा रहे हो, अब तो बात अखबारों तक पहुँच गई है , बदनामी तो गाँव की बेटी की हो रही है न ।
पूरा दलित समाज बदामी के बापू के पीछे खड़ा है। अब तो यह पूरे दलित समाज के मान-सम्मान की लडाई हो गई है। दलितों के जत्थे-के-जत्थे थाने के आगे धरने पर नहीं बैठते तो क्या पुलिस एफ़.आई.आर. लिखती ? उग्र रैली नहीं निकली होती तो क्या इस घटना को अखबार में जगह मिलती ?
इस आंदोलन को बढ़ते देख दलित मंत्री और विधायक भी बिन मांगे समर्थन दे रहे हैं । सरकार पर दबाव बन रहा है। गिरफ़्तारी तो हो ही गई, अब जमानत भी नहीं होगी । बिना लडें तो इनके अभिमान ,श्रेष्ठता और उच्चता की गांठे टूटेगी भी नहीं । सम्मान पाना है, तो लड़ना तो होगा ही । लड़ने के तमाम जोखिम उठाने ही पडेगे । यह सोचते हुए भैरा भांबी चुनौती की मुद्रा में खडा हो गया। ।
'

Wednesday, August 27, 2008

आधे अधूरे

सुकेश साहनी
आप ही हैं विजय बाबू! नमस्कार! आपके बारे में बहुत कुछ सुना है, मुझे पहचाना नहीं आपने ? कमाल है आप तो भू जल वैज्ञानिक हैं । आप शायद मेरे शरीर के आधे संगमरमरी भाग और आधे पीले जर्जर भाग को देखकर भ्रमित हो रहे हैं, अब तो पहचान गये होंगे आप … मैं इस देश के गाँव का एक अभागा कुआं हूँ…न, अब तो पहचान गये होंगे आप, अब यह मत पुछियेगा कि मेरे गाँव ,प्रदेश का नाम क्या है ? मेरी यह हालत कैसे हुई ? सुनना चाहते हैं ? … तो सुनिये…
मेरे गाँव में भी भारत के दूसरे गाँवों की तरह दो किस्म के लोग रहते हैं…उँची जाति के और नीची जाति के । मेरा निर्माण नीची जाति वालों ने मिलकर करवाया था ।
इसलिए उँची जाति वाले मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते थे, लेकिन इस सूखे से स्थिति बिल्कुल बदल गई है। मेरी भूगर्भीय स्थिति के कारण मेरा पानी कभी नहीं सूखता, जबकि गाँव के अन्य सभी कुओं का पानी सूख जाता है।
मेरी यही विशेषता मेरी परेशानी का कारण बन गई। इस भयंकर सूखे की शुरुआत में ही उँची जाति वालों के सारे कुएं सुख गए थे और उनको पानी बहुत दूर से लाना पड़ता था। तभी न जाने कैसे उन लोगों में जागृती की लहर दौड़ गई। उन्होनें मेरे समीप एक सभा आयोजित की । नारा दिया…हम सब एक हैं…छुआछूत ढकोसला है। मिठाई भी बँटी । उसी दिन से उँची जाति वाले भी मुझसे पानी लेने लगे ।
तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीँ था। मुझे पूरे गाँव की सेवा कर अपार खुशी का अनुभव हो रहा था, पर मेरी यह खुशी भी दो दिन की थी। मैं दो भागों में बँट गया। एक भाग से उँची जाति के लोग पानी भरते हैं और दूसरे भाग से नीची जाति के। उँची जाति वालों ने मेरे आधे भाग को संगमरमर के पत्थरों से सजा दिया और शेष आधे भाग को ठोकर मार - मार कर जर्जर बना दिया है। मेरा यह भाग लहुलुहान हो गया है और इसलिए इससे पीली जर्जर ईंटें बाहर झाँक रहीं हैं ।
विजय बाबू, आप सुन रहें हैं न, मेरी व्यथा का अंत यहीं नहीं हैं। आजकल मेरे चारों और अजीब खौफनाक सन्नाटा रहता है। उँची जाति वालों के सामने कोई दूसरा मुझे प्रयोग मे नहीं ला सकता। कुछ हरिजन नवयुवकों ने मेरे इस बँटवारे को लेकर आवाजें उठानी शुरु कर दी हैं । आप इनकी आवाज को ईमानदारी से बुलंद करेंगे ?

