Saturday, December 28, 2013

अपनी बार


अपनी बार
पृथ्वीराज अरोडा
उसने दुखः और रोष में अपनी बडी बहन को लिखा—दीदी ! दो लडकियों के बाद लडका होने की हमें बहुत खुशी
है,परन्तु जो फ़ेहरिस्त तुमने बना भेजी है,वह सामान कहां से लाएं ! घर की हालत तुमसे छिपी हुई नहीं है।
फिर रीति-रिवाज तो आदमी के अपने ही बनाए हुए हैं, वह उसे तोड भी तो सकता है!
दो वर्ष बाद उसने अपनी मां को लिखा—मां ! जो कुछ मैंने लिख भेजा है वह सामान जरूर आना चाहिए 
पहला बच्चा  है –वह भी लडका । इधर बहुत बडा समारोह करने जा रहे हैं    मैं जानती हूं कि घर की हालत है
परन्तु किया भी क्या जाए, ये रीति-रिवाज तो निभाने ही पडते है !

(छोटी-बडी बातें 1978)