परिशिष्ट
पेट सबके हैं:चिंताओं की मुखाग्नि
समय की अनन्तता से मानवीय संवेदनों को जोड़कर अपनी जमीन हासिल करनेवाली
लघुकथाएँ,
जीवन का जीवन्त पात्र बन जाती है, क्योंकि ये त्रासद जकड़नों को धीरे-धीरे तोड़ती और रचनात्मक
तथा सकारात्मक सन्दर्भों को स्वतंत्रता प्रदान करती है। इसलिए ऐसी लघुकथाएँ
स्वायतता की सशक्त पक्षधर होती है अतएव इनका फलक निरन्तर विस्तृत होता चला जाता
है।
‘पेट सबके हैं’ लघुकथा संकलन
की लघुकथाएँ अपने वक्त की चिंताओं को मुखाग्नि देती है तथा निर्मम समय के क्रूर
यथार्थ को प्रस्तुत करती हुई मानवीय संवेदनाओं को सुरक्षित बचाए रखने की पहल करती
है।इन लघुकथाओं में भगीरथ मनुष्य के साथ मानवीय सभ्यता के रिश्तों को एक जुलाहे की
तरह बुनते हैं।और विपर्यय तथा विडम्बनाओं के द्वंद्वात्मक तनावों को सांकेतिक आवेश
के साथ तोड़ते हैं इसलिए लघुकथाओं का अंतरमर्म स्टेटमेंट बनकर नहीं रह जाता बल्कि
गहरे सोच और चिंताओं में तब्दील हो जाता है। इसलिए इस संग्रह की लघुकथाएँ मानवीय प्रकृति और
सृष्टि के बीच में अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करती है और मांगलिक जीवन की जड़ें रोपती
है।
भगीरथ की संवेदनाएँ जख्मी के प्रति संवेदनशील है क्योंकि
समय की असलियत को पहचानना इनके स्वभाव में शामिल है ताकि भूतकाल का अधूरा और खंड़ित
मकान पूर्ण होकर अच्छा महल बन जाये और
आस्था विश्वास के संवेदनों की बस्ती बना और बसा सके।
‘पेट सबके हैं’ लघुकथा सूखे
के समय का लाभ उठाकर कम लागत और मजदूरी पर मकान तैयार करानेवाले लोगों की मानसिकता
पर कुठाराघात करती है मजदूर रोजगार पाने के लिए पाँच रुपये के स्थान पर तीन रुपये
पर काम करने को तैयार होते हैं और एक दूसरे से रोजगार पाने की ईर्ष्या से आपस में
झगड़ते हैं। मज़बूरी की मजदूरी का आत्म दुःख प्रस्तुत करनेवाली लघुकथा है।
‘आग’
सस्ती मजदूरी पर कबाड़ने धन, धर्म,
कर्म परिवर्तन करने तथा शोषण और अतिवाद करनेवाले लोगों के
विरुद्ध,
अन्दर और बाहर की ठंडी आग की आंच और गर्मीबढ़ानेवाली लघुकथा
है। ‘सोतेवक्त’ बूढ़े–बूढी का आत्मीय संवाद है जो उनके बुढ़ापे की थकन और अकेले
असमर्थ जीवन की विडम्बना को पेश करती है।
‘गोली नहीं चली’ लघुकथा
विक्टिमाईजेशन के अंतर्संवेदनों को प्रस्तुत करती है। जहाँ मांगों के लिए
लाठीचार्ज होता है साहसी लोगों पर केस चलता है डरपोक छिपकर स्थिति का तमाशा देखकर
कमेन्ट करते हैं।
‘शर्त’ समझौता कर स्तीफा
लेने और पन्द्रह हजार रुपये से परिवार सुखी बनाने के प्रस्ताव को अस्वीकार
करनेवाले आदमी के दृढ संकल्पों को जाहिर करती है क्योंकि उसमें आम लोगों के सुख की
भावना होती है व्यक्तिगत लाभ की भावना को यहाँ दफ़न किया गया है।
‘टूल’
प्रतिष्ठा की दौड़ में टूल या हथियार बनाए गये आदमी की
अंतर्संवेदना की पेंटिंग करनेवाली लघुकथा है।
‘बीरबल के तोते’ महँगाई में
ऊँचे लटकाई जलेबी की तरह रोजमर्रा की वस्तुओं के पहुँच से बाहर होने के कारण
प्राप्त करने की हताशा के परिफलन को सार्थक रूप से प्रस्तुत करनेवाली लघुकथा है।
‘चेतना’ भूत का पैशाचिक डर
उस समय तकअस्तित्व का संकट खड़ा करता है जब तक आतंरिक चेतना जागृत नहीं हो जाती यह
लघुकथा आत्म चेतना को सतर्क एवं जागरुक बनाती है।
‘ख़ामोशी’ जातिवाद और कर्म की
चादर ओढ़े लोग मानवीय संवेदना को किस तरह तिलांजलि देते हैं इसका एहसास यह लघुकथा
