Thursday, November 17, 2011

साथ होकर भी दूर


संजय कुंदन॥



भारतीय दांपत्य जीवन की एक विचित्र बात यह है कि यहां पति-पत्नी में संवाद बड़ा कम होता है। गांवों में तो कुछ ऐसे पुराने जोड़े भी मिल सकते हैं, जिनमें जीवन भर एक-दो जरूरी वाक्यों को छोड़कर कभी बात ही नहीं हुई। हालांकि इस बीच उनके बच्चे भी हुए। वे बड़े भी हो गए। उनकी शादी भी हो गई। ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी में कोई तनाव या झगड़ा रहा। हो सकता है उनके भीतर एक-दूसरे के प्रति बड़ा प्रेम भी हो। लेकिन संवाद न के बराबर रहा है। ऐसे कुछ लोग शहरों में भी मिल सकते हैं। दरअसल सामंती मूल्यों वाले पारिवारिक ढांचे में स्त्री-पुरुष का संबंध कभी सहज नहीं रहा। स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति ही उसकी बुनियाद रही है। इसलिए स्त्री-पुरुष एक साथ रहते हुए भी दो अलग समानांतर दुनिया में जीते रहे हैं।

चहारदीवारी में जिंदगी

जिन संयुक्त परिवारों की महिमा का खूब बखान होता है, वहां स्त्रियों के लिए कभी कोई निजी स्पेस रहा ही नहीं। हालांकि वहां पुरुषों के लिए भी पर्याप्त पर्सनल स्पेस नहीं रहा, लेकिन उनके लिए बाहर की दुनिया खुली थी, जहां वे अपनी मर्जी से कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र थे। लेकिन उनकी स्त्रियों को तो चहारदीवारी ही नसीब हुई। चूंकि घर सामूहिक रूप से चलाया जाता था इसलिए किसी की कोई निजी जिम्मेवारी नहीं थी। बच्चों की देखभाल की चिंता करने की भी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि यह कार्य भी सामूहिक रूप से हो रहा था। ऐसे में शारीरिक जरूरत के अलावा अपनी पत्नी के पास जाने का कोई मतलब ही मर्दों के लिए नहीं था। अगर कोई पुरुष इस दायरे से बाहर निकलकर अपनी पत्नी से जुड़ने और अपने सुख-दुख साझा करने की कोशिश करता, तो वह उपहास का पात्र बनता था। हमारे उत्तर भारतीय समाज में पुरुषों के लिए 'घरघुसरा', 'जोरू का गुलाम' और 'मउगा' जैसे संबोधन संयुक्त परिवार के मूल्यों के तहत ही बने होंगे। चूंकि समाज स्त्री को बच्चा पैदा करने वाली मशीन या घर की सेवा करने वाले रोबोट की तरह देखता था, इसलिए वह पचा ही नहीं पाता था कि कोई आदमी अपनी पत्नी से भला क्यों घुल-मिल रहा है।

ऐसे परिवारों में स्त्री - पुरुष संबंध में खासा पाखंड रहा है। एक परिवार में पांच भाई हैं। पांचों शादीशुदा हैं लेकिन वे रात के अंधेरे में सबकी नजर बचाकर पत्नी से मिलने जा रहे हैं , जैसे यह कोई अपराध हो। मंुह अंधेरे ही उन्हें बाहर निकल आना होता था। यही नहीं , कोई आदमी सबके सामने अपने बच्चे को प्यार तक नहीं कर सकता था। हम इस बात पर गर्व करते हैं कि भारत में वैवाहिक संबंध अटूट रहा है , उसमें पश्चिम की तरह कभी बिखराव नहीं आया। लेकिन गौर करने की बात है कि भारतीय दांपत्य कुल मिलाकर स्त्री के एकतरफा समझौते पर टिका हुआ है। जब एक पक्ष को कुछ बोलने की , अपनी अपेक्षाएं रखने की आजादी ही न हो तो तकरार की गुंजाइश क्यों होगी। वैसे जॉइंट फैमिली के खत्म होने के बावजूद संवादहीनता की समस्या खत्म नहीं हुई है। एकदम नई पीढ़ी को छोड़ दें तो आज शहरों में जो पढ़े - लिखे जोड़े हैं , उनमें भी डॉयलॉग की कमोबेश वही कमी बरकरार है। लेकिन इसका कारण समयाभाव नहीं है।



शैक्षिक और सामाजिक विकास के बावजूद पुरुषवादी मानसिकता पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। आज भी मर्द स्त्री को बराबरी का दर्जा देने के लिए मन से तैयार नहीं हैं। अब जैसे कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि ' पत्नी को हर बात नहीं बतानी चाहिए। ' शायद इसी आग्रह के कारण कई लोग दफ्तर की बात घर में नहीं करते। नौकरी हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। कोई व्यक्ति इसके तनावों , द्वंद्वों को पत्नी से शेयर नहीं करेगा तो किससे करेगा ? हो सकता है आपसी बातचीत में कोई रास्ता निकले। लेकिन लोग ऐसा नहीं करते क्योंकि वे पत्नी को इस लायक मानते ही नहीं कि उससे मिलकर कोई हल निकाला जा सके। पुरुष सोचता है कि उसकी पत्नी खाना बनाए , घर सजाए और बच्चों की देखभाल करे , भले ही वह नौकरीपेशा क्यों न हो।



वह दोस्त क्यों नहीं

कई विवाहित लोग एक महिला मित्र की तलाश में लगे रहते हैं। इसके पीछे उनकी दलील यह होती है कि चूंकि उनकी पत्नी बहुत सी चीजों में दिलचस्पी ही नहीं लेती इसलिए उन्हें एक ऐसे दोस्त की जरूरत है कि जिससे वे मन की बात कह सकें। दिक्कत यह है कि पुरुष अपनी पत्नी को दोस्त का दर्जा देने को तैयार ही नहीं है। वह मानता है पत्नी अलग होती है , दोस्त अलग और प्रेमिका अलग। लेकिन अब स्त्री पहले की तरह मजबूर नहीं रही इसलिए वह चुप रहने के बजाय आवाज उठाती है। इस कारण दांपत्य जीवन में तनाव आने लगा है। अगर पत्नी भी दोस्त बन सके तो शायद वैवाहिक संबंधों में मजबूती आएगी।





Tuesday, October 11, 2011

अबीज

        











  पूरन  मुदगल


अजनबी ने गेहूं की एक पकी बाल तोड़ी।

''बहुत मोटी है यह बाल।'' उसने किसान से कहा । किसान ने बाल से कुछ दाने निकालकर अपने हाथ पर रखे    और बेमन से कहा, ''देखो''

देखते -देखते सब दाने दो - दो     टुकड़ो      में खिल गए। अजनबी हैरान हुआ, पूछा, ''ये दाने साबुत क्यों नहीं रहे ? ''

''यह नए बीज की फसल है । पिछले पांच सालों से हम यही खा रहे हैं।चार -पांच गुना झाड है इसका, लेकिन....''

