Friday, December 14, 2012


मकान
रमेश जैन
मैं अब इस का सामना नहीं कर सकता । मेरी अंतिम इच्छा है कि मकान के तले दबकर मर जाउं।
            अब इस मकान का अल्लाह ही मालिक है।
            इस मकान में शांति नाम की कोई चिडि़या नहीं चहकती । शांति के विषय में मेरी कोई व्याख्या नहीं  है।                                        

बरसों  पहले आदर्शवादिता ने इस मकान में जन्म लिया। तब से लेकर यह मकान इसी स्वप्नमयी का शिकार बन धंसता चला जा रहा है।
यह मकान लक्ष्मी द्वा्रा शापित है ।इस मकान में कई सारे लोगों ने मिलकर लक्ष्मी का शीलहरण किया है।
यदि यह मकान थोड़ा और पुराना होता तो अब तक खण्डहर भी नहीं रहता ।
इस मकान पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। तिस पर भी यह मकान मुझसे काफी अपेक्षाएं रखता है । इसकी एक भी इंट उखड़ना मेरे लिए अभिषाप बन जायेगा।
यह मकान वीर्य -पुन्ज है । इस मकान की दो उत्तराधिकारिणियां है - एक मकान के अंदर वाली दूसरी बाहर वाली। बाहर -वाली शगुफा है तो अंदर वाली अंधेरी गुफा । एक इस मकान को चबा डालना चाहती है तो दूसरी डसना ।
नदी तूफानी है। मस्तूल डूब रहा है। किनारे पर खड़े लोग तमाशा देख रहे है।

  1.  

Thursday, November 8, 2012

आठवे दशक की लघुकथाए
















युगधर्म
            लक्ष्मीकांत  वैष्णव 
       
            अंदर कुछ बंट रहा था। तनिक ठिठका तो  द्वारपाल
 ने नजदीक आकर कहा, रेवड़ी बंट रही है। खाना चाहोगे! मैंने कहा कि चीज ही ऐसी है जिसे हर आदमी खाना चाहेगा-और मैं  द्वार की ओर बढा। ठहरो,एक आदमी अंदर से दौडा आया,पहले अपनी जाति बतलाओ''क्यों? मैंने पूछा। हम लोगों को उसकी जाति से पहचानते हैं।‘’  तो क्या रेवड़ी भी जाति पूछ -पूछ कर दी जा रही है।‘’ मैंने अंदर रेबड़ी खा रहे लोगो की ओर र्इशारा करके पूछा। वह बोला ''हां ‘’।– मगर प्रजातंत्र के युग में जातिवाद?” उत्तर में वह आदमी हंसा फिर बोला- अब्बल तो रेवड़ी खाने वाले तर्क नहीं किया करते और अगर करते भी हैं तो रेवड़ी पेट में पहुंच जाने के बाद करते है। मैंने कहा- ''हम सभी मनुष्य जाति के हैं। हम में भेद क्या है ?”  लगता है तुम्हें रेबड़ी नहीं खानी है तभी व्यर्थ की बात कर रहे हो ।‘’  वह लपक कर दूसरे याचक की तरफ बढ़ गया।

(गुफाओं से मैदान की ओर - 1974) 

Saturday, October 6, 2012

आठवे दशक की लघुकथाए

 भूख
जगदीश चन्द्र कश्यप

वह पूरी शक्ति से भाग रहा था। जब वह रूका तो उसनेअपने को किसी बड़े नगर में पाया। कई बार रो पड़ने के बावजूद किसी ने भी उसे अपने पवित्र घर में घुसने नहीं दिया था। अब वह गांव की ओर दौड़ रहा था।
डसे अच्छी तरह से मालूम था कि पीछा करने वाली डायन उसके मां बाप को भी निगल गयी थी । पूरी की पूरी जिंदगी उसने इस डायन की कैद से छुटकारा पाने में बरबाद कर दी। किसी तरह वह एक रात को चुपचाप भाग निकला था।
ये बुढढा भी वर्षो पहले चंगुल से निकल भागा था। एक हफते तक मैनें इसे खाट से उठने नहीं दिया।
उसके यह सोचते ही कि वह तीन दिन से भूखा है- उसके पेट में कुछ ऐठन सी हुई । फिर भी वह मुड़ भागा। वह मुस्कराती रही ।
जैसे ही वह एक मोड़ पर रूका । वह सामने खड़ी थी। तुरंत ही उसने ढेर सा खून उगला और उसके कदमों में गिर पड़ा।

