Wednesday, May 9, 2012

आठवें दशक की चर्चित लघुकथाएं



'ज्ञानसिन्धु' में एक श्रृंखला 'आठवें दशक की चर्चित लघुकथाएं"  आरम्भ करने जा रहे है ताकि पाठक व लेखक आठवें दशक के लघुकथा लेखन से परिचित हो सके तथा आज के लघुकथा लेखन से उसका तुलनात्मक अध्ययन कर सकें। और देख सके कि इस आन्दोलन ने क्या उपलब्धियां हासिल की है।इस श्रृंखला में आठवें दशक में प्रकाशित लघु कथा संकलनो,पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांको से विशिष्ट लघुकथाएं प्रस्तुत की जायगी। लघुकथांकों के अन्तर्गत हम निम्न को सम्म्लित कर रहे है, अतिरिक्त(1972-73) अंतर्यात्रा(1972 व1977)दीपशिखा(1973),सारिका(जुलाई 1973 व 1975),तारिका (1973),शिक्षक संसार (73 व 77) ,साहित्य निर्झर(जु1974),मिनियुग (1974),शब्द (1975),प्रगतिशील समाज(जून1975),अग्रगामी (जून1977),समग्र(1978),युगदाह(1979),नवतारा(1979),प्रतिबिम्ब(1979),ग्रहण(1979), कुरुशंख(1980),वर्षवैभव (1980), व  लहर (1980)।
सम्मिलित
लघुकथा संकलनों के अन्तर्गत-गुफाओं से मैदान की ओर (1974) सम्पादक-भगीरथ व रमेश जैन ,प्रतिनिधि लघुकथाएं(1976)सं-सतीश दुबे एवं सूर्यकांत नागर, श्रेष्ठ लघुकथाएं (1977) सं शंकर पुणतांबेकर, समान्तर लघुकथाएं(1977)सं-नरेन्द्र मौर्य/नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ,छोटी-बडी बातें(1978)सं-महावीर प्रसाद जैन/जगदीश कश्यप,युगदाह(1979) सं-प्रभाकर आर्य,आठवें दशक की लघुकथाएं(1979) सं-सतीश दुबे, व   तनी हुई मुट्ठियां(1980) सं-मधुदीप/मधुकांत के
अवलोकन के दौरान जो उत्कृष्ट कथाएं ध्यान मे आएगी उन्हें प्रकशित किया जायगा।कुछ एकल संग्रहों जैसे "सिसकता उजास" (1974) सतीश दुबे,"नया पंचतंत्र"(1974) रामनारायण उपाध्याय,मोह्भंग(1975)कृष्ण कमलेश;  "अभिमन्यु का सत्ताव्यूह"(1977) श्रीराम ठाकुर 'दादा'; कालपात्र (1979) दुर्गादुत्त दुर्गेश ;एक और अभिमन्यु(19790सनत मिश्र;नीम चढी गुरबेल(1980) श्रीराम मीणा को भी खंगाला जायगा।
समाचार पत्रो के लघुकथा परिशिष्ठ व उस समय की पत्र - पत्रिकाओं मे प्रकाशित श्रेष्ठ लघुकथाओ को भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जायेगा!
   उत्कृष्ट्र रचनाओं को पुन: प्रकाशित कर लेखकों एवं पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करना और उनपर आलोचनात्मक टिप्पणिया आमंत्रित करना हमारा उद्देश्य है ताकि आठवे दशक की बेहतरीन रचनाओं का संकलन प्रस्तुत किया जा सके।
मित्रों से आग्रह है कि इस कार्य में पूरा सहयोग दें सहयोग निम्न रुप से कर सकते है-लेखकों के फोटो भेज कर',विलुप्त अंकों की फोटो प्रति भेज कर,कोई स्रोत छूट गया हो उसकी जानकारी,अच्छी लघुकथा की ओर ध्यान आकर्षित कर,
और आलोचनात्मक टिप्पणियां भेज कर ,सामान्य रचनाओं की इस संकलन में जगह नहीं रहेगी।पहले रचनाएं क्रोनोलोजिकल ओर्डर में नहीं होगी लेकिन उन्हें बाद मे क्रोनोलोजिकल ओर्डर में व्यवस्थित कर लिया जायगा। और फिर उसे पुस्तक रुप में प्रकाशित किया जायेगा!








 ऐन्टीकरेप्शन

मोहन राजेश  
   
     होटल के सभी कोनो पर रात गदरा गयी थी। ग्राहकों को खाने के साथ पीने को देशी_ विदेशी भी 'सर्व' की जा रही थी, एक कोने में जरा सी फुसफुसाहट हुई ।
वह आबकारी इन्सपेक्टर कह रहा था......यार कोई माल......वाल हो तो ......मैनेजर इधर -उधर कनखियों से देखते हुए फुसफुसाया, सर मिल तो सकता था, पर आज कल 'ऐन्टीकरेइशन' में नये ऑफीसर आये हैं, थोड़े दिन देखना पडेगा,
........दोनों का मुंह एक बारगी उतर सा गया,
थोडी ही दूर दूसरी सीट पर बैठा 'दूसरा' पैग खाली करते हुए गुर्राया, देखना क्या है ? अरेन्ज करो न । 'एन्टीकरेप्शन तो यहॉं बैठा है ।
........इन्सेपक्टर और मैनेजर के चेहरे खिल गये........ वे ही नए ऑफीसर थे, .....कुछ देर बाद वहॉं गंगा बही फिर बहती गंगा में हाथ धो लिये,

( अतिरिक्त-अंक ५ अगस्त १९७२)

 






कछुए
      
  भगीरथ 
   

संबधो का सौंदर्य सामाजिकता एवं नैतिकता पर निर्भर करता है, लेकिन उनकी ठोस नींव आर्थिक आधारों पर टिकी होती है। यह एहसास अनुभव के आधार पर परिपक्व होता गया । स्वार्थो को नैतिकता का जामा पहनाकर मुझ पर ओढा दिया गया था। मैं उस लबादे से मुक्ति चाहता था। मगर वह मुझे और दबोच लेता । 
       संबधों के निर्वाह में , सामाजिक जिम्मेदारियों और नेतिक मान्यताओं को ढोने में मेरी समस्त शक्ति खप जाती है , फिर भी संबधों के फोडे रिसने लगे, क्योंकि अर्थोपार्जन की मेरी अपनी सीमाएं थी और उनकी आकांक्षाएं सीमाहीन।
       मैनें कछुए की तरह अपने पॉंव अंदर समेटने आरम्भ कर दिए। चारों तरफ चारदीवारी , जिसकी खिडकियॉं भी नहीं खुलती थी। नितांत एकाकी जीवन ! एकाकीपन की ऊब । झुंझलाहट । क्रोध की एक तीव्र अनुभूति , जो केवल लिखे हुए कागज फाड ने तक सीमित है।
       सुनसान सडक पर रात गए घूमना। चौकन्ना बना देखा करता हूँ कि कहीं लोगों की ऑंखे मुझ पर न टिकी हों। लोग यह न समझें कि मैं अकेला हू।, रात में भटके जल पक्षी की तरह बेचारा!
       मैं लोगों की सहानुभूति का पात्र नहीं बनना चाहता। मैं हमेशा डरा करता हॅं कि कहीं कोई सहृदय (?) व्यक्ति मेरे पास पहुचंकर मेरे अंतरतम को छू न ले, क्योंकि मैं रोना नहीं चाहता।


( अतिरिक्त-अंक ४ मई १९७२)