अछूत

मोहन राजेश
पसीने से नहा चुकी थी रमिया । इतनी तपती दोपहरी में भी बाबू… चेहरे पर हवा करते हुए , पसीना पोंछ कर उसने अस्त - व्यस्त हुई साड़ी का पल्लू कमरे में खोंस लिया ।
बाबू रामसहाय भी पसीने से लथपथ हुए पस्त से पड़े थे, बिस्तरों में । बाद मुद्दत के मौका मिला था और आये अवसर को चूकना , उनकी सिफत नहीं थी। इसीलिए तो घरवाली के किसी रिश्तेदारी में जाते ही दस का नोट दिखा कर भरी दुपहरी में बुलवा लिया था रमिया को ।
एकाएक कुछ खड़खड़ाहट - सी सुन बाबू की तन्द्रा टूटी, "अरे रे रमिया गयी नहीं क्या अभी? अब तक तो चला जाना चाहिए था उसे । उन्होनें लेटे-लेटे ही झाँक कर देखना चाहा पर कुछ दिखलायी न पड़ा । आवाजें रसोई की ओर से आ रहीं थीं कहीं कोई बिल्ली - विल्ली न हो, अन्तत: रामसहाय को उठना ही पड़ा ।
वह सन्न रह गये - "रमिया ! रसोई में बैठी इत्मीनान से दही और अचार के साथ रोटी खा रही थी रमिया ।
"भूख लगी थी, बाबू" रामसहाय को दरवाजे पर खड़ा देख उसने दाँत निपोरते हुए कहा ।
"अरे, अरे, क्या कर रही है हरामजादी ! सारा चौका ही बिगाड़ दिया।" अब तक हतप्रभ से खड़े हुए बाबू एकाएक बिफर उठे किन्तु अपनी स्थिति का आभास होते ही आवाज कुछ दबाकर बोले-"भूख लगी तो माँग लेती बदजात , पर ब्राह्मण का चौका तो नहीं बिगाड़ना चाहिए था । ब्राह्मण की रसोई में मेहतरानी । राम … राम।"
"बाबू जब भंगन ब्राह्मण की रजाई में घुस सकती है तो रसोई में क्यों नहीं ?"रमिया ने बैठे -बैठे ही सवाल किया।
"बक -बक मत कर । चोरी करती है, शर्म नहीं आती ।" - वे तिलमिला उठे ।
"वाह ! बाबू वाह! उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे! इज्ज्त तूने लूटी मेरी । टट्टी झाड़ने को बुलाया और खुद झड़ गया । भूखे पेट इतना रौंदा - कुचला कि रात- बिरात की आधी - परधी भी गल - गला गयी । अब कहता है कि चोरी की है मैंने…। भूख लगी थी तो रोटी ही खायी है।"हाथ नचाकर फिर से सवाल किया रमिया ने - "ई चोरी है का?"
"भाषण मत झाड़ मादर… "बाबू का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा, " उठ फुट यहाँ से । नहीं तो दो लात देकर निकालूँगा।"
"ऐ बाबू बदजमानी मत कर । ई गाली और लातें तेरी महतारी को दियो। ज्यादा अपर - चपर की तो अभी हल्ला मचाए दिए हैं कि ई बेईमान झाड़न को बुला मुझ संग जोर - जबरदस्ती की है… समझा कि नहीं, हो जावेगी डाक्टरी ।"
बाबू रामसहाय के मुखारविन्द पर जैसे भारी- भरकम सा अलीगढ़ी ताला लटक गया हो । इतनी चंट चालाक होगी रमिया यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। उनके सामने अखबारी सुर्खियाँ तैरने लगीं - " अनुसूचित जाति की महिला के साथ बलात्कार ।" उनकी थुलथुल काया थर - थर काँपने लगी ।
"ऐ, रमिया रानी। अब तो जा। भाई गलती हुई मुझसे । जो कुछ कहा- सुना सो माफ कर । इस बार तो इज्ज्त रख दे… देख अभी वो चण्डी लौट आयेगी।"- स्वर को भरसक मुलायम बनाते हुए बाबू रामसहाय गिड़गिड़ाये-"अब तो जा मेरी माँ।"
"चली जाऊँगी, बाबू। जल्दी का है। तेरी घरवाली से भी मिलती जाऊँगी।" पहली मटकी का पानी कुछ कम ठण्डा लगा तो उसमें डाला लोटा निकाल कर दूसरी मटकी में डुबोते रमिया ने तसल्ली से कहा ।
रामसहाय बाबू जैसे अचेत हो रहे हों । अपनी चेतना को एकाग्र कर वे विष्णुसह्स्त्रनाम का पाठ करने लगे ।