 
 


वह सुखी था
कृष्ण कमलेश

वह बहुत सुखी था। उसके पास सबकुछ था। बूढ़ी मां, गुडलुकिंग बीवी-जिसके दांत थोड़े बढ़े हुए जरूर थे लेकिन वह उसके सौंदर्य में वृद्धि  ही करते , एक अदद नौकर भीं वह पिछले दो साल से बहुत सुखी था, क्योंकि उसे शादी किये हुए इतना ही अरसा गुजरा था और वे दोनों परिवार बढ़ाओं आंदोलन के हामी नहीं थे। अभी दो तीन साल और इरादा नहीं था उनका । हालांकि नाम उन्होंने पहले से ही सोच रखे थे। अनुराग या अनिवता । लेकिन । बहुत कम लोग उनके यहां आते जाते । हां कोल बैल जरूर उसने अपनी बीवी के कहने से लगवा ली थी। गजर कोंल बेल। तबियत में आती, बजती। वायरिंग ठीक -ठाक थी, लेकिन ...।
उसे दहेज में एक ट्रांजिस्टर मिला था । जब मन में आता बजता या महीनों चुप रहता । उसने बड़े -बड़े इलेक्ट्रिशियनस बुलाए , लेकिन—।
उसकी बीवी ने उसकी पिछली सालगिरह पर सिगरेट कम लाइटर प्रजेन्ट  किया था, पेट्रोल से जला था बस पहलीवार और अब छठे छिमाहे सिगरेट सुलगा लेता है।
उसकी मम्मी कभी उस पर अतिशय ममत्व प्रकट करती तो कभी आक्रोश । पिछले अठारह बरसों में वह अपनी मम्मी को समझ नहीं पाया था।
और उसकी बीवी कभी केफे में, कभी बारात में कभी स्नानगृह में तो कभी कार में ही जिद करती । उसे अपना बीवीपना जाहिर करने का ऐसी ही जगहों पर मौका मिलता और उसके लिए समपंग ठुकरा पाना मुश्किल हो जाता, बल्कि नामूमकिन भी।
हां -वह सचमुच बहुत सुखी था।