किसान के चेहरे पर अनजाने में किसी गलत दस्तावेज पर किए दस्तखत जैसी लिखाई उभरी।

''क्या ....?
''यह बीज विदेशी हैं।मेरे बेटे इसे बाहर से लाए है। इसकी फसल तो अच्छी होती है , पर बीज के काम नहीं आती।''

क्यों ?''
''देखा नहीं तुमने ! बाल से निकलते ही हरेक दाने के दो   टुकड़े  हो जाते हैं। मेरे लडके निक्का और अमली चोरी छिपे ले आते हैं यह बींज''  
''लेकिन जिस फसल से बीज न बने , वो किस  काम की !किसी  साल  विदेश से बीज ने आया तो......? अजनबी ने वही बात कह दी जो किसान की परेशानी की बायस बनी हुई थी। लोग फसल काटने में व्यस्त थे। निकट ही हवा में तैर रही ढोल की आवाज किसान को अप्रिय लगी। वह अपनी हथेली पर रखे गेंहू के    टुकड़ा  -टुकड़ा  दानों को देखने लगा, जिनका धरती से रिश्ता  टूट गया था।

Friday, September 9, 2011

मानसिक व्यभिचार

 अन्तरा करवड़े



अपने अकाउंट से लॉग आउट होते हुए रीटा पसीना पसीना होने लगी। कौन हो सकता है ये परफेक्ट गाय? उसकी कुछ बातों पर ही¸ आवाज के अंदाज पर ही उसे अपना मान बैठा है। कुछ क्षणों के लिये उसके मस्तिष्क में नीली सपनीली आँखों वाला एक गोरा चिट्‌टा¸ गठीला युवक अलग - अलग कोणों से आता - जाता रहा। अनजाने ही रीटा के चेहरे पर मुस्कान आती रही।

और फिर अचानक वो परफेक्ट गाय¸ अभिषेक में बदल गया। अभिषेक¸ उसका मंगेतर!

अपने मन में विचारों का तूफान लिये वह घर पहुँची। अपने कमरे की शरण ली। अभिषेक¸ उसका मंगेतर¸ दूसरे शहर में नौकरी करता है। ऑफिस में काम करते वक्त ऑनलाईन रहता है। रीटा उसी से वॉईस चैट करने के लिये कैफे गई थी। उसके लिये अभिषेक ने मैंसेज छोड़ रखा था। वह एक घण्टे के लिये मीटींग में व्यस्त था और ऑनलाईन होते हुए भी उससे संपर्क नहीं कर सकता था।

तभी रीटा के मैंसेंजर पर एक अनजान संदेश उभरा।

"हैलो स्वीटी!"

यही था परफेक्ट गाय! रीटा का लॉगिन नेम था स्वीट सॅन्योरीटा।और फिर थोड़ी बहुत पूछ ताछ के बाद उसने रीटा को वॉईस चैट के लिये राजी कर लिया। उसकी बातचीत¸ आवाज¸ लहजे की तारीफें करता हुआ वह दस मिनट में ही दिल¸ ईश्क¸ प्यार¸ मुहब्बत तक पहुँचते हुए उसे प्रेम प्रस्ताव देने पर उतर आया।

बिना देखे सोचे उत्पन्न हुए इस प्रेमी के लिये रीटा तैयार नहीं थी। कई बार उसने लॉगआऊट होने का सोचा लेकिन सहेली मोना क वाक्य याद आने लगे। "यदि कोई पीछे पड़ा ही है तो थोड़े बहुत मजे ले लेने में क्या हर्ज है?" और रीटा बह चली थी। उस वक्त उसके मन से अभिषेक जाने कहाँ गायब हो गया था। लेकिन जब यह परफेक्ट गाय उसका शहर¸ नाम¸ पता¸ फोन नंबर पूछकर घर आने की जिद पर अड़ गया तब रीटा को होश आया। ये क्या कर रही थी वो?

किसी तरीके से बहाने बाजी करते हुए उससे छुटकारा पाया और अब अपने कमरे में बुत सी बनी बैठी थी।


उसी समय घर के सामने से जय जयकार की आवाजों के साथ ही एक स्वामीजी की पालकी निकालने लगी। रीटा ने ध्यान से देखा। ये वही स्वामीजी थे जो कहने को तो ब्रम्हचारी थे लेकिन सदा औरतों की ओर ही ध्यान लगाए रखते। कॉलेज के दिनों में इनके कितने ही किस्से मशहूर थे।

इन्हीं किस्सों को सुनते सुनाते एक दिन रीटा की माँ के मुँह से निकाला था¸ "सब कुछ मन¸ वचन¸ कर्म से हो तो ठीक है। फिर चाहे ब्रम्हचर्य हो या गृहस्थी।"

रीटा का मन उसे अपराधी की भाँति कटघरे में खड़ा कर रहा था। वो स्वयं क्या कर रही थी?

भले ही अभिषेक को कभी कुछ मालूम नहीं होगा... लेकिन मन में बात तो आई ना?