Thursday, August 7, 2008

पराकाष्ठा


रतन कुमार सांभरिया
आठ घोड़ों की सजी - सँवरी बग्गी में रखी भगवान की भव्य मूर्ति को लेकर रथयात्रा निकाली जा रही थी। रथ के आगे पीछे जय-जयकार करती भीड़ ज्वार आये समुद्र की तरह उमड़ रही थी नानकिया, उसका पहलवान बेटा चंदू और उसके तीन शार्गिद तलवारों की पटेबाजी दिखाते हुए सबसे आगे चल रहे थे ।
रथयात्रा को अब संकरे मार्ग से गुजरना था। उस रास्ते में एक बिगड़ैल और जिद्दी साँड पसरा पड़ा था। वह इतना खूँख्वार था कि उसकी कल्पना से ही लोग थरथराते थे। उत्साही भीड़ जो ' जय-जयकार ' करती आगे बढ़ रही थी, साँड को सामने देख, पीछे भाग छूटी। पुजारी,जो भगवान की इसी मूर्ति के सामने बैठकर श्रद्धालुओं को अभयदान तक दिया करते थे, भय से घिग्घिया गए। सारथी की हाँफी छूट गई थी । घोड़ों ने भी ठिठक कर पाँव टपटपाए और हिनहिनाकर आगे न बढ़ने की अपनी विवशता प्रकट कर दी।
रथ के सामने अब पाँच लोग थे । नानकिया, चंदू और उसके तीन चेले। नानकिया ने रथ में बैठे पुजारी की ओर देखा तो उनकी आँखों मे चिंता, भय और बेबसी की त्रिवेणी थी। पुजारी ने नानकिया को अपने नजदीक बुलाया और उसके कंधे पर हाथ रखकर सूखे कण्ठ से कहा - "नानक, भगवान का रथ वापस नहीं लौटता है। जैसे भी हो, भगवान की इज्ज्त बचानी है ।''
श्रद्धासिक्त नानकिया जोश से उफन गया। उसने भगवान की 'जयजयकार' की ओर हाथ में तलवार लिए जब साँड की ओर बड़ा तो चंदू ने उसे रोक दिया, उसके होते वे साँड के सामने नहीं जाँएंगे। चंदू के शार्गिद मदद के लिए बढ़े तो उसने उनको भी हिदायत दे दी कि वह भी अकेला ही है ।
चंदू और साँड एक-दूसरे के सामने थे। चंदू के हाथ में नंगी तलवार थी और साँड दोनों सींग आगे बढ़ाये क्रोध के मारे सूँ- सूँ कर रहा था। सुरक्षित स्थानों पर खड़े लोग साँस रोके यह भयावह नजारा देख रहे थे। चंदू ने साँड पर वार करने का कई बार मन बनाया, लेकिन हर बार धर्म आड़े आ गया-गऊमाता का जाया है । आखिर, मर गया तो पाप लगेगा।
क्रोधित साँड चंदू पर टूट पड़ा और उसकी हड्डी- पसलियों को जमीन में मिलाकर वहाँ से भाग निकला।
अपने इकलौते पुत्र की हृदयविदारक मौत पर एक बार नानकिया की आँखें झलझला आईँ , कलेजा मुँह मे आ अटका, लेकिन दूसरे ही क्षण वह यह सोचकर संयमित हो गया कि राजा मोरध्वज ने भी अपने इकलौते पुत्र को आरे से चीरकर भगबान की सेवा में परस दिया था, अगर किसी छोटी जाति के मुझ जैसे नाचीज का पुत्र भगवान के नाम पर शहीद हो गया , तो क्या हुआ।
रथ मंदिर के सामने आकर खड़ा हो गया था। पुजारी रथ से नीचे उतर आये थे। मूर्ति को रथ से उतारकर मन्दिर में रखवाने की तैयारियाँ होने लगी थीं। बेटे के बलिदान से भावविभोर हुआ नानकिया भूल गया था कि वह किस जाति से है । स्वयं को एक समर्पित भगत मानकर मूर्ति को उतरवाने के लिए जब वह आगे बढ़ा तो पुजारी की आँखों में घृणा उतर आई। उन्होनें तिरस्कृत नेत्रों से नानकिया की ओर देखा और हड़काते हुए बोले-"नानकिया मूर्ति मत छूना तूं, भगवान भरिस्ट हो जायेगा।"