कराती है।
‘मज़बूरी और जरुरत’ एक ऐसी औरत
की मज़बूरी प्रस्तुत करती है जिसके साथ ससुराल की सम्पत्ति प्राप्त करने की
सम्भावनाएँ है,
जब तक ससुराल की सम्पत्ति मिलती रहती है पति, पत्नी-बच्चों को सुखी संसार देता है परन्तु जब खुद
कंस्ट्रक्शन कम्पनी का मालिक बन जाता है तो पत्नी को लात मार देता है। यह कथा औरत
के दुखी होने की संवेदना का गहरा एहसास कराती है।
‘सूना आकाश’ काम की तलाश में
निकले आदमी की लड़की को ठेकेदार काम देने का लालच देकर उसके साथ रोमांस करता है
पिता विवशताओं के आगे कुछ कर भी नहीं सकता। लघुकथा सूखे की विभीषिका का वर्णन और
आदमी की विवशताएँ और उनसे जूझने की कथा प्रस्तुत करती है।
‘कछुए’ नैतिक और सामाजिक
मूल्यों को जीवित रखनेवाले आदमी के मूल्यों की कथा है। ‘पेट सबके हैं’ संग्रह की
लघुकथाएँ भरपूर मानवीय संवेदनों की कथाएँ हैं। भगीरथ अपने समय के प्रतिनिधि एवं
जिम्मेदार लघुकथा लेखक होने से इनकी लघुकथाएँ समय के मसलों को आसानी से सुलझाती है
और सबको स्वर्ण युग की तरफ ले जाने की पहल करती है।
राधेलाल बिजघावने ई 8/13 भरत नगर(शाहपुरा)
अरेरा कॉलोनी भोपाल ४६२०३९
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पेट सबके हैं : `व्यवस्था विरोध के
उच्च आयाम’
आम तौर पर ‘लघुकथा’को एक आयामी विधा
मानकर उससे किसी एक ‘संवेदना’के उभार या किसी एक
विचार के प्रक्षेपण से अधिक की अपेक्षा नहीं की जाती। लघुकथाकार भी जब किसी गम्भीर
मुद्दे को उठाते हैं तो उस पर एक तीखा ‘रिमार्क’ या कन्ट्रास्ट के माध्यम से किसी विडम्बना को उभार देना
उन्हें प्राय: अभीष्ट होता है। ऐसी स्थिति में ‘लघुकथा’
से व्यवस्था विरोध की अपेक्षा कितनी उचित है? लेकिन भगीरथ के लघुकथा-संकलन ‘पेट सबके हैं’ की कई लघुकथाओं
से गुजरते हुए लगता है कि व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उद्घाटित करने और उन पर
प्रभावशाली ढँग से चोट करने का काम इस लघुविधा के जरिए भी सलीके से सम्भव है। ‘आग’,
‘तुम्हारे लिए’, ‘शर्त’,
‘गोली नहीं चली’, ‘बघनखे’,
‘आत्मकथ्य’, ‘दुमवाला आदमी’, ‘औरत’,
‘जनता जनार्दन’, ‘दोजख’,
‘सही उपयोग’, ‘नाटक’, ‘भीख’,
‘शिखण्डी’, ‘युद्ध’, ‘अवसरवादी’, ‘दहशत’, ‘फैसला’, ‘हड़ताल’, ‘संगठित कार्यवाही’, ‘रोजगार का अधिकार’
आदि लघुकथाओं में रचनाकार का क्रोध मौजूदा तंत्र की
असंगतियों से बार-बार टकराया है। कभी लहूलुहान हुआ है, और कभी उसने प्रतिवाद और विरोध में मुक्ति का रास्ता तलाशा
है।
इन लघुकथाओं में कारखानों, कार्यालयों,
पुलिस तंत्र, न्यायालय, पंचायत, जनप्रतिनिधियों में व्याप्त विसंगति, विडम्बना और जनविरोधी आचरण का जो यथार्थ रूप अंकित है, वह जनतांत्रिक व्यवस्था पर कई गम्भीर प्रश्नचिह्न लगाता है।
आजादी मिलने के इतने दिनों बाद भी आमआदमी को जहाँ रोजगार का अधिकार नहीं मिला है, वहीं शोषक /उत्पीड़क को हर बात की छूट मिली हुई है। फिर, यह व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था से कहाँ और कितनी अलग है? देश निर्माण के लिए प्रतिश्रुत श्रमजीवी का ख्याल था कि सारा
निर्माण और उत्पादन उसके कल्याण के लिए भी है –‘ये मिलें
मेरे लिए कपड़ा बना रही हैं। इन स्कूलों में मेरे बच्चे पढ़ने वाले हैं। इन
अस्पतालों में मेरा इलाज होगा।’ लेकिन यह सोचना उसके