दूसरे ही दिन उसने अभिषेक को मेल किया। "मैंने अपना लॉगिन नेम "स्वीटसैन्योरीटा" से बदलकर "रीटाअभिषेक" कर लिया है।"


गद्यकोश से साभार

Monday, August 22, 2011

महानगर की डायरी



हमारा प्यारा सा छोटा¸ सुंदर परिवार है। यानी मेरे पति¸ चार साल का बेटा अभि और मैं। और हाँ अभि के दादा भी हमारे ही साथ रहते है। मैं थोड़ा गलत बोल गई। इतना भी छोटा परिवार नहीं है हमारा। मेरे पति तो दिन भर काम में व्यस्त रहते है। वो एक्सपोर्ट का बिजनेस है ना हमारा। कस्टम वालों से लगाकर टैक्स अथॉरिटीज सभी के साथ अच्छी सेटिंग है इनकी। मैं अपनी सहेलियों के साथ जिम¸ किटी और क्लब की एक्टीविटीज में ही इतना थक जाती हूँ कि हफ्ते में दो तीन बार तो हम बाहर ही खा लेते है।


अभि के दादाजी को नहीं भाता ये सब। अब बाहर जाएँगे तो साढे ग्यारह बारह से पहले लौटेंगे क्या? उनके लिये पॅक्ड डिनर ले आते है। कभी खाते है तो कभी वैसा ही पड़ा रहता है।

बदादा को मेरा घर में किटी करना¸ टीवी पर सीरियल देखना¸ कॉकटेल पार्टीज में जाना और यहाँ तक कि नॉन वेज और ड्रिंक्स तक लेना भी पसंद नहीं है। हद होती है दकियानूसी सोच की भी । आखिर कोई किसी की लाईफस्टईल में¸ जीने के तरीके पर तो पेटेंट नहीं रख सकता न?

आप ही बताईये जब वे घर में जोर जोर से मंत्रा बोलकर हमारी मॉर्निंग स्लीप में दखल देते थे¸ धूप जलाकर मेरे सारे इम्पोर्टेड कर्टन्स खराब कर दिये उन्होने¸ अभि के बर्थडे पर उसे गंदे आश्रम के बच्चों के पास ले जाने की जिद करने लगे थे¸ अपनी पत्नी की धरोहर के नाम पर तीन पेटियों की जगह घेरे हुए रहते है तब हम उन्हें कुछ भी कहते है क्या?



कई बार मेरा दिमाग खराब होता है लेकिन अभि के पापा सब कुछ समझते है। वे तो दादा से ज्यादा बातें भी नहीं करते। उन्होने मुझे बता रखा है कि मरते समय उनकी माँ को उन्होने वचन दिया है इसलिये दादा को वृद्धाश्रम में नहीं रख सकते। अब आखिर मैं भी तो भारतीय नारी हूँ। कुछ तो ख्याल रखना ही पड़ता है ना पति की इमोशन्स का।

लेकिन दादा ने उस दिन तो हद ही कर दी थी। दिवाली पर मैं नौकरानियों के लिये कुछ सामान लाने बाजार ही नहीं जा पाई थी। सोचा कि अपनी सासूजी की पुरानी धुरानी सड़ियों के बंड़ल में से चार पाँच निकाल कर उन्हें दे भी दूँगी तो काम चल जाएगा। दादा टहलने गये थे और मैंने अपना काम कर ड़ाला था। लेकिन अभि! आखिर बच्चा ही तो ठहरा¸ सो इनोसेंट ही इज। उसने दादा को बता ही दिया कि मैंने दादी की साड़िया रमा¸ ऊमा¸ पारो और सविता को दी है। फिर क्या था¸ वे मुझसे¸ रियली मुझसे ऊँची आवाज में बातें करने लगे थे।

पता नहीं कौन सी पास्ट हिस्ट्री बताते रहे थे। पुराना वैभव और क्या - क्या। तब मैंने उन्हें अभि के पापा वाली बात बता ही दी थी कि

"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।" और पता नहीं क्यों वे छाती मलते हुए से हमेशा की तरह नाटक करते बैठ गये थे।


और सच बताऊँ अभि ने ये भी सुन लिया और तो और मेरी सारी एक्सप्रेशन्स को वह बखूबी इमीटेट करने लगा है आजकल। उसे ना मेरा वर्ड "धर्मपत्नी" बड़ा अच्छा लगा था। कहता था "ममा आप तो बड़ा ही अच्छा मदर टंग बोलती है।" अभि के पापा का मूड थोड़ा सा ऑफ जरूर हुआ था लेकिन जब अभि ने मेरा डायलॉग वैसे ही एक्सप्रेशन्स के साथ बार - बार दोहराया तब ही ऑल्सो एन्जॉइड लाईक एनीथिंग।

फिर तो जब भी दादा खाना खाने बैठते¸ अभि उनके आगे पीछे दौड़ता हुआ यही डायलॉग बोलता रहता। लेकिन कितने रूड व्यक्ति थे वो। मैंने तो सुना है और देखा भी है कि दादा दादी को अपने नाती पोतों से कितना प्यार होता है लेकिन यहाँ दादा तो बस एक्सप्रेशनलेस होकर बैठे रहते थे।

साल का ये दिन मुझे बड़ा बोरिंग लगता है यू नो। मेरी सासू माँ की बरसी। अब आप ही सोचिये कि जिस लेड़ी को मैं ठीक से जानती भी नहीं उसके लिये ये सारा कुछ करने की एक्सपॅक्टेशन मुझसे क्यों की जाती है? पता नहीं कौन कौन से बूढ़े और बोरिंग व्यक्ति आ जाते है इस दिन। और इतना खाते है कि पूछिये मत। और तो और सभी गँवारों के जैसे नीचे बैठकर खाते है। और हमारे दादा! उनकी तो पूछिये मत। प्ताा नहीं हमारे बारे में इन सभी लोगों को क्या क्या बताते रहते है।

इस सब चक्कर में अभि के पापा को घर पर रहना होता है और उनका बिजनेस लॉस होता है सो अलग। लेकिन कौन इन्हें समझाए। देखिये कैसे बैठे है सभी। छी! मुझे तो उनके सामने जाने की इच्छा भी नहीं होती। उसपर आज साड़ी पहननी पड़ती है सो अलग। अभि को तो मैं उसकी नानी के यहाँ भेज देती हूँ हमेशा लेकिन इस बार जिद करके रूका है वो यहाँ। मैं ध्यान रखती हूँ कि वो इनमें से किसी भी आऊट ऑफ डेट पीस के पास न चला जाए। ऐसा लग रहा है कि कब ये लोग एक बार के जाएँ यहाँ से और मैं साड़ी की जगह ढीली नाईटी पहनू।