Monday, September 10, 2012

आठवे दशक की लघुकथाए


पुल बोलते हैं
कैलाश जायसवाल

लम्बा और सूना प्लेटफार्म। सीमेन्ट के शेडस से टकराती तिरछी घनी बूंदें । मध्यरात्रि के आलोक में पटरियों पर गिरती  उछलती और बिखरती बूंदों का अटूट कम प्लेट फार्म की परिधि के परे गहरा अंधेरा । अंधेरे में उभरते कई अनगिनत आकृतियों के अस्थिर आभास । प्लेट फार्म के उपर से गुजरता हुआ दूर तक दिखता उंचा पुल, वर्षा और धूप आकाश से बतियाता -सा । न जाने कितने उसके उपर से और न जाने कितनी रेलें उसके नीचे से गुजर गयी वह कई सालों से यू हीं खड़ा है।
आज अधंरी रात मे , वर्षा में ही घूमा जाये मैनं सोचा और प्लेट -फार्म से निकलकर पुल पर चढ़ने लगा। एक बहुत ही तेज और ठंडे झोंके ने मेरे आलिंगन कर दिया और मैं अंधेरी वर्षा में निर्बाध घुस गया।
मुझे गिरते पानी के नैरन्तर्य में नगर की सड़कों और सीमांतो पर घूमना बहुत अच्छा लगता है  बगैर छतरी या बरसाती के बीच -बीच से गर्म चाय के दो - दो,  तीन -तीन कप पीता रहता हूं । अभी तक बरसते दिनों में ही घूमा हूं। आज अंधेरी बरसाती रात के निर्जन से पुल पर भटकने की इच्छा दुर्दान्त हो उठी थी। अब मैं पुल पर पहुंच गया हू। । इस पुल पर एकदम अंधेरा क्यों है   शायद लाईट खराब हो गई है।
घुप्प अंधेरे में मैं सिर्फ वर्षा की उर्जा महसूस कर रहा हूँ।। पावों के नीचे खिलखलाती जलधाराएं लुढ़क रही है। अनुमान से आहिस्ते -आहिस्ते चलता हुआ मैं पुल के चक्कर लगाने लगा सहसा चाय की याद आ गई, कहां मिलेगी  प्लेटफार्म का स्टाल भी बंद पड़ा था  पांच बजे से पहले क्या मिलेगी । मैंने मन ही मन सोचा अंधेरे पुल की छाती पर अंधेरे में चलते हुए मुझे लगा कोई मुझे इस तरह पुल की छाती पर अंधेरे में चलते हुए मुझे इस तरह पुल पर चक्कर लगाते देख लो तो वह क्या सोचेगा वह शायद यही सोचेगा कि मैं पुल का संतरी हूं । मुझे हॅंसी आ गई- उसे क्या पता कि मैं इन्जाय के लिए घूम रहा हॅं। वर्षा और हवा की गति अभी भी वैसी ही थी कहीं दूर से चार का गजर खड़का अभी तो एक घंटा और है मैंने सोचा। गजर की आवाज सारे परिवेश में से लपलपाती हुई गुजर गई फिर मौन था यानि हवा और वर्षा की आवाजें थी- आती हुई गुजर गई फिर मौन था यानि हवा और वर्षा की आवाजें थी- पूर्ववत् । एक घंटे बाद ट्रेन आ जायेगी। स्टाल खुलेगा  और चाय के पूरे तीन कप पीकर बर्थ पर जा लेटूंगा आज की सुबह अच्छी ही गुजरेगी खूब गहरी नींद आ जायेगी। इस वक्त पुल पर आने से दो काम हो गए। मुझे अपने यहां आने पर खुषी होने लगी।
कौन जानेगा- कि आज मैं रात यहां घूमता इस पुल की इस अजनबी नगर की एक बरसती रात को ब्लेक डाग पीता रहा और मुझे किसी ने भी नहीं देखा। कौन जानेगा। अभी आश्वस्त ही हो रहा था कि एक आवाज हवा से अलग  मेरे पास से  मुझे छूती हुई या हलके से धकियाती हुई बूंदों पर सवार गुजर गयी।
कौन है! कौन है! मैंने पूछना चाहा, चीखना चाहा मगर आवाज गले से बाहर निकली नहीं । शायद बौधारों ने मुहॅं ही नहीं खुलने दिया। हवा और वर्षा की गति अभी भी वैसी ही थी । क्या पुल भी बोलता है?

(गुफाओ से मैदान की ओर  -   1974)

Friday, August 10, 2012



अनीता वर्मा के लघुकथा संग्रह दर्पण "झूठ ना  बोले"  का   लोकार्पण करते हुए भगीरथ , रतन कुमार सामरिया ,बीच में अनीता वर्मा !