Sunday, July 27, 2008

एक युध्द यह भी



डाँ रामकुमार घोटड़
झीमली के पेटदर्द होने लगा, तेज, जानलेवा पेटदर्द। वो खड़ा रहने की शक्ति खो बैठी और जमीन पर पसर गयी। पिछ्ले तीन माह से वो गर्भ गिराने की बहुत कोशिश कर रही थी, न जाने कितने हथकण्डे अपनाये, लेकिन नाकाम रही थी ।
चार माह पहले वो एक दिन खेत मेँ काम कर रही थी, वो नहीं बल्कि उनकी बहुत सी पीढ़ियाँ हवेली वाले ठाकुर साहब के काम करते गुजर गयीं। ठाकुर साहब का कुंवर विचित्र सिहं न जाने कहाँ से आ धमका और काम में व्यस्त झीमली को दबोच लिया। वो असहाय, रोई- चिल्लाई और अपने शील की दुहाई दी। लेकिन उस राक्षस ने सब अनसुनी कर दी । रात को सोते समय अश्रुपूरित आँखों से झीमली ने अपने मर्द बदलू को सब कुछ बता दिया। बदलू ने उसे अपने आगोश मेँ लेकर धीर बंधाने की कोशिश की ।
पेटदर्द का एक और दौरा पड़ा और झीमली तड़पने लगी। "तेरी यह मजाल…? पेट से आवाज आयी, मुझसे हाथापाई करता है…? जानता नहीं तू, मैं ठाकुर विचित्र सिंह का अंश हूँ…" दोनों भ्रूण एक- दूसरे पर छींटाकशी करने लगे।
' ऐ, मिस्टर…"प्रतिक्रियात्मक आवाज आयी,"आजकल ठाकुर भी पहले जैसे ठाकुर नहीं रहे। कहाँ हैं बलिष्ठ भुजाएँ और शेर दिल, अब तो सिर्फ नशेड़ी, आलसी और निकम्मे जीव रह गये हैं । मुझे देखो मेँ चरित्रवान, ईमानदार और मेहनतकश बदलू मेघ का अँश हूँ। मेरी सेहत तुझसे अब भी बेहतर है। अब तो ठाकुर में थोथी धौंस और मूछों के सिवाय कुछ भी नहीं है …"
"नीच … तेरी हिम्मत कैसे हुई हमारे समाज पर अँगुली उठाने की, भला बुरा कहने की…?
"तुमने नीच कहा… नीच कहा मुझे… पापी, कमीने, हरामी कि औलाद…"और उसने अपने सहोदर पर भरपूर ठोकर का वार किया । विचित्र सिंह का अंश लुढ़कता हुआ जमीन पर आ गिरा ।
झीमली का दर्द जाता रहा और उसे यूँ लगा मानो नया जीवन मिला हो।