लिए ‘सपना’ ही बना रहा। हर स्तर
पर उसका शोषण करके कुछ सुविधा–सम्पन्न लोग और सम्पन्न
होते गए,
देश का ‘जन’ भूखा और नंगा बना रहा। ‘जनता जनार्दन’ में तल्ख़
होकर पूछा गया सवाल अत्यन्त वाजिब है –“सौ चिपके
पेटों को पालना या भरे पेट की तोंद निकालना कौन-सा समाजवाद है?” ‘जनतंत्र’ में सत्ता का
निरंकुश होना चिंता का विषय है, लेकिन ऐसा आपातस्थिति
के दौरान हुआ। उस दौर में ‘आलोचना’ असंवैधानिक हो गयी –‘वे ही सही हैं क्योंकि उनके अलावा कोई सही हो नहीं सकता। वे
निडर हैं क्योंकि उनके पास पुलिस है, मिलिटरी है, जेल है, संसद है।”
ऐसी व्यवस्था में प्रतिवाद या विरोध करनेवाले अच्छी निगाह
से नहीं देखे जाते। ‘दुमवाला आदमी’ में दिखाया
गया है कि व्यवस्था के नियामकों को ‘कुत्ते’ जैसा आज्ञाकारी व्यक्ति पसन्द है। ‘नाटक’ लघुकथा का शीर्षक
बहुत कुछ व्यंजित कर देता है। कैसी भी नियुक्ति हो, ईमानदारी,
योग्यता, ज्ञान, मेहनत का कोई मूल्य नहीं है। ‘नाटक में एंट्री बैकडोर से ही होती है’-यह वाक्य
अनेक आशयों से सम्पन्न है।
‘दहशत’ का समापन-वाक्य भी
बहुत कुछ कह गया है –‘किन्तु छोटी-छोटी मछलियाँ मगरमच्छ की दहशत से और गहरे पानी
पैठने लगी थीं।’
लेकिन कथाकार इस नग्न वास्तविकता का अंकन करके चुप नहीं बैठा
है। उसने कई लघुकथाओं में व्यवस्था विरोध के विभिन्न रूपों को अपना समर्थन दिया है। ‘शिखण्डी’ और ‘दोज़ख’ में उसने कायरता और
दब्बूपन की मुखर भत्सर्ना की है। मरने के बाद बुरा न देखने, बुरा न सुनने और बुरा न कहने वाले व्यक्ति को प्रभु ने दोज़ख
की आग में झोंक दिया-“..तुम लगातार जीवन से भागते रहे, दब्बू और कायर की तरह। मेरी रचनात्मक शक्ति का उपहास किया
है तुमने,
इसकी यही सजा है।”
‘औरत’ और ‘तुम्हारे लिए’ में संघर्ष और प्रतिवाद के हर हालत में अहिंसक होने से
असहमति जतायी गई है।पुलिसवालों के बलात्कार की शिकार औरत अपनी असहायता से उबर कर
एक के सीने में चाकू घोंप देती है। ‘तुम्हारे लिए’ में सुअर अपने दाँतों की दराँती तेज कर रहा है क्योंकि उसे
लग रहा है कि भविष्य में हिंसा का विकल्प ही बचना है।
‘अंतर्द्वंद्व’
में एक स्वप्न दृश्य है, जिसमें नपुंसक बनाये जाने का प्रतिवाद हिंसा के माध्यम से
हुआ है।
‘संगठित कार्यवाही’
में इस सत्य का रेखांकन है कि मुक्ति अगर है तो वह सबके साथ
है। अकेली लड़ाई मूल्यवान होते हुए भी बहुत दूर तक नहीं चलती।
‘अफसर’
में भी संगठन के माध्यम से परिवर्तन की चेतना है।
‘आग’
रचना आश्वस्त करती है कि शोषित संगठित होकर अपनी लड़ाई खुद
लड़ रहे हैं। ये सभी रचनाएँ भगीरथ के इस विश्वास को व्यक्त करती है कि संगठित
संघर्ष के द्वारा इस व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को बदला जा सकता है।
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लघुकथा के पर्याय : भगीरथ
लगभग 50 वर्षों से
लघुकथा विकास यात्रा के सहभागी बने भगीरथ लघुकथा के एक ऐसे रचनाकार के रूप में
सबके सामने आए हैं जो बहुत ठहराव के साथ लघुकथा को रचाते हुए आगे बढ़ाते हैं। वह
लघुकथा लिखने में जल्दबाजी नहीं करते हैं। लघुकथा के चरित्रों को पूरा आत्मसात
करने के बाद लिखना शायद उनके स्वभाव में है,और इसलिए उनकी लघुकथाएँ समाज के भीतर से निकलकर सामने आती
हैं और पाठक के भीतर तक उतर जाती हैं। जैसा सम्मोहन उनकी लघुकथाओं में है वैसा ही