Wednesday, May 9, 2012

आठवें दशक की चर्चित लघुकथाएं



'ज्ञानसिन्धु' में एक श्रृंखला 'आठवें दशक की चर्चित लघुकथाएं"  आरम्भ करने जा रहे है ताकि पाठक व लेखक आठवें दशक के लघुकथा लेखन से परिचित हो सके तथा आज के लघुकथा लेखन से उसका तुलनात्मक अध्ययन कर सकें। और देख सके कि इस आन्दोलन ने क्या उपलब्धियां हासिल की है।इस श्रृंखला में आठवें दशक में प्रकाशित लघु कथा संकलनो,पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांको से विशिष्ट लघुकथाएं प्रस्तुत की जायगी। लघुकथांकों के अन्तर्गत हम निम्न को सम्म्लित कर रहे है, अतिरिक्त(1972-73) अंतर्यात्रा(1972 व1977)दीपशिखा(1973),सारिका(जुलाई 1973 व 1975),तारिका (1973),शिक्षक संसार (73 व 77) ,साहित्य निर्झर(जु1974),मिनियुग (1974),शब्द (1975),प्रगतिशील समाज(जून1975),अग्रगामी (जून1977),समग्र(1978),युगदाह(1979),नवतारा(1979),प्रतिबिम्ब(1979),ग्रहण(1979), कुरुशंख(1980),वर्षवैभव (1980), व  लहर (1980)।
सम्मिलित
लघुकथा संकलनों के अन्तर्गत-गुफाओं से मैदान की ओर (1974) सम्पादक-भगीरथ व रमेश जैन ,प्रतिनिधि लघुकथाएं(1976)सं-सतीश दुबे एवं सूर्यकांत नागर, श्रेष्ठ लघुकथाएं (1977) सं शंकर पुणतांबेकर, समान्तर लघुकथाएं(1977)सं-नरेन्द्र मौर्य/नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ,छोटी-बडी बातें(1978)सं-महावीर प्रसाद जैन/जगदीश कश्यप,युगदाह(1979) सं-प्रभाकर आर्य,आठवें दशक की लघुकथाएं(1979) सं-सतीश दुबे, व   तनी हुई मुट्ठियां(1980) सं-मधुदीप/मधुकांत के
अवलोकन के दौरान जो उत्कृष्ट कथाएं ध्यान मे आएगी उन्हें प्रकशित किया जायगा।कुछ एकल संग्रहों जैसे "सिसकता उजास" (1974) सतीश दुबे,"नया पंचतंत्र"(1974) रामनारायण उपाध्याय,मोह्भंग(1975)कृष्ण कमलेश;  "अभिमन्यु का सत्ताव्यूह"(1977) श्रीराम ठाकुर 'दादा'; कालपात्र (1979) दुर्गादुत्त दुर्गेश ;एक और अभिमन्यु(19790सनत मिश्र;नीम चढी गुरबेल(1980) श्रीराम मीणा को भी खंगाला जायगा।
समाचार पत्रो के लघुकथा परिशिष्ठ व उस समय की पत्र - पत्रिकाओं मे प्रकाशित श्रेष्ठ लघुकथाओ को भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जायेगा!
   उत्कृष्ट्र रचनाओं को पुन: प्रकाशित कर लेखकों एवं पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करना और उनपर आलोचनात्मक टिप्पणिया आमंत्रित करना हमारा उद्देश्य है ताकि आठवे दशक की बेहतरीन रचनाओं का संकलन प्रस्तुत किया जा सके।
मित्रों से आग्रह है कि इस कार्य में पूरा सहयोग दें सहयोग निम्न रुप से कर सकते है-लेखकों के फोटो भेज कर',विलुप्त अंकों की फोटो प्रति भेज कर,कोई स्रोत छूट गया हो उसकी जानकारी,अच्छी लघुकथा की ओर ध्यान आकर्षित कर,
और आलोचनात्मक टिप्पणियां भेज कर ,सामान्य रचनाओं की इस संकलन में जगह नहीं रहेगी।पहले रचनाएं क्रोनोलोजिकल ओर्डर में नहीं होगी लेकिन उन्हें बाद मे क्रोनोलोजिकल ओर्डर में व्यवस्थित कर लिया जायगा। और फिर उसे पुस्तक रुप में प्रकाशित किया जायेगा!








 ऐन्टीकरेप्शन

मोहन राजेश  
   
     होटल के सभी कोनो पर रात गदरा गयी थी। ग्राहकों को खाने के साथ पीने को देशी_ विदेशी भी 'सर्व' की जा रही थी, एक कोने में जरा सी फुसफुसाहट हुई ।
वह आबकारी इन्सपेक्टर कह रहा था......यार कोई माल......वाल हो तो ......मैनेजर इधर -उधर कनखियों से देखते हुए फुसफुसाया, सर मिल तो सकता था, पर आज कल 'ऐन्टीकरेइशन' में नये ऑफीसर आये हैं, थोड़े दिन देखना पडेगा,
........दोनों का मुंह एक बारगी उतर सा गया,
थोडी ही दूर दूसरी सीट पर बैठा 'दूसरा' पैग खाली करते हुए गुर्राया, देखना क्या है ? अरेन्ज करो न । 'एन्टीकरेप्शन तो यहॉं बैठा है ।
........इन्सेपक्टर और मैनेजर के चेहरे खिल गये........ वे ही नए ऑफीसर थे, .....कुछ देर बाद वहॉं गंगा बही फिर बहती गंगा में हाथ धो लिये,

( अतिरिक्त-अंक ५ अगस्त १९७२)

 






