Monday, December 21, 2015

आग्रह


सतीश राठी
सुनो ,माँ का पत्र आया है .बच्चों सहित घर बुलाया है ---कुछ दिनों के लिए घर हो आते है .बच्चों की
छुट्टियां भी है .पति ने कहा .
मैं नहीं जाऊँगी उस नरक में सड़ने के लिए .फिर तुम्हारा गाँव तो गन्दा है ही ,तुम्हारे गाँव के और घर
के लोग कितने गंदे है !पत्नी ने तीखे और चिडचिडे स्वर में प्रत्युतर दिया .
मगर तुम पूरी बात तो सुनो .पति कुछ हिसाब लगाते हुए बोले ,माँ ने लिखा है कि बहू आ
जायगी तो बहू को गले की चेन बनवाने की इच्छा है.इस बार फसल भी अच्छी है .
अब आप कह रहे हैं और मान का इतना आग्रह है तो चलिए ,मिल आते हैं और हाँ –फसल

अच्छी है तो मांजी से कहकर दो बोर गेहूं भी लेते आएँगे . पत्नी ने उल्लास के स्वर में कहा . 

Thursday, November 19, 2015

हराम का खाना














श्याम बिहारी श्यामल

चमरू की नवोढ़ा पतोहू गोइठे की टोकरी माथे पर लिए सामने वाली सड़क से जा  रही थी.रघु बाबू ने पत्नी से कहा –देखो मैंने कहा था न कि गरीबों की बहुओं को कोई क्या देखने जायगा !        वह तो दो चार दिनों में गोइठा चुनने ,पानी भरने के लिए निकलेगी ही .                     यह बात चमरू की पतोहू ने सुन ली .बात उसे लग गयी .                               
-हाँ बाबूजी ,हम लोग कोई हराम का तो खाती नहीं हैं कि महावर लगाकर घर में बैठी रहूँगी .काम  करने पर ही पेट भरेगा . चमरू की पतोहू ने रघु बाबू को सुनाकर कहा और पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ गई .                                                         
रघु बाबु सिठियाये से उसे जाते देखते रह गए .

Monday, September 7, 2015

ये पत्र ,ये लोग

ये पत्र ,ये लोग 

शशांक  आदर्श 


राधेश्याम के परलोक सिधारने के दो घंटे बाद उनके प्रिय भतीजे ने शोक विह्वल होकर दो पत्र लिखे ,पहला पत्र स्नेही जनों के नाम था -
"बंधु ,अत्यन्त दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि चाचाजी का देहावसान  हो गया है। हाय !अब मुझ अनाथ को कौन सहारा देगा। "
 तथा दूसरा पत्र अपनी प्रियतमा के नाम - "प्रिये ,चलो बुड्ढ़ा खिसका ,भगवान को लाख लाख शुक्रिया। जायदाद मेरे नाम हो गई है ,अब हम
शीघ्र ही शादी करने का विचार ले सकते है। "

Saturday, July 11, 2015

इज्जत

इज्जत
अंजना अनिल
खजानो बड़ी हडबडी में एक गठरी सी लेकर आँगन में आयी तो बेटे ने पूछ लिया –कहाँ जा रही हो माँ ? -कहीं नहीं ,तू यहीं बैठ .खजानो ने गठरी छुपा लेने की कोशिश करते हुए कहा –मैं अभी आती हूँ .—यह तुम्हारे हाथ में क्या है ?
-कुछ नहीं ....कुछ भी तो नहीं ! कहती खजानो चोर की तरह बाहर निकल गई .
गठरी में खजानो की दो पुरानी सलवारें और एक साडी थी .गली में आकर वह पड़ोस के मकानको घूर कर बुदबुदाने लगी ,--कमबख्त ! पता नहीं अपने आप को क्या समझते हैं ..हम गरीब सही पर किसी से मांग कर तो नहीं खाते ...कटोरी लेते हैं तो कटोरी दे भी देते हैं ...अपना ओढते है ...अपना पहनते हैं ..फिर भी इनकी नजर हम पर लगी रहती है ...मर तो नहीं गए हम ..अभी हिम्मत बाकी है .
दोपहर को खजानो अपने लापता पति को खोज खबर लेकर निराश सी वापस आ रही थी तो घर पहुंचते पहुंचते सोचा कि पड़ोसन से थोडा आटा मांग ले ताकि बेटे को तो कम से कम खिला पिला दे .परन्तु वह पड़ोसन कि दहलीज पर ही ठिठक गई .वो अपनी बर्तन मांजने वाली से कह रही थी –खजानो के घर को जानती हो,चार दिन से अंगीठी नहीं जली.
यह सच था मगर खजानो तिलमिला गयी थी .
वापिस आकर खजानो ने आखिर अंगीठी जला कर दहलीज पर रख ही दी .रसोई में पड़े टीन कनस्तर खाली भन भनारहे थे ...पर  अंगीठी थी कि पूरी तरह भभक रही थी .ऐसे में बेटे से रहा नहीं गया ,बोला –माँ पिताजी का कोई पता ठिकाना नहीं ..घर में कहीं अन्न का दाना नहीं दिखाई दे रहा ,तुझे फिक्र है क्या  ? बता अंगीठी पर क्या धरेगी ?
--बेवकूफ ! तमाचा जड़दिया खजानो ने उसके गाल पर .
--धीरे बोल ...इज्जत के लिए सब कुछ करना पडता है!