सम्मोहन उनके व्यक्तित्व में भी है। भगीरथ जी से जब मेरी पहली मुलाकात हुई थी तब
पहली नजर में ही मैं उनके इस सम्मोहक व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया था। वैसे भी
उनका नाम जिन पौराणिक सन्दर्भों के साथ जुड़ा हुआ है, वह सन्दर्भ मिलाने के पहले बहुत सारी खदबदाहट मन में पैदा
करते हैं और संकोच का एक घेरा भी मन पर छा जाता है, लेकिन मिलने के बाद उनका सहज स्वभाव और आकर्षक व्यक्तित्व
आपके सारे संकोच तोड़ देता है।
भगीरथ लघुकथा लेखन के क्षेत्र में १९७२ से हैं और मेरा लेखन
के क्षेत्र में प्रवेश १९७७ से हुआ, जब स्वर्गीय डॉक्टर सतीश दुबे की प्रेरणा से पहली लघुकथा
लिखी। तबसे लघुकथा से ऐसा जुडा कि आज तक नहीं छूटा हूँ। भगीरथ से सिरसा सम्मलेन
में शायद पहली मुलाकात हुई थी। जलगाँव में भी हम लोग साथ में थे,
और रावतभाटा में भी एक आयोजन में जाना रहा। इसके अलावा ‘लघु आघात’ और फिर ‘क्षितिज’ के आयोजनों/प्रयोजनों में उनसे सम्पर्क बना रहा। यह
साहित्य सृजन की एक विशेषता है कि ढेर सारे जाने-अनजाने शहरों/गाँवों में हमारे
ढेर सारे मित्र बन जाते हैं, जिनसे मिलना बिल्कुल अनौपचारिक और अनिवर्चनीय ख़ुशी मन में
भर देने वाला होता है। आज भी कई सारे मित्र इन पुरानी यादों से भरे हुए मिलते हैं।
बहरहाल भगीरथ का लघुकथा से प्रेम ‘अतिरिक्त’ के लघुकथा अंकों से; और फिर १९७४ में रमेश जैन के साथ ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ के प्रकाशन से स्पष्ट है जो लघुकथा के इतिहास में मील का
पत्थर है। इसका पुनर्प्रकाशन द्वितीय संस्करण के रूप में भाई योगराज प्रभाकर ने
वर्ष २०१९ में ही किया है। भगीरथ ने इसके बारे में कहा है कि ‘यह आधुनिक लघुकथा का प्रस्थान बिंदु है। लघुकथा के प्रत्येक
लेखक के पास यह पुस्तक होना निहायत जरुरी है, क्योंकि लघुकथा के बीज इसमें छिपे हैं।”
लघुकथा में भगीरथ का योगदान सृजनात्मक होने के साथ-साथ समालोचनात्मक भी है।
उनके निजी लघुकथा संग्रह ‘पेट सबके हैं’ और ‘बैसाखियों के पैर’ प्रकाशित हैं, तो लघुकथा समालोचना पर ‘हिंदी लघुकथा के सिद्धांत’ और ‘लघुकथा समीक्षा’ प्रकाशित हुई हैं। मधुदीप ने ‘भगीरथ की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल’ पड़ाव और पड़ताल के खंड 16 के रूप में सम्पादित की है। इसमें डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे
और डॉक्टर उमेश महादोषी के दो महत्वपूर्ण समालोचनात्मक आलेख उनकी लघुकथाओं पर हैं।
भगीरथ की लघुकथाओं को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि उनका शिल्प
उनकी भाषा बिलकुल अनूठी है। वे चमत्कार
पैदा नहीं करते, अपने शब्दों को किसी धारदार खंजर की की तरह पाठक के ह्रदय में उतार देते हैं। उनकी
अधिकांश लघुकथाओं के पात्र ठेठ राजस्थान के हैं और उनके भीतर उठने वाले रेत के
बवंडर को उन्होंने स्वयं पहले भोगा है, फिर उसे रचा है। अपने पहले ही लघुकथा संग्रह की शीर्षक कथा
जब वे रचते हैं तो उसमें गरीब का दर्द और मालिक का दुःख तो है ही,
उसकी दया भी है। लघुकथा की यह तरलता,
जब उनसे मिलते हैं तो उनकी आँखों में भी सदैव महसूस होती है।
वे रचना कर्म के प्रति और जीवन के आदशों के प्रति ईमानदार
है और ‘शर्त’ जैसी लघुकथाओं में उनका यह भाव दृष्टिगत होता है। उनका