Monday, July 7, 2008

रामभरोसे



बलराम अग्रवाल

"इका गजब क'अत है।" बेकाबू होते जा रहे रामभरोसे के हाथों से कुल्हाड़ी छीनने का प्रयास करता रामआसरे गिड़गिड़ाया-- " पंडित क मारि कै परलोक न बिगाड़ ।"
"महापंडित रावण को मारने पर राम का परलोक नहीं बिगड़ा …।"
ऊँची आवाज में रामभरोसे चिल्लाया - " तब इस महामूरख को मारने से मेरा परलोक क्यों बिगड़ेगा-अं। "
"उ तो राजा रहे बिटवा - कानून बनान वारे । "
"जिस पंडित ने बहना को छुआ है काका …अपनी बिरादरी के सामने आज वह चमार बनेगा - या परलोक जाएगा ।"
खून उतरी आँखो वाले रामभरोसे काका को झटका देकर एक बार फिर बाहर निकल जाने की कोशिश की तो घर की औरतो और बच्चों के बीच कुहराम कुछ और तेज हो गया ।
"जन्मते ही मर काहे न गई करमजली ।" रामभरोसे की माँ ने अन्दर अपनी बेटी को पीटना - कोसना शुरु कर दिया - "पंडित मरि गवा तो ब्रह्महत्या अलग , बदनामी अलग्…फाँसी अलग ।"
क्रोधित रामभरोसे के हाथो पंडित की सम्भावित हत्या के परिणाम की कल्पना मात्र से रामआसरे टूट - सा गया ।
"कुल्हाडी फेंक द बिटवा!'' वह फूट पडा -"पंडित क मारे का पाप मत लै। उ अपनी ही बेटी क हाथ पकडा है । तोहार बहना तोहार माँ के साथ उ के अत्याचार का ही फल है भैया । उक नरक जरुर मिलि है । "
' नरक ! ' कुल्हाडी पर रामभरोसे की पकड कुछ और मजबूत हो गई। यह पंडित आज के बाद इस धरती पर् साँस नहीं लेगा - उसने निश्चय किया… और आज ही बिरादरी को वह सुना देगा कि आगे से कोई भी अपने बच्चे क नाम रामभरोसे या रामआसरे न रखे ।

भ्रूण हत्या


डा कमल चौपडा

खल - छिलका भिगोने के लिए हौज को भरने के लिए नलका चलाते - चलाते बुधनिया के हाथ बाँह दर्द करने लगे थे, थोड़ा सा काम करते ही साँस फूलने लगता है! ऊपर से चौथा महीना लग गया है। शहर से उनका मनीआर्डर तो दूर … खैर - खैरियत की चिट्ठी तक नहीं आई ! कृष्णा दाई कहती है, अब तुझे भारी काम बन्द करके आराम करना चाहिए । अव तो आराम ही कर लो ! या सारा दिन प्रधान जी के घेर में खट कर रोटी का जुगाड़ ही कर लो। अपनी जिंदगी खींचने के लिये दाल रोटी पैदा करना मुश्किल हो रहा है, जो आने वाला है उसके लिए … इस हालत में तो और भी ज्यादा खुराक चाहिए वरना … पर कौन कहाँ से किसे और कैसे दे…?
"प्रधान जी ने आज भूरी भैंस को खल - छिलका व भूसा डालने से मना कर दिया है। भूरी भैंस भी गाभिन है और उसने दूध देना बंद कर दिया है । अव जब तक सूयेगी नहीं तब तक उसे 'चराई' पर जिन्दा रहना पड़ेगा । पशु और गरीबों का भगवान ही मालिक है वरना हफ्ते से बीस रुपये माँग रही हूँ पर देने से साफ इन्कार कर रहा है, ब्याज की एवज में काम करते रहो… चाहे भूखे मरो प्रधान जी को क्या ? आस औलाद का मोह तो की कीड़े - मकोड़े जानवरों को भी होता है । हम तो इन्सान हैं । पर प्रधान जी हमें इन्सान समझें तब ना … प्रधान जी की अपनी बहू भी तो 'दिनों' से है, उसकी जो सेवा और देखभाल हो रही है वह … कोई बात नहीं … पैदा तो 'बालक' ही होगा ।
पैसे तो दूर प्रधान जी ने उसे छुट्टी तक नहीं दी, काम कौन करेगा ? शाम को चार रोटी चाहिए तो काम कर वरना … बुधनिया तड़प कर रह गई।
बुधनिया काम छोड़े भी कैसे ? काम बन्द तो रोटी भी बन्द ! वैसे उससे काम हो भी नहीं पा रहा था । भूख से बेहाल होकर भी जैसे - तैसे काम में जुटी रही ।
शाम होते बुधनिया की तबीयत खराब होती चली गई। जिस बात का उसे डर था वही हुआ , उसके कपड़े खून से भीगने लग गये । किसी तरह घर पहुँची तो तकलीफ और बढ़ गई । उसके सारे कपड़े खून ही खून हो गये । यह तीसरी बार थी । दो बार पहले भी वह इसी तरह तकलीफ झेल चुकी थी, शायद सन्तान का मुँह देखना ही… । अचानक गुस्से में आकर बुधनिया अपने खून से सने कपड़े ले जा कर प्रधान जी के दरवाजे पर पटक आई ।
प्रधान जी को पता चला तो वे आपे से बाहर हो उठे और बुधनिया की लाश बिछा डालने पर तुल गए । लेकिन उसी समय पण्डितों सयानों में मची भगदड़ से पता चला की इस प्रकार नीची जात का जीव खंडित होना शुभ होता है। आपके वंश के लिए उस चमार की औलाद ने कुर्बानी दी है । उसे तो इनाम मिलना चाहिए !
उस दिन बिना हाड़तोड़ मेहनत के ही मीठे पकवान वे लोग बुधनिया को दान में खिला भी रहे थे । लेकिन वह चीख उठी ," तुम हत्यारे हो … तुमने मेरे बच्चे की हत्या कर दी है ।"