लेकिन उस दिन आराम तो था ही नहीं जैसे किस्मत में। सबके साथ दादा खाने बैठे थे। वही हमेशा की आदत! सासू माँ के "चरित्र" का गुणगान! वे खाना अच्छा बनाती थी¸ वे मेहमाननवाजी अच्छी करती थी¸ उनके जाने के बाद तो जैसे घर में जान ही नहीं रही आदी आदी। और जानते है उतने में क्या हुआ? अभि वहाँ पहुंचा और उसने अपना वही डायलॉग सबके बीच में दादा पर मारा। उसका प्रेजेन्स ऑफ माईंड भी लाजवाब है।

"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।"

लेकिन दादा हमेशा की तरह तटस्थ नहीं बैठे रहे। वे गिर पड़े थे अपनी जगह पर ही।


खैर... हमें डॉक्टर ने बताया कि किसी शॉक के कारण ही हार्ट फेल हुआ है। अब जो आदमी इस दुनिया में ही नहीं रहा उसके लिये कोई कहाँ रूकता है भला। उन्होने उनका अंतिम संस्कार काशी में करवाने का लिखा था। हमने रमाबाई और उसके पति को टिकट निकालकर दे दिया था संस्कार कर आने के लिये। फिर हम प्लांड़ केरला ट्रिप पर गये। कितना फ्रस्ट्रेशन आया था अभि के पापा को। उससे बाहर निकलना भी तो जरूरी था।

अभि अपने साथ दादा का पुराना फोटो भी लाया था। एक दिन मैं और उसके पापा रिसोर्ट के लॉन में कॉफी पी रहे थे। उनका मूड थोड़ा ऑफ था। अभि भी कमाल का लड़का है हाँ। दादा का फोटो हमारे सामने रखा और कहने लगा¸


"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।"


हमारा हँसते - हँसते बुरा हाल था...

गद्यकोश से साभार


Thursday, August 11, 2011

डा. उमेश महादोषी की लघुकथा

 






भू-मण्डल की यात्रा


हरीचन्द जी ने जैसे-तैसे साल भर से बन्द पड़े मौके-बेमौके काम आ जाने वाले छोटे से पैत्रिक घर का दरवाजा खोला। एक कोने में पड़े पुराने झाड़ू से जाले और फर्श को किसी तरह थोड़ा-बहुत साफ किया, पुराने सन्दूक से पुरानी सी चादर ढूँढ़कर फर्श पर बिछायी, और लेट गये। आज शरीर ही नहीं, उनका मन भी पूरी तरह टूटा हुआ था। नींद आने का सवाल ही कहां था, किसी तरह बेचैनी को सीने में दबाकर आँखे मूँद लीं। एक-एक कर जिन्दगी की किताब के पन्ने खुद-ब-खुद पलटते चले गये...।

बचपन में ही माता-पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद कितनी मेहनत करके पाई-पाई जोड़कर उन्होंने वह सुन्दर-सा घर बनाया था, एक दुकान भी कस्बे के मेन बाजार में खरीदकर अपना कारोबार जमाया था। बेटे अर्जुन को भी बी.टेक. की शिक्षा दिलवा ही दी थी। ग्रहस्थी की पटरी लाइन पर आने के साथ थोड़े सुख-सुकून के दिन आये ही थे, कि पत्नी उर्मिला दुनियां से विदा हो गई। उसके जाते ही जैसे उनकी दुनियां उजड़ने लगी। छः माह भी न हुए थे कि अर्जुन ने लन्दन से एम.एस. करने की जिद ठान ली थी। बहुत समझाया था उसे- ‘बेटा तू इतनी दूर परदेश में होगा, जरूरत पड़ने पर किसे तू याद करेगा और किसे मैं। यहां अपने देश में कम से कम एक-दूसरे का सहारा तो है। फिर आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि विदेश का खर्चा वहन किया जा सके....। पर बेटे के तर्को के आगे वह विवश हो गये थे- ‘पापा कैसी बातें करते हो आप! आज जितनी देर हमें अपने प्रदेश की राजधानी पहुँचने में लगती है, उससे कम समय में लन्दन पहुँचा जा सकता है। आज सारी दुनियां सिमिटकर छोटा सा गांव बन गई है। रोज हम आपस में टेलीफोन पर बात कर लिया करेंगे। जरूरत पड़ने पर कितनी देर लगेगी यहां आने में। रही बात पैसों की, तो आपके अकेले के रहने के लिए पुराना घर काफी है। इस नये घर को बेच देते हैं, अच्छी खासी रकम की व्यवस्था हो जायेगी। फिर मैं वहां कोई पार्ट टाइम जॉब भी कर लूँगा। दो साल के बाद तो मुझे अच्छा और स्थाई जॉब मिल ही जायेगा, तब आप भी वहीं हमारे साथ रहेंगे। क्या जरूरत रहेगी इस छोटी-मोटी दुकानदारी की? आप तो पूरे भू-मण्डल की यात्रा करना....’। और हुआ भी वही, मकान बेचा और बेटे ने सीधे लन्दन का टिकिट.....।

पूरे दो साल बाद एक दिन अचानक अर्जुन भारत यानी पापा के पास आया। ‘पापा मुझे लन्दन में ही एक बड़ी कम्पनी में बहुत अच्छी स्थाई नौकरी मिल गई है। आपको भी मेरे साथ ही चलना होगा। वहां मैंने एक फ्लैट भी देख लिया है, उसके लिए थोड़े पैसों की जरूरत भी है। अब आपको दुकानदारी की जरूरत तो रही नहीं और यहाँ इण्डिया में हमें आना भी नहीं है, इसलिए दुकान और पुराना घर भी बेच दो। इससे फ्लैट के लिए जरूरी पैसों की व्यवस्था हो जायेगी। फ्लैट रूबिया को बेहद पसन्द आया है, आपको भी अच्छा लगेगा.....।’

झटका ता लगा था, पर जैसे-तैसे अपने-आपको सम्हालकर पूछा था- ‘ये रूबिया कौन है, कहां की रहने वाली है, क्या करती है और तेरा क्या रिश्ता है उससे?’