पात्र भी बेबस नहीं है, एक सीमा तक सहनशील है, लेकिन जब बर्दास्त के बाहर हो जाय तो ‘फूली’ जैसा खड़ा होकर भानिया की मूँछ के बाल तक जला डालता है। यही
बात ‘औरत’ लघुकथा में है। इस लघुकथा में नायिका अपने से रेप करनेवाले पुलिसकमियों पर
रायफल के चाकू से अंतत:वार कर देती है और वे भाग खड़े होते हैं। भगीरथ के भीतर का
लेखक बड़ा ही चौकन्ना है। अपने आसपास व्याप्त भ्रष्टाचार पर उनकी पहली नजर रहती है।
वे देश की चिंता भी करते हैं और युद्ध जैसी रचना रच देते हैं। राजनीति में व्याप्त
भ्रष्टाचार की ओर उनकी निगाह है, तथा ऐसे विषयों को वे अपनी रचनाओं के सरोकार बनाकर प्रस्तुत
करते हैं। वे परिवारों के भीतर और पति–पत्नी के रिश्ते के भीतर भी झाँककर देखते हैं और ‘हक़’ जैसी लघुकथा का सृजन करते हैं। उनकी चेतना व्यक्ति और समाज से गुजरकर देश की
चिन्ता भी करती है। अच्छे और बुरे की परख उनके चिंतन में सदैव व्याप्त रहती है। जीवन
मूल्यों का जहाँ पर भी क्षरण होते हुए वे देखते हैं, वहां कलम को तलवार के माफिक निकालकर उसकी रक्षा के लिए खड़े
हो जाते हैं। श्री पुरुषोत्तम दुबे ने भी भगीरथ की लघुकथाओं को ‘अन्वेषण के प्रमाणिक दस्तावेज’
कहा है। उन्होंने कहा है कि, यह शब्दों की अर्थवत्ता को पैदाकर एक ऐसी चित्रलिपि तैयार
करते है जिसको आत्मसात कर पाठक अपने आसपास के समाज में व्याप्त कुहासे को बुहार
सकने में समर्थ होते हैं। श्री दुबे की यह टिपण्णी उनकी लघुकथाओं की ताकत को
रेखांकित करती है। उनकी लघुकथाओं में विषद विषय शामिल है। ‘रेंजर दौरे पर’ नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार और लालफीताशाही पर
केन्द्रित है। ‘तीर्थयात्रा’
वृद्ध दम्पति के सपनों पर केन्द्रित है जो पूरे नहीं हो
सकते। उनकी दृष्टि विश्वविद्यालयों पर पड़ी तो ‘अपराध’ और ‘एंट्रेंस टेस्ट’ जैसी लघुकथाएँ लिख दी जो शिक्षा व्यवस्था में आ रही गिरावट और गन्दगी की ओर
इंगित करती है।
पिछले दिनों मैंने अज्ञेयजी द्वारा सम्पादित सप्तक के कवि
श्री राजकुमार कुम्भज की कविता ‘कबाड़’पढ़ी। जीवन के उत्तरार्ध में वस्तुएँ और जीवन कैसे समाप्त
होता चला जाता है,
यह इस कविता में
बहुत ही सुन्दर तरीके से वर्णित किया गया है। भगीरथ की एक लघुकथा ‘सोते वक्त’ कभी समाप्त नहीं
होनेवाले बुढ़ापे के समय को बड़े ही नए और अनोखे तरीके से प्रस्तुत करती है। यह कहीं
न कहीं हमारे जीवन के उत्तरार्ध को एक अलग तरीके से सामने लाकर रखती है, जैसा कि कवि राजकुमार कुम्भज ने ‘कबाड़’ में प्रस्तुत किया
है। इसी लघुकथा को पढ़ते हुए मुझे वरिष्ठ कथाकार श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल की भी
याद आयी। उनकी लघुकथाओं का शिल्प भी संवेदनाओं के अश्रु बिंदु इसी तरह से निकाल
देता है,
जिस तरह से यह लघुकथा पाठक के मन में कचोट पैदा करने में
सक्षम होकर उसकी आँखें नम करती है।
आतंक पैदा करने वाले विषयों की जड़ में जाकर उन्होंने ‘आतंक’ लघुकथा रची है। आज देश की यह ज्वलंत समस्या है। भटके हुए
लोग अंधे होकर आतंक का हिस्सा बनते जा रहे हैं। इस गम्भीर विषय पर उह एक साहस भरी
लघुकथा है। ‘बीरबल
के तोते’
व्यंग्य से परिपूर्ण लघुकथा है। शरद जोशी और परसाई जी ने जो
लघुकथाएँ लिखी हैं, उनमें भी व्यंग्य की तीक्ष्णता रही है। इन दिनों ऐसी लघुकथाएँ लिखना चलन में