Tuesday, June 16, 2015

काला सूरज



काला सूरज

अनिल चौरसिया
-मैं सूरज हूँ .उन्होंने कहा .
कल्लू ने सोचा ,मुझे क्या एतराज हो सकता है .
नहीं शायद उसने कुछ नहीं सोचा. फालतू लफड़े में कौन पड़े ? उसे तो बस काम करना है .काम करता रहा .
अचानक उसे बीमारी ने आ घेरा .अजीब सी बीमारी –जबान को लकवा मार गया .उसने हिम्मत नहीं हारी .जबान का काम आँखों से लेना चाहा .आँखों की भाषा सुनना किसी के बस की बात नहीं .उन्होंने जब देखा कि अदना सा कल्लू दु:साहस करके जबान कि बजाय आँखों से बोलने कि कोशिश कर रहा है तो गुस्से में आकर उसकी आँखों कि रोशनी भी छीन ली .
कल्लू प्रसन्न था –अब केवल सुन सकता था .केवल सुनने वाले को हर कोई पसंद करता है ,पत्नी भी !उसने फिर सुना,कोई कह रहा था –मैं सूरज हूँ !
उसने देखना चाहा ,आँखों में कालापन  था .कहीं सूरज काला तो नहीं हो गया –शायद !
छोटी- बड़ी बातें संपादक महावीर प्रसाद जैन /जगदीश कश्यप (१९७९ )

Saturday, May 23, 2015

आठवें दशक की लघुकथाएँ

पहचान  
लक्ष्मेंद्र चोपड़ा
अंतिम यात्रा की तैयारियां हो रही थी। पूरा परिवार बहुत दुखी था। उसका दुःख देखकर तो अनजान भी दुखी हो जाता। वह जार जार रो रहा था ,
उसके जीवन का सब कुछ चला गया था। अपना होश हवास तक नहीं था उसे।
'चलो अंतिम दर्शन कर लो 'परिवार के बूढ़े पुरोहित ने अंतिम दर्शन की रस्में शुरू कर दी। पुरोहित श्लोक पढता जाता ;समझाता 'दुखी मत हो ,
बेटा पांव छू लो और हट जाओ.'आखिर वह भी दुःख से टूटा बेहोश सा आया। उसकी रुलाई थम नहीं रही थी।
पुरोहित की समझाइश सुनते ही चौंका ,सीधा तन के खड़ा हो गया,कड़क कर बोला -; बक रहे हैं पंडितजी मैं और इसके पाँव छूऊँगा अपनी
बीबी के ---आपका दिमाग तो ठीक है ?'  



(आठवें दशक की लघुकथाएँ संपादक सतीश दुबे प्रकाशन वर्ष 1979 )

Monday, February 9, 2015

·                     उसकी मौत
·                     मधुदीप
·                      
·                     लाल चौक के दायीं ओर दुकन के सामने बरामदेमें एक लाश पडी थी  आते- जाते लोग दो पल को कौतूहलवश वहां ठहर रहे थे।
·                     ;क्या हुआ   कैसे हुआ    पूछने पर  कोई स्थल दर्शक अपनी आवाज में दर्द घोलता है -राह चलते इस व्यक्ति को हार्ट अटैक हुआ।
·                     कोई कुछ करे इससे पहले ही इअसने यहां दम तोड दिया।
·                     ्काफ़ी समय बीत रहा है । एक विलाप करती हुई भीड लाश के चारों ओर एकत्रित होती जा रही है। छाती पीटकर विलापनेवाले
·                     लाश के निकट जोर-जोर से रोनेवाले,उनके पीछे और उदास चेहरा लटकाए अन्त में ! एक चक्रव्यूह-सा बनता जारहा है।
·                     शायद यह मृतक की पत्नी है जो छाती पीटती हुई विलाप कर रही है -हाय रे ! अब इन कच्ची कोंपलों को कौन सभालेगा  !
·                     निकट ही मृतक का बीस वर्षीय लडका मुंह लटकाए सोच रहा है -डैडी जिन्दा रहते तो अगले वर्ष उसकी बी ए पूरी हो जाती।
·                     अब न जाने---"
·                     छोटा लडका उदासी में डूब रहा है -पापा ने वायदा किया था कि इस वर्ष पास होने पर वे उसे साईकल ला देंगे मगर अब--'
·                        दूर उस कोने में खडा वह व्यक्ति जो मृतक को घूरते  हुए पहचानने का प्रयास कर रहा है ,चाय वाला है ।उसके मन में झल्लाहट
·                     उभर रही है-साला ! बाप की दुकान स्मझ कर रोज चाय डबल रोटी खाता था। बीस रुपये है पूरे     क्या अब इसकी मिट्टी से वसूल
·                     करूं ।
·                     सब अपने अपने में उलझे हुए है । शाम करीब आती जा रही है । मुर्दा चीख रहा है कि कोई उसे उठाकर श्मशान तक ले जाने

·                     की भी तो सोचे !