‘पापा, वो मेरी कम्पनी में ही जॉब करती है। रहने वाली पाकिस्तान की है। हम दोनों एक दूसरे को बहुत पसन्द करते हैं, आपको भी अच्छी लगेगी। आपके वहाँ चलते ही हम शादी कर लंेगे......।’ तब भी कितना समझाया था- ‘बेटा तू अपनी नौकरी कर और मुझे यहीं मेरे वतन में रहने दे। फ्लैट साल-दो साल बाद भी तू ले सकता है। जहाँ तक बात बेटा एक पाकिस्तानी लड़की से शादी करने की है, सो यह ठीक नहीं रहेगा। अलग-अलग धर्मों का होने पर एक बार निर्वाह हो भी जाये, पर साथ में तुम दोनों का सम्बन्ध दो अलग-अलग ऐसे देशों से है, जिनकी पारस्परिक विरोध की जड़ें बहुत गहरी हैं। और दोनों देशों के निवासियों की अपने-अपने देश के साथ आस्थाएं और भावनाएं भी उतनी ही गहरी हैं। इसलिए तुम दोनों और दोनों के पारिवारिक जनों के बीच ऐसे बहुत सारे मौके आ सकते हैं, जब जाने-अनजाने इन आस्थाओं और भावनाओं के चलते एक-दूसरे को समझना और सहन कर पाना असम्भव हो जायेगा। इसलिए मेरी सलाह यही है कि एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक लगाव को सिर्फ दोस्ती तक ही रहने दो....।’

पर अर्जुन कहाँ सुनने वाला था। ‘पापा, फिर वहीं घिसी-पिटी बातें लेकर बैठ गये। दुनियां बहुत बदल गई है, आज हम देशों की सीमाओं से बहुत ऊपर उठ चुके हैं। न रूबिया पाकिस्तान की बन्धुआ है और न मैं हिन्दुस्तान का। पापा आप भी इन संकुचित सीमाओं से ऊपर उठ जाओ। हमारा देश पूरी दुनियां है........।’ लम्बा सा भाषण दे डाला था, अर्जुन ने। हरीचन्द जी की एक न चली, किसी प्रकार बेटे को समझा-बुझा कर इस पैत्रिक मकान को न बेचने पर ही राजी कर पाये थे। दुकान पड़ोसी लाला भीम सिंह जी को बेची और फिर वही हुआ, जो बेटे ने चाहा। एक साल भी नहीं बीता, कि परसों वो निष्ठुर दिन भी हकीकत बनकर सामने आ गया, जिसकी आशंका वह व्यक्त कर चुके थे।

अर्जुन के दोस्त वरुण के पापा हरेन्द्र जी घर आये थे उनसे मिलने। हमवतन और हमउम्र से मिलकर बातों में दोनों भूल ही गये कि वे लन्दन मंे बैठे हैं। उसी दिन दुर्भाग्य से आतंकियो ने मुम्बई पर हमला कर दिया। इस हमले की खबर टी.वी. पर देखी-सुनी तो चर्चा का बिषय बदल गया। चर्चा के बीच में पाकिस्तान और उसकी पाकिस्तानियत कब आ गई, पता ही नहीं चला। यह भी याद नहीं रहा कि घर में पाकिस्तानी बहू बैठी है। हरेन्द्र जी के घर में रहते हुए तो कुछ नहीं हुआ, पर उनके जाते ही क्या कुछ नहीं हुआ....! ‘मेरे घर में रहकर मेरे ही ऊपर अविश्वास करते हो? यदि विश्वास नहीं था तो शादी क्यों की थी बेटे के संग? बुड्ढे अब मैं तुझे एक दिन भी नहीं रुकने दूँगी यहाँ.....।‘ तमाम मिन्नतों के बावजूद बहू ने अर्जुन के दो दिन बाद आफीशियल टूर से लौटने तक भी घर में नहीं रूकने दिया। एजेन्सी से एयर टिकिट मंगाकर हवाई जहाज में बैठाते हुए उसने एक बार भी नहीं सोचा कि ये इस उम्र में भारत जाकर भी किसके सहारे और कैसे अपना जीवन बसर करेगा.......! सोचते और आँसू बहाते हरीचन्द जी की आँख कब लग गई, पता ही नहीं चला। और जब आँख खुली तब अगले दिन का सूरज भी सिर चढ़ रहा था।

थोड़ी देर के लिए वह फिर उन्हीं विचारों में खोने लगे। पर अचानक उन्होंने अपने आँसू पोंछ डाले, ‘बहुत मान ली बेटे की जिद। अब और नहीं....! जीविका का अपना कोई साधन नहीं है तो क्या, लाला भीम सिंह जी से मिलूँगा, भले आदमी हैं, अपनी दुकान पर सेल्स मेन तो रख ही लेंगे।....न...नहीं, जिस दुकान का मालिक था, उस पर नौकर.... अरे! काहे की शर्मिन्दगी.... भू-मण्डल की यात्रा की इतनी कीमत तो......!’

Thursday, July 21, 2011

रघुनाथ मिश्र की चुनी हुई गजलें



रघुनाथ मिश्र को गीत
 चान्दनी हैदराबाद  द्वारा
                                 निराला  सम्मान                                        

 बधाईया




                                                                                      
                 1                                                                                               रघुनाथ मिश्र  



वक्त से पैगाम लो



सच असच पहिचान लो

थक चुका मस्तिष्क यदि

सिर्फ दिल से काम लो

बच सके यदि जन हजारो

अपने सर इल्जाम लो

मत मरो औलाद बिन

गोद में अवाम लो


2


शब्द मूल्यहीन हो गया

शिल्प कथ्यहीन हो गया

कल तलक था जो नया -नया

आज वो प्राचीन हो गया

हद से बढ़ गई गिरावटे

आसमां जमीन हो

क्या तरक्कियों का दौर है

आदमी मशीन् हो गया


आम आदमी डरा डरा

डर भी यह युगीन हो गया

हर किसी की जान पै पड ी,

कुछ को जग हसीन हो गया।

Wednesday, July 6, 2011

दर्पण के अक्स

दर्पण के अक्स
आभासिंह

पत्नी अपने बच्चों में गुम हो गयी और बच्चे अपने परिवारों में । रह गया वह । दिनभर की जी तोड़ मेहनत से व्यवसाय सम्भालता । शामें रातें सूनी हो गयी । अकेलेपन की बेबसी को दूर करेन के लिए उसने कम्प्यूटर की शरण ली। 'इन्टरनेट' पर 'चैटिंग'' का चस्का लगते भला क्या देर लगती । नये -नये अछूते संसार में विचरण करता वह अति व्यस्त हो गया । हर पन्द्रहवें बीसवें दिन एक नई लड की से बातचीत करना। अंतरगता के दबे - छिपे कोनों तक पहुंच बनाना। अपने भीतर उछलती उत्तेजना को महसूस करना। बेवकूफ बना पाने की अपनी कुद्गालता पर कुटिलता से मुस्कुराना ।