जाति मर्यादा



इन्दिरा खुराना
चैत प्रतिपदा से सनातन धर्म मन्दिर में रामायण पर प्रवचन चल रहा था । अयोध्या से श्री कौशल गिरि जी महाराज आए हुए हैं । भगवान राम के जीवन के अगणित प्रसंगो द्वारा उनके हृदय की उदारता , दयालुता और गुणों का ऐसा विशलेषण करते कि भक्तगण विभोर हो उठते थे । शाम चार बजे से छ: बजे तक मन्दिर के विशाल प्रांगण में पैर रखने की भी जगह न रह्ती थी । आज निषादराज गुह की राम के प्रति अनन्य भक्ति और भगवान राम की निषाद के प्रति भक्तवत्सलता का मार्मिक वर्णन किया गया । श्रोतागण जाति सम्प्रदाय से उपर भावलोक मे पहुँच गये ।
कल्याणी प्रवचन सुनकर घर पहुँची तो देखा बाहर बैठक मे बेटे प्रकाश के कई मित्र हँसी, मखौल , बातचीत का आंनद ले रहे थे । माँ को देखकर प्रकाश ने भीतर आकर बताया कि उसके इंटरव्यू में सिलेक्ट होने पर मित्र बधाई देने आए हैँ ।
"अच्छी बात है बेटे , इनकी खातिरदारी की ?" कल्याणी ने पूछा ।
"आप मँदिर गयी थीँ , मैं तो चम्पा को बुला लाया था। उसने चाय और पकौड़े बनाए और मैं बाजार से मिठाई ले आया ।"
"अरे चम्पा चमारिन ! वह मेरे चौके मे घुसी थी । अरे! मेरा तो सारा चौका अपवित्र हो गया ।" कल्याणी ने गुस्से - से भरे स्वर मे कहा ।
"अरी माँ ! तेरा चौका अपवित्र नहीं हुआ , बल्कि उसने चमका दिया है। वह तो काम मे बड़ी सुघड़ और साफ सुथरी है ।"
"अरे ! उसे तो गोबर पाथने और गोशाला साफ करने के लिए रखा है और तूने उसे चौके में घुसने दिया, सामान को हाथ लगाने दिया ।" कल्याणी ने तिलमिला कर कहा ।
"माँ ॰ राम ने भी तो भीलनी शबरी के बेर खाए थे ?" बेटे ने दार्शनिक भाव से समझाते हुए कहा ।
"अरे चुप ! अब मुझे ज्यादा न सिखा । भगवान राम कुछ भी कर सकते हैँ , पर हम जात - मर्यादा में बँधे हैं , समझा !"
प्रकाश ने समझ लिया कि माँ , प्रवचन के भावलोक से पुन: जाति- पाँति के घेरे में घिर गयी है। अत: उसने चुप रहना ही उचित समझा ।

