Monday, October 20, 2014

आठवे दशक की लघुकथाए,

शीशा 

रमेश बत्तरा 

'सुनो कल रात मैंने स्वप्न में देखा की एक पर्स लेकर बाजार में घूम रही हूँ। '
'कल तुम शॉपिंग पर नहीं जा पायी थी न !'
'तुम्हीं ने तो रोक लिया था। '
'बस यही बात तुम्हारे मन में रह गई और तुम्हारा अवचेतन मन तुम्हें शॉपिंग पर ले गया। '
'पर,एक बात समझ नहीं आई की मैं नग्न ही क्यों घूम रही थी ?'
'क्या----कह ---रही  हो !'
'हाँ मैंने देखा कि मैं निर्वस्त्र हूँ और लोग मुझे घूर रहे हैं। '
'ओह -हो !तब तो तुम्हें बहुत शर्म आयी होगी ?'
'सच्च ,बहुत शर्म आयी। मेरा पर्स इतना गन्दा और फटा पुराना था जैसे कूड़े में से उठा कर लाया गया हो '
इससे पहले कि सामनेवाला उसका मुँह ताकता हुआ कुछ कह पाता उसने फैसला दिया की आज की शॉपिंग में
वह एक नया पर्स भी जरूर खरीदेगी।