इस बार भी वह इंटरनेट बंद करके लिप्सा से मुस्कुराया। सोलह साल की लड की की लहकती आवाज में नरम सा प्रेमालाप उसके कानों में रस घोल रहा था। उसने ऐनक उतारी । खुरदरे हाथों से माथा सहलाया और खुमारी में डूबा - डूबा बिस्तर में जा धंसा।

उधर भी उस सोलह बरस की लडकी ने इंटरनेट बंद किया। ऐनक उतार कर मेज पर रख दी। लहकती आवाज में गुनगुनाना शुरू कर दिया । रैक से झुर्रियॉं मिटाने की क्रीम को हल्के हाथों चहरे पर लगाने लगी । खिचडी बालों की उलझी लटों को उंगलियों से सुलझाया । बेवकूफ बना पाने की अपनी कुशलता पर मंद -मंद मुस्कायी और खुमारी में डूबी-डूबी बिस्तर में जा धंसी।

Monday, May 30, 2011

महेन्द्र नेह की कविताए

            नया विहान



नदियॉं कहीं भी बहती हो


दरख्त कहीं भी खड़े हों

शब्द किसी भी भाषा के हों

कीमतें सभी की अंकित हो चुकी हैं

वैब साइट पर

कीमतें तय कर दी गई हैं

बशर्ते कीमतों का औचित्य

समय रहते समझा जा सके

और अपनी -अपनी कीमत पर

बिना किसी ना नुक्कार के सहमति के

अँगूठे लगा दिए जाएं

कीमतों का नया विहान आ गया है।

सुनहरी विदाइयों , कारखानों, दफ्तरों, खेतों मे

सामूहिक हाराकीरी का

नया विहान आ गया है

अपनी भव्यता और दिव्यता के साथ दिपदिपाता

नए साजों के साथ थिरकने का

सुनहरी विदाइयों और सामूहिक हाराकीरी पर

जश्न मनाने का

सगे सबंधियों , भाइयों , दोस्तों

पडोंसियों और महबूब को मिटते

उजडते हुए देखने का

रंगीन पृष्ठों और

सूचना तंत्र की कौतुकी दुनिया में

डुबकियॉं लगाने का

नया विहान आ गया है

कीमतें सभी की अंकित हो चुकी है

वैब साइट पर।
 

सब कुछ ठीक-ठाक नहीं
सब कुछ ठीक ठाक नहीं

हर एक खत की शुरूआत

आखिर कब तक

उसी रिवायती तर्ज पर?

अपने ही आत्मीयों

परिजनों से

बरसों -बरस से

एक फरेब ?

''सब कुछ ठीक -ठाक है यहॉं''

''कुशलपूर्वक हैं सब''

''सब स्वस्थ व सानंद है यहॉं''

कब तक

दोहराए जाते रहेंगे

ये आप्त वाक्य?

लिखो कि

अब तक जो कुछ लिखा

सही नहीं था

लिखो कि

कर्ज के भीषण बोझ से

दबे हुए हो तुम

लिखो कि

तुम्हारे घर में

एक बेटी होती जा रही है जवान

और अब उसकी

सही उम्र को

समाज में छुपाना

नहीं रहा मुमकिन

लिखो कि

ऊपर से शांत दिखनेवाले

तुम्हारे घर में

हमेशा मचा रहता है -एक कोहराम

लिखो कि

लाख कोशिशों के बावजूद

बेरोजगारी की आग में

झुलस रहा है तुम्हारा जवान बेटा

लिखो कि

वह देर रात लौटता है घर

लिखो कि तुम्हारे पूरे परिवार की

नींद गायब हे लंबे समय से

लिखो कि

लाइलाज बीमारियों से

घिरता जा रहा है

तुम्हारा समूचा परिवेश

लिखो कि

तुम्हारा स्वयं का काम भी

नहीं रहा सुरक्षित

लिखो कि

सब कुछ ठीक -ठाक नहीं है

लिखो कि सब कुशलपूर्वक और

सानंद नहीं है।







Monday, April 25, 2011

औकात


                 जगदीश कश्यप



जज द्वारा दिए फैसले पर जब दोनों पक्षों के वकीलों ने हस्ताक्षर कर दिए तो जीतने वाले पक्ष के लोग कमल की माफिक खिल उठे.

हारने वाले पक्ष के वकील ने कहा-‘मुझे दुख है रामजीलाल मैं तुम्हारा केस बचा न सका.’ और वह तेजी से अपने बस्ते की ओर चला गया.

रामजीलाल के चेहरे पर विेषाद और बरबादी के एवज में वकील के प्रति क्रूर भाव उभर आए थे. इतने महंगे और प्रसिद्ध वकील ने अंतिम दम पर कैसी बोगस बहस की थी. घर खाली कराने के आदेश पर वह कम से कम एक माह की मोहलत तो ले ही सकता था.

‘यार मुझे रामजीलाल के हार जाने का बड़ा दुख है. अगर तुम्हारा दबाव नहीं होता तो नत्थू उसे कभी भी घर खाली नहीं करवा सकता था.’ यह बात रामजीलाल के वकील ने जीतने वाली पार्टी के वकील से कही.

‘वो तो ठीक है मिस्टर खुराना, पर इस बात के लिए आपको पूरा पांच हजार कैश भी तो मिला है. आखिर तुम इतने दुखी क्यों हो? न जाने कितने गरीब रामजीलालों को तुम इसी तरह हरवा चुके हो.’

इस पर मिस्टर खुराना ने ताजे खाए पान की ढेर सारी पीक को लापरवाही से एक ओर थूक दिया. जिस कारण अनेक बेकसूर चीटियां उस तंबाकू की पीक में जिंदा रहने की कोशिश करती हुई बिलबिलाने लगीं.



Tuesday, March 22, 2011

सावधान! लघुकथा कहीं हमारे अपने हाथों ही न खो जाए!