कछुए
      
  भगीरथ 
   

संबधो का सौंदर्य सामाजिकता एवं नैतिकता पर निर्भर करता है, लेकिन उनकी ठोस नींव आर्थिक आधारों पर टिकी होती है। यह एहसास अनुभव के आधार पर परिपक्व होता गया । स्वार्थो को नैतिकता का जामा पहनाकर मुझ पर ओढा दिया गया था। मैं उस लबादे से मुक्ति चाहता था। मगर वह मुझे और दबोच लेता । 
       संबधों के निर्वाह में , सामाजिक जिम्मेदारियों और नेतिक मान्यताओं को ढोने में मेरी समस्त शक्ति खप जाती है , फिर भी संबधों के फोडे रिसने लगे, क्योंकि अर्थोपार्जन की मेरी अपनी सीमाएं थी और उनकी आकांक्षाएं सीमाहीन।
       मैनें कछुए की तरह अपने पॉंव अंदर समेटने आरम्भ कर दिए। चारों तरफ चारदीवारी , जिसकी खिडकियॉं भी नहीं खुलती थी। नितांत एकाकी जीवन ! एकाकीपन की ऊब । झुंझलाहट । क्रोध की एक तीव्र अनुभूति , जो केवल लिखे हुए कागज फाड ने तक सीमित है।
       सुनसान सडक पर रात गए घूमना। चौकन्ना बना देखा करता हूँ कि कहीं लोगों की ऑंखे मुझ पर न टिकी हों। लोग यह न समझें कि मैं अकेला हू।, रात में भटके जल पक्षी की तरह बेचारा!
       मैं लोगों की सहानुभूति का पात्र नहीं बनना चाहता। मैं हमेशा डरा करता हॅं कि कहीं कोई सहृदय (?) व्यक्ति मेरे पास पहुचंकर मेरे अंतरतम को छू न ले, क्योंकि मैं रोना नहीं चाहता।


( अतिरिक्त-अंक ४ मई १९७२)










Sunday, April 8, 2012

आठवे दशक की लघुकथाए -3



पेट का माप

सुशीलेन्दु  
      
       अफसर बोलता जा रहा था....हाइट पांच फीट छः इंच ....चैस्ट चौतींस छत्तीस.....वेट एक सौ पैतालींस पौंड ....क्वाइट फिट तुम इधर आ जाओ जवान।
युवक किनारे खिसक गया और चारों तरफ देख कर झिझकता हुआ बोला....सर
यस बोलों क्या बात है A
युवक सहमता हुआ बोला....सर आपने मेरी लम्बाई  सीना वजन आदि को मापा परंतु .... परंतु आप शायद मेरे पेट का माप लेना भूल गये, सर मैं तो केवल पेट भरने के लिए ही......वह आगे नहीं बोल पाया।
       ऑफीसर ने युवक को बड़े ध्यान से देखा और फिर हो - हो कर हॅंसते हुए बोला ....यहॉं सीना का माप लिया जाता है जवान  पेट का नहीं और सच तो यह हैA यंगमेन आज की दुनिया में कम से कम अपना पेट हो भी तो उन्हें मापा जाय आज तो हरेक इन्सान का पेट टुकड़ो  - टुकड़ो में बट कर बिखर चुका है ....उन्हें हम कहॉं ढूढते फिरें.....उन्हें कहॉं कहॉं खोज कर मापा जाय, युवक हक्का -बक्का सा ऑफिसर को देखता रहा जो अब दूसरे जवान के सीने पर टेप रख रहा था!


( अतिरिक्त-अंक ५ अगस्त १९७२)

¼ कात्यायनी'(लखनऊ, संपादक:अश्विनी कुमार द्विवेदी) के जून 1972 अंक में छपी थी। ½

Wednesday, March 28, 2012

तीन बदंर


आठवे दशक की लघुकथाए - 2





तीन बदंर

किशोर काबरा

                रात के अधंरे में गॉंधीजी के तीन बंदरों से मैंने कहा- देखो इस समय यहॉं देखने वाला कोई नहीं है और मेरी आत्मा अभी तक सोई नहीं है। मैं सोचता हूँ, तुम सब एक काम कर लो। युगों से एक ही मुद्रा में बैठे हो , अत: हाथ पैर फैलाकर थोड़ा - बहुत आराम करा लो।
वे जब नहीं माने तो मैं उनके पास गया। पर , सच कहता हूँ उन्हें देखकर मेरी सॉंस रूक गई।
अब एक बन्दर अंधा हो गया था !
और दूसरा बदंर अंधा और गूंगा हो गया था।
तीसरे को देखकर तो मेरा दुख और भी गहरा हो गया है। यह बेचारा दुख का मारा अंधा , गूंगा और बहरा हो गया है।

(गुफाओं से मैदान की ओर - 1974)