नहीं है। व्यंग्यकार जवाहर चौधरी ने अपनी पुस्तक ‘सॉरी जगदीश्वर’ में ऐसी ही लघुकथाएँ संग्रहित की हैं। इसी प्रकार से अंधी न्याय व्यवस्था पर
व्यंग्य करती लघुकथा ‘रोजगार का अधिकार’ है,
जिसमें छँटनी का शिकार मजदूर न्यायालय से रोजगार माँगता है,
लेकिन (कानून की इबारतों) और सबूतों पर जीनेवाला न्यायालय इसमें
अपनी विवशता दर्शा देता है। यह एक सर्वकालिक कालजयी लघुकथा है।
अपनी लघुकथाओं में भगीरथ ने अलग-अलग शिल्प और कसी हुई भाषा
का प्रयोग किया है। विषय वैविध्य पाठक को इसलिए चमत्कृत करता है कि लेखक ने
किन-किन क्षेत्रों में प्रवेश कर समाज की चिन्ताओं को खोज निकाला है,
और साहस के साथ रख भी दिया है। वह बन्धनों में जकडे हुए नहीं लिखते खुले आकाश को
कैनवास बनाकर सृजन करते हैं। शीर्षक कथ्य के अनुरूप रहे इसकी समझ उन्होंने बड़े
अच्छे तरीके से अपनी लघुकथाओं में प्रतिपादित किया है। शीर्षक के छोटे और बड़े होने
की वह कभी चिंता नहीं करते। पात्रों के नाम खोजकर कथावस्तु से वह उनकी सादृश्यता
बनाकर रखते हैं। जिस क्षेत्र की समस्या लघुकथा में उठाई गई है उसके अनुरूप भाषा को
वह सहज तरीके से चुन लेते है। ये सारी बातें उनकी लघुकथाओं की साख बढाती है और एक
महत्वपूर्ण लघुकथाकार के रूप में उनकी स्थापना करती है। यही बातें उन्हें लघुकथा
के पर्याय के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करती
हैं।
नयी पीढ़ी के लिए भगीरथ एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे
हैं। ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ के बाद अब वे ‘मैदान से वितान की ओर’ श्रृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें कई सारे नवलेखक भी
शामिल हुए हैं। जो बीज उन्होंने 1974 में अंकुरित किया था, उसके फल इस पुस्तक में अपना स्वाद देंगे,
ऐसा मेरा विश्वास है। नवलेखकों को उनका साहित्य और उनपर
लिखी गई समीक्षाओं को पढना चाहिए। तभी लघुकथा की यह प्रांजलता नए लेखक भी अपने
लेखन में ला सकेंगे।
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उमेश महादोषी के
आलेख ‘अद्यतन होती लघुकथा’ का एक अंश-
भगीरथजी की लघुकथाओं पर बात करते हुए मैं इस बात पर नहीं
जाऊंगा कि लघुकथा के आन्दोलन में उनका कितना योगदान रहा,
आन्दोलन के माध्यम से और लघुकथा पर अपने शोधपूर्ण आलेखों और
लघुकथा के रचनाविधान व समीक्षा के मापदंडों पर उन्होंने कितना–क्या किया है। मैं ‘गुफाओं से मैदान की ओर’, ‘अतिरिक्त’ और उनके दूसरे कामों की चर्चा भी नहीं करूँगा। दरअसल लघुकथा
की विकास और विस्तारयात्रा में उनका योगदान किसी से छुपा नहीं है। लेकिन लघुकथा की
सृजनयात्रा और रचनात्मकता के सन्दर्भ में कई चीजें हैं,
जिन पर शायद उतनी और उस दृष्टि से चर्चा नहीं हो पाई है,
जिसकी आवश्यकता है। दूसरे, उपरोक्त जैसी चीजों के साथ सम्भव है कि सृजन को कुछ गति मिल
जाए,
किन्तु मूलत; रचनात्मकता जिन चीजों से प्रभावित होती है,
वे चीजें इनसे इतर होती है।
प्रमुख बात, जिसे मैं महत्त्व देना चाहूँगा,
वह भगीरथजी की प्रयोगधर्मी दृष्टि और चीजों को विभिन्न कोणों
से समझने की उनकी प्रवृति है। भगीरथजी सम्प्रति एक स्कूल संचालक होने के नाते
शैक्षणिक परिवेश की गतिविधियों को समझते हैं, कानून का स्नातक होने के नाते उसके विविध पक्षों की
बारीकियों और व्यवहारों से भिज्ञ हैं, अर्थशास्त्र और राजनीति के छात्र रहे हैं,