पारस दासोत

मैं यहॉं 'सावधान' शब्द का उपयोग , इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं , अपने हाथों ही अहम को ओढ़ लूं । मैं आपका साथी हूं आपके कन्धे से अपना कन्धा मिलाकर चलने वाला प्यारा साथी।

साथियों ! मैं आज , जो लघुकथा यात्रा में देख रहा हूं , वो शायद आप भी देख रहे होगें । मुझे विद्गवास है- आप मेरी इस दृष्टि से , थोडी देर बाद ही सही, पर सहमत अवश्य होंगे। हमारी लघुकथा , आज अपना धर्म, अपना लक्षण / विशेषताएं छोड ती नजर आ रही है। कई लघुकथाकारों की लघुकथाएं (उन लघुकथाकारों में मैं भी शामिल हूं) पढ ने से ऐसा ज्ञात होता है कि हमें शायद इसका आभास नहीं है कि हम, जाने -अनजाने अपना लघुकथा सृजन , उसकी तासीर अनुसार नहीं कर रहे हैं । हम बोध कथा, दृष्टांत, नीति कथा, प्रेरक प्रसंग की ओर मुड रहे हैं। साथ ही हमने , कहीं -कहीं वर्णात्मक तत्व को भी स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है।

हमने , लघुकथा की यात्रा का समय -समय पर काल -विभाजन करते समय उसकी यात्रा को कई काल खण्डों में विभाजित किया है , पर ऐसा लगता है , क्षमा करें! मुझे ऐसा लगता है कि लघुकथा ने अभी अपने कदम शिशू अवस्था से बाल अवस्था की ओर बढ़ाएं हैं। दो कदम ही बढ़ाएं है। हम सब साथी लघुकथाकार उसकी इसी अवस्था के ही साथी है। हम इसे स्वीकारें , न स्वीकारें, पर यह सत्य है कि अभी सामान्य पाठक ही नहीं, स्वयं लघुकथाकार भी 'लघुकथा' की परिभाषा से पूर्ण परिचित नहीं हो पाया है। यहॉं मैं इसके साथ यह भी कहना चाहूंगा कि अभी लघुकथा के साथ 'आधुनिक' शब्द को जोड ना या 'आधुनिक लघुकथा' कहना गलत है। लघुकथा को आधुनिक लघुकथा बोलकर , हम 'प्राचीन लघुकथा' की ओर भी इशारा कर देते हैं।मुझे क्षमा करे! यह चूक हमसे , इस कारण हो रही है कि हम , लघुकथा की या का काल विभाजन करते समय (जैसे हम , जब 'मानव की यात्रा का वर्णन करते समय, प्रजाति , जाति , आदिमानव ही नहीं कोशिका तक पहुंच जाते हैं, तब हम जाने - अनजाने मानव की यात्रा का नहीं , कोशिका की यात्रा का अध्ययन करने लगते हैं) एक दृष्टि से इतनी दूरी तक का अध्ययन या कि काल विभाजन अवांछनीय कहा जा सकता है । क्या , लघुकथा की विकास यात्रा में दन्त कथा तक पहुंचना सही कहा जा सकता है ? इस अवांछनीय काल '- विभाजन ने कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाले हैं । हम भारतीय है। इस प्रतीक रूपी आदम को , बन्दर को , अपने पूर्वजों को आदर देते है। , उन्हें पूज्य मानते हैं । यही कारण है कि हम , हमेशा पीछे मुड़कर देखते रहते हैं ।

मैं कहना चाहूंगा कि लघुकथा की यात्रा या उसका काल विभाजन करते समय , हमें केवल 'कथा - आकार' को ही अपना आधार नहीं बनाना चाहिए, हमें कथा रूप की यात्रा या कि उसका काल विभाजन नहीं करना चाहिए , पर हम करते यही आ रहे हैं । इसके कई मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमारी यात्रा पर पडें हैं। हम हर क्षण पीछे मुड कर कर देखते रहते हैं। , अपनेपन के तहत हम पीछे मुड कर केवल देखते ही नहीं , अपने कदम उस ओर बढ़ा भी देते है। हम यदि लघुकथा विधा पर किये गये शोधों का अध्ययन करें तो , पाऐंगे कि शोधार्थियों ने लघुकथा यात्रा की दृष्टि से काल विभाजन में एक पूरा का पूरा बढ़ा सा अध्याय प्राचीन विधाओं को सौंपा हैं । हम लघुकथा की यात्रा का वर्णन करते समय क्यों इन पूज्य प्राचीन कथाओं को अनुचित स्थान पर रखते रहे है। ? क्षमा करे? क्या बोधकथा अपनी यात्रा करते - करते लघुकथा के रूप में हमारे सामने पहुंची है? हम बोधकथा या अन्य विधा की यात्रा का काल विभाजन करते रहते हैं । यदि ऐसा है तो , गलत है। यदि मेरा यह मानना गलत है तो फिर क्यों हम पहली और पहली लघुकथा को ढूंढते फिर रहे हैं? कथा के बीज, बोधकथा , दृष्टांतो, नीतिकथा, जातककथा, प्रेरक -प्रसंगों में मिलते हैं। यह कहानी ने भी स्वीकारा है , हम भी स्वीकरते हैं, पर लघुकथा की यात्रा का अध्ययन करते समय , लघुकथा की दृष्टि से कथा बीज पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना, हमें एक गलत सोच की ओर धकेल रहा है। हम ने कथाबीज की दृष्टि से , लघुकथा का आकार तो उन कथाओं से लिया है पर लघुकथा का रूप -चरित्र हमने , उसकी तासीर , उसके लक्षण, उसका धर्म , उसका समाज के संघर्ष और समय की मांग को ध्यान में रखकर अंगीकार किये हैं । हमकों बीज एवं आधार भूमि का अर्थ व उनके अन्तर को भी ध्यान में रखना होगा । लघुकथा की यात्रा, 'लघुकथा-बीज' से नहीं, लघुकथा की आधार भूमि से स्वीकारना होगी । ('लघुकथा-बीज' लघुकथा-यात्रा की दृष्टि से यह शब्द अर्थहीन कहा जा सकता है , कारण, बीज की जो विशेषताएं होगी, वहॉं पेड़ की होगी, उसके अतिरिक्त नहीं, पर भूमि , जिस पर भवन खढ़ा है हम उसे भवन का बीज नहीं कह सकते। ) जिन छोटी कथाओं में लघुकथा के अधिक लक्षण (पूर्ण लक्षण नहीं) उपस्थित हैं, जैसे ........ सम्मानीय कहानीकारों की पूज्य छोटी कथाओं को 'लघुकथा' मान्य करना भ्रम पैदा कर रहा है। इसका मनौवैज्ञानिक प्रभाव हमें उस चरित्र अनुशासन में अपनी रचनाएं सृजन करने की छूट देता है । अतः ऐसी रचनाओं को 'लघुक्था की आधार भूमि की कथाएं ' कहना ही न्यायोचित होगा , लघुकथा नहीं। पहली लघुकथा को ढूंढते समय शायद , हम कहानी, शॉर्ट स्टोरी व बोधकथा की परिभाषा को, उसके अन्तर को, उसकी तासीर को ध्यान में रख पा रहे है। हम, जब भी पहली लघुकथा को खोजने निकलते है, शार्ट -स्टोरी /कहानी /कहानी भी पहली लघुकथा को खोजने निकलते है , शॉर्ट स्टोरी / कहानी को को पकड़ लेते है और जाने - अनजाने कथाकार के सृजन की ओर प्रश्न चिन्ह लगादेते हैं मेरी दृष्टि से यह गलत ही नहीं, एक अपराध हे । हम लघुकथा के समीप जो भी भी शॉर्ट स्टोरी या कि कथाएं पाते है, उन्हें हम 'लघुकथा परम्परा के कथा आधार' कह सकते है।, लघुकथा नहीं। (शॉर्ट स्टोरी को शॉर्ट , कहानी को कहानी विधा में ही शोभित रखते हुए) साथ ही एक कथा रचना 'कहानी' के साथ - साथ 'लघुकथा' कैसे हो सकती है ? क्षमा करें ‌ हमें अभी पहली लघुकथा को खाजने के लिए /प्राप्त करने के लिए और ....और प्रयास करने होगें।