Thursday, March 8, 2012

चीख


चीख
सुदर्शी सौन्धी


मार्च की मस्त सुबह । चार बजे नामालूम सी धुंध । बादलों के पार से झांकता उजाला । उसने शाल कसकर अपने चारों तरफ लपेट लिया। पापा के कमरे की खिड़की खुल गयी है , थोडी ही देर बाद वे ओवरकोट पहनेंगे, फिर सिगार मुहॅं में दबाये सीढियों से नीचे उतर आयेंगे रोज की तरह वह मुस्करा देगी ठीक वैसे ही झुके -झुके जैसे अर्दली मुस्कराता है । क्या नहीं है उसके पास, एक आलीशान कोठी, दो दो इम्पाला , एक पापा की , एक उसकी । दो - दो टेलिविजन सेट, हिन्दी, पंजाबी अंग्रेजी, संस्कृत की सारी पुस्तकें सारे संदर्भ ग्रंथ .... । जरा घंटी दबाने पर नौकर हाजिर हो जाता है । पास ही पानी रखा हो तो भी वह खुद होकर तो पानी ले ही नहीं सकती। डनलप के गद्‌दों पर लेटे रहो या विलायती धुन पर घूमते रहो ... । या कामू काफ्‌का की किताबें पढते रहो ! एक सही अहसास । पूरी कालोनी में सबसे ऊंची और सबसे आलीशान कोठी है उसकी ... । होली है आज पर किसके साथ खेलें...पिछलें इक्कीस साल से यह दर्द उसे कुरेदता रहता है....किसी पडोसी बच्चे या समवयसा से गुलाल ही लगवा ले, पर पापा मानेंगे, उनकी नजर में तो सारे पडोसी बौने है , और पापा बौनों का साथ एक पल भी गवारा नहीं करते, उसे लगता है , वह चीख पडेगी वैसे ही , बेमतलब , फिजूल मे।

( अतिरिक्त-अंक ५ अगस्त १९७२)

Sunday, January 8, 2012

बैसाखियों के पैर


भगीरथ



वह अपनी टांगों के सहारे नहीं चलता था, क्योंकि उसकी महत्वाकाक्षाएं ऊँची थी क्योंकि वह चढ़ाइयाँ बड़ी तेजी में चढ़ना चाहता था , क्योंकि उसे अपनी टांगों पर भरोसा नहीं था क्योंकि वे मरियल और गठिया से पीड़ित थी ।

फिर भी , जिन दूसरी टांगों के सहारे चलता था , उन पर टरपेन्टाइन तेल की मालिश किया करता था ।उसके हाथ की माँसपेशियां खेता नाई की तरह मजबूत हो गई थी और शाम उनके टखने एवं ऊंगलियाँ चटखाया करती थीं ताकि विश्वास हो जाये कि कल भी ये टांगे उसका साथ देंगी । इतना कर चुकने के बावजूद उसका मन संशकित रहता , कक पता और बोलते वक्त भाषा उससे आगे निकल जाती । और वह फिर आशवस्त हो जाता कि एक वाक्य में चार बार हिनहिनाने से उसकी वैसाखियों में सुखद हरकत होने लगती है । आखिर उसे अपनी सारी दूरियाँ इन्हीं बैसाखियों से तय करनी हैं ।

वह इस बात को जानता है कि उसके सम्मान में उठे हाथ उसके लिए नहीं है पर वह यह भी जानता है कि यहाँ के लोग इसी भाषा को समझते हैं। निहायत दरबारी ।

वह जानता है जो सेनापति सेना की कमान सम्भाले है , उनसे सुरक्षा का वचन लेना है और उन्हीं की सहायता से अपने प्रतिद्धन्द्धी को पछाड़ना है ।

वह जानता है कि वह स्वयं अपने में कुछ नहीं है , और उसकी बैसाखियों को छीन लो तो वह धड़ाम से धूल में लोट जायेगा पर वह अपनी बैसाखियों को दूसरे के हाथों में नहीं जाने देगा ।

आज वह किले की हर बुर्ज पर मौजूद है । भव्य महल और मयूर सिहांसन की सुरक्षा के लिए बना है यह किला , जिसमें अब उसके लिए ‘श्री 1008 महाराजाधिराज’ की गुहार लगानेवाले मौजूद हैं ।

वह अपनी सफलता के जश्न का केक काटते हुए इस बात का ऐलान करता है कि उसके पैर निकल आए हैं - मजबूत और बलिष्ठ ।