देश के महत्वपूर्ण विभाग में नौकरी करते हुए उन्होंने
जबरदस्त उत्पीड़न झेला है, न्यायालय में लड़ाईयां लड़ी हैं, ट्रेड यूनियन में काम करते हुए उसके यथार्थ और चरित्र को
समझा है। उत्पीड़न के दौरान व्यक्तिगत जीवन की खदबदाहट,
इन सबसे गुजरते हुए और एक मननशील एवं प्रयोगधर्मी
साहित्यकार होने के नाते सामाजिक अवयवों और उनके विविधतापूर्ण व्यवहार की व्यापकता
और समझ उनके साथ है। रचनात्मकता के स्रोतों की पहचान और उनकी प्रकृति के बारे में
वह जागरूक रहे हैं। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि विभिन्न रचनाकारों की रचनात्मकता
और उनके परिवेश के मध्य सम्बन्ध को भी समझने की कोशिश करते हैं वह। चीजों को गहराई
से समझने की कोशिश उनके स्वभाव का हिस्सा रही है। ऐसी चीजें किसी भी रचनाकार के
सामर्थ्य को पुष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सामान्यत: माना जा सकता
है कि उनकी रचनाएँ एकांगी सोच का शिकार नहीं हो सकतीं। विषयवस्तु के साथ चिंतन के
स्तर पर भी बहुआयामी दृष्टिकोण उनका रहा है। उनके व्यक्तित्व,
संघर्ष, अनुभव व चिंतन से जुडी समूची पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालकर
उनके सृजन को देखा जाय तो अधिकांशत: इसका उनकी रचनात्मकता के साथ एक गहरा
सकारात्मक रिश्ता दिखाई देता है। उनकी प्रयोगधर्मिता और अलग रास्तों को तलाशने की
प्रवृति यहीं से उद्भूत होती दिखती है। यथार्थ का सबसे वास्तविक रूप संघर्ष के
क्षणों में ही देखने को मिलता है और मूल्यों का सबसे उपयुक्त परीक्षण भी। कुछ
दूसरी काल-सापेक्ष आवश्यकताओं के साथ मूल्यों में परिवर्तनों की नींव पड़ने की सबसे
अधिक संभावना भी किसी न किसी रूपवाले संघर्ष के परिवेश में ही होती है।
जीवन-व्यवहार की सर्वाधिक विविधता का आधार और तदनरुपी दृष्टिकोण यहीं से उद्भूत
होता है। जब सबसे अधिक विचलित करनेवाले क्षण आते हैं,
तो धीर-गंभीर लोग बहुधा शान्तचित्त से एक-एक चीज का
विश्लेषण करके समाधान के विभिन्न रास्तों पर विचार करते हैं,
उनका परीक्षण करते हैं। कभी उपयुक्त रास्ते मिल जाते हैं,
कभी तलाश जारी रहती है। भगीरथजी की अधिकांश रचनात्मकता ऐसे
ही रास्तों से चलकर आती है।
कथा की प्रकृति के आधार पर भगीरथजी की लघुकथाओं में कथा के
एकाधिक रूप सामने आते हैं। पहला रूप पारम्परिक है। विभिन्न शैलियों में रचित
सीधी-सपाट कथा, कथा
के सभी अंग-उपांग स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके विपरीत कई रचनाओं में कथा के रूप के
साथ विमर्श आधारित प्रयोग किए गए हैं, जिनमें कुछेक को तो कई मित्र कथा मानने से ही इनकार कर सकते
हैं।
कई रचनाओं में कथा
का काव्याच्छादित रूप दिखाई पड़ता है, तो कुछेक रचनाओं में जैसे कथा और कविता को एक पारगम्य
झिल्ली ( परमिएबिल मेम्ब्रेन) से अलग किया जा रहा है,
यानी पाठक कविता से लघुकथा और लघुकथा से कविता में भ्रमण का
आनन्द लेता रहे। लेकिन इन तमाम कथा रूपों में उनका कथाकार घटनाओं और चरित्रों में
बहुत अधिक नहीं उलझता। इसकी बजाय जीवन-व्यवहार की पड़ताल करता हुआ अपना रास्ता तय
करता है। वह अपनी अनेक लघुकथाओं में कथा की रचना करते दिखाई नहीं देते अपितु
यथार्थ और मूल्यों के सन्दर्भ में जीवन-व्यवहार की पड़ताल कथासूत्रों में बदलती है।