सोशल इक्विटी




अमित कुमार
सेन्ट्रल बैंक की उस छोटी शाखा में जमा और भुगतान का एक ही काउन्टर था, उस पर दो रोज की बन्दी के बाद का दिन । टोकन लेने के बाद उन दोनों को लगा कि कम से कम घंटे भर बाद की नौबत आयेगी । दोनों नव युवा थे । आधुनिक तौर - तरीकों से लबरेज । इंतजार करर्ने की प्रवृति उनकी पिछ्ली पीढ़ी से ही खत्म होने लगी थी । कोई और काम निपटा आयें , ऐसा निर्ण्य लिया उन दोनो ने । डेढ़ घटे बाद जब वे लौट कर आये तो भुगतान लेने वाले सभी वही चहरे थे । काउंटर के करीब आकर कैशियर की और झाँकने का प्रयास करने लगे । "बहुत धीमे काम कर रहा है यह कैशियर ।" किसी ने कहा । "तीन बार तो में खुद ही टोक चुका हुँ ।" कहने वाला सचमुच बड़ी मशक्कत किए हुए लगता था । पतली काया माथे पर सिलवटों की चार धारियाँ और अधपके छोटे बाल वाले कैशियर साहब इन फिकरों को अनसुना करते हुये कच्छ्प गति से काम जारी रखे हुये थे, इस बात की परवाह किए बिना कि भृकुटि उनके काम करने की गति से तनी जा रही है । "कोटे से आया लगता है ।" मन्द स्वर में पीछे से शब्द उडेले गये । "किसने कही कोटे की बात ,"कैशियर साहब उठ खड़े हुये । भीड़ एक - दूसरे का मुहँ ताक फुसफुसाने लगी । वे अपना जालीदार दरवाजा बंद कर बाहर आ गये , तमतमाता हुआ चेहरा लिए , " किसने कही कोटे की बात ?" अन्य कर्मी भी उठ खड़े हुए "क्या हुआ?" "अरे सालों ने हद कर दी , मुझे कोटे वाला बना दिया ।" वे अपने साथी कर्मचारियों से मुखातिब थे । "जाने दीजिए मिश्रा जी," साथी कर्मचारियों ने समझाया । भीड़ की तरफ से भी अनुरोध हुआ। बड़बड़ाते हुए कैशियर साहब अपनी कुर्सी पर बैठकर काम करने लगे। पर अब भीड़ में बैचेनी नहीं थी। न जाने कैशियर साहब जल्दी काम करने लगे थे कि भीड़ को अब जल्दी नहीं थी ।

Friday, June 13, 2008

आड़ी जात

प्रो अनिता वर्मा
मोहन प्रकाश शिक्षा विभाग मै नियुक्त होने से अति प्रसन्न था । पोस्टिंग छोटे से कस्बे मे हुई थी । हालांकि शहर जैसी सुविधा वहाँ नहीं थी पर आवश्कता की सभी वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती थी । ज्वयनिंग के समय स्कूल के पास ही कमरा मिल गया था । थोड़े दिनों बाद उसे लगा कमरा सुविधाजनक नहीं है बदलना उपयुक्त रहेगा । उसका रमेश जी से अच्छा परिचय हो गया था , जो उसके स्टाफ मे थे और वे उसी कस्बे के रहने वाले थे । 'सर ! आप मुझे अcछा सा , रहने लायक कमरा ढूँढ दें तो ठीक रहेगा ।' मोहन प्रकाश ने रमेश जी के घर में प्रवेश करते हुये कहा था । ' रमेश … ओ… रमेश … कहाँ हो ? ' पड़ौसी रामचरण जी ने आवाज लगाते हु्ये कहा था । 'हाँ … कहिये … ताऊजी … मकान मिला ? नये मास्टर जी को चाहिये ।' रमेश जी ने कमरे से बाहर निकलते हये कहा । ' मकान तो मिल जायेगा । मैने बात भी कर ली है … पर ये तो बताओ …नये मास्टर जी किस जात के हैं ?… तुम तो यहाँ का माहौल समझते हो ।'' रामचरण जी ने कमरे के भीतर झाँकते हुए धीरे से कहा था । 'जात तो पता नहीं… पर सरनेम से तो आड़ी जात के लगते हैं ।' रमेश जी अपना स्वर धीमा करते हुये बोले थे । ' अरे ! मैंने तो सोचा सवर्ण होंगे । रहन सहन से तो अच्छे लगते हैं … लेकिन आड़ी जात तो दलित वर्ग मैं आती हैं फिर तो … उनके लिए दुसरी जगह कमरा तलाशना पड़ेगा । ' कहते हुये रामचरण जी निकल गये थे । मोहन प्रकाश भीतर उनके बीच हुये वार्तालाप से हतप्रभ था ।