ऐसी रचनाओं में उनके कथ्य कथा से अधिक पड़ताल का परिणाम होते हैं। उनके सृजन में
कुछ चीजें आलोचकों को अस्थाई रूप से ठहरने की जगह भले ही दे दें लेकिन समग्रत;
यह चीजें लघुकथा को उसकी अद्यतन भूमिका की ओर ले जा रही है।
(भगीरथ की 66 लघुकथाएँ और उनकी
पड़ताल,
संपादक : मधुदीप)
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डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
के आलेख ‘हिंदी लघुकथा-गंगा के संवाहक : भगीरथ’ का एक अंश
भगीरथ की लघुकथाओं में उनकी व्यक्तिमूलक चेतनाओं का व्यापक
व्यापार देखने को मिलता है। समाज के किनारे बैठकर कल्पनाओं के बूते से सायास न
लिखकर भगीरथ समाज के भीतर तक उतरते हैं और समाज में घटित खरे खोटे को दृष्टिसंपन्न भाव से परखकर उनकी परतें अपनी
लघुकथाओं में खोलते मिलते हैं। वस्तुतः भगीरथ सामाजिक कचहरियों के निर्भीक साक्ष्य
हैं। भगीरथ की लघुकथा-यात्रा केवल कोरी यात्रा नही, वरन एक तलाश है। समाज में रह रहे पीड़ितों की तलाश, शोषण झेल रहे शोषितों की तलाश,जीवन मूल्यों से वंचित बेगार ढोते लोगों की तलाश, व्यवस्था की पैंदी में पड़ी दरारों की तलाश और तलाशों की ऐसी
विस्तृत मुहिम में मुखौटों की भीड़ में वास्तविक चेहरों की तलाश. वस्तुतः भगीरथ की
लघुकथाएँ अन्वेषण या खोज के प्रमाणिक दस्तावेज हैं।
वे समाज की कुरूपता पर अपने वक्तव्य प्रसारित करते हुए
सामाजिक कुरूपता को अपनी लघुकथाओं के कथानकों में कुछ यूँ उतारते हैं कि पाठकों को
उन कथानकों में सामाजिक विषमता और भदेस भी दिखाई दे और इनके कारमकोर इनका निदान भी
दृष्टिगत हो सके।
भगीरथ की लघुकथाएँ एक खूंटे बंधी न होकर वरन समाज में घटित
होनेवाली भिन्न-भिन्न घटनाओं की किसी अन्वेषी की तरह पड़ताल करती मिलती हैं।
सामाजिक यथार्थ का निरूपण प्रस्तुत कर भगीरथ की लघुकथाएँ जीवन्त होकर सहृदय
सामाजिकों को सहज ही में आकृष्ट कर लेती है।
भगीरथ की ‘दुपहरिया’ लघुकथा जीवन और यौवन के फलसफे पर आधारित है। ज़िन्दगी की समझ
यौवन के भँवर से घिरकर नहीं मिलती है लेकिन ढलती उम्र में जिन्दगी,
जिन्दगी का पता पा लेती है। प्रस्तुत लघुकथा में कहा गया है
कि दोपहर यौवन का प्रतीक है, जिसमें तेजस्विता है। मगर समाज अब तेजिस्विता के प्रति कोई
दरकार न रखते हुए यौवन के साथ आधुनिकता को देखना चाहता है वैसे भी आज का समय
मॉडरेशन का समय है। इस पर भी जो मूल्यों और संस्कृति को बनाए रखना चाहते हैं,
ऐसे लोगों को युवा शक्ति द्वारा पारम्परिक तौर पर मान्य मूल्यों
और संस्कृति की भित्तियाँ ढहाना कब पसन्द होगा? । ‘दुपहरिया’ लघुकथा में निहित इसी मन्तव्य पर भगीरथ के अपने विचार हैं।
वे मानते हैं, यौवन
का उत्साह, कुछ
कर गुजरने की चाह, समाज की बूढी दीवारों को तोड़ने की ललक, विरोध और विद्रोह की कसमसाहट को यथास्थितिवादी पसन्द नहीं
करते।वे तेजस्विता को दैविक गुण मानते हैं।ईश्वर में यह गुण प्रशंसनीय और पूजनीय
भी है। लेकिन युवाओं की तेजस्विता तो सब कुछ भस्म करने पर तुली है।जो दैविक है वह
मानवीय क्यों नहीं हो सकता।’ वस्तुतः ‘दुपहरिया’ लघुकथा प्रतीकों और बिम्बों के बल अपना कथ्य पूर्ण करती है।
इसमें कथा कम और कविता ज्यादा जान पड़ती है।
(भगीरथ की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल,
संपादक : मधुदीप)
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