कोई कथा यदि आकार की दृष्टि से लघु आकार की है तो क्या उसको लघुकथा कहा जा सकता है । नहीं, कभी नहीं कहा जा सकता! लघु कथा का यह आकार अन्य कुछ विधाओं के पास भी मिलता है , पर लघुकथा का धर्म , उसकी तासीर , उसका लक्षण , जिसे आम पाठक ने मान्यता दी है/उसको प्यार से स्वीकारा है / उसको अपनापन दिया है / उसे हइसा -हइसा बोलकर प्रोत्साहित किया है , वही उसका धर्म है हमें लघुकथा के धर्म को नहीं भूलना चाहिए। यह सच है कि हर रचना में बोध, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपस्थित रहता है । लघुकथा में उसकी अप्रत्यक्ष होने की है और वह भी भोथरी !

लघुकथा के जन्म की कथा, 'मुर्गी और अण्डा' वाली कथा नहीं है, न ही इसे किसी राजनैतिवाद ने जन्म दिया है। उसे जन्म दिया है तो, क्षण की संवेदना ने , जीवन के दुख - दर्दो ने , संघर्ष ने , प्रतिक्रिया ने , आक्रमकता ने , सशक्तिकरण ने । यही कारण रहा कि लघुकथा में , यथार्थ, लघुकथा की पहचान , व्यंग्य उसकी धड़कन , संवेदना उसका सौंदर्य सकारात्मकता उसके कदम और समाज के संघर्ष के प्रति उसकी सही दृष्टि ,उसका धर्म है । मैं कहना चाहूंगा कि सकारात्मक सोच को हम एक अलग दृष्टि से क्यों देखते हैं, क्या यथार्थ या कि व्यंग्य में सवेंदना की , जीवन मूल्य की दृष्टि नहीं होती ? क्या इसके लिए बदलते युग में उपदेश , बोध, नीति की ओर कदम बढाना आवश्यक है ? क्या हमने अपने लघुकथा सृजन -धर्म को इसलिए चुना है ? क्या विश्व के राजनैतिक फलक पर किसी वाद का कमजोर पड जाना या कि किसी वाद का अधिक शक्तिशाली हो जाना, हमारी विधा के धर्म को या कि उसकी यात्रा की दिशा को मोड देगा? हम यदि, यहॉं सावधान नहीं हुए तो , हम अपनी पहचान , पाठकों का प्यार, उनका अपनापन , धीरे - धीरे खो देंगे। इसका परिणाम ये होगा कि हम हमारे - अपने समाज की वाणी को मौन दे देंगे, उसके रक्त को शिथिल कर देंगे । मुझे क्षमा करें! यहॉं भी मैं , इस अशोभनीय कार्य में सम्मिलित हूं। साथियों , हमें मालूम ही न हो पायेगा कि कब हमने अपने ही हाथों लघुकथा की हत्या कर दी । उसे खो दिया । हमने समयानुसार अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की हत्या कर दी और हम कब बोधक के साथ खड़े हो गये!

अब हमारे संतुलित कदम , लघुकथा - धर्म के साथ - साथ कलात्मकता की ओर तीव्र गति से बढें। हमारी लघुककथा एक कृति नहीं, एक कलाकृति हो । हमे हमारे पाठकों ने समय, की पत्र -पत्रिकाओं ने , यहॉं तक कि अन्य विधाओं के सृजनधर्मियों ने , अपना पूर्ण सहयोग/ प्रोत्साहन दिया है। यही कारण है कि आज अकादमिक स्तर पर लघुकथा विधा पर ही नहीं, लघुकथाकारों को सम्मान प्रदान करते हुए उनके साहित्य पर शोध कार्य हो रहे हैं । हमारा प्रयास होना चाहिए कि लघुकथा , स्कूल व विश्व विद्यालयों के पाठ्‌यऋमों में सम्मान शामिल हो , ताकि आने वाली पीढ़ियॉं लघुकथा को समझ सके, उसे अपना प्यार दे सके, समय -समय पर उसको सम्भाल सके। पत्र -पत्रिकाओं के सम्मानीय सम्पादक गण , लघुकथा की दिशा की दृष्टि से सम्पादन करते 'क्यू.सी.'(क्वालिटि कन्ट्रोलर) की भूमिका कठोरता से निभाकर लघुकथा को उसकी सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित कर , उसे अनुशाषित बनाए रखें विश्वास हे , जब समय आएगा/मंच पर समीक्षकों की भूमिका आवश्यक होगी, समीक्षक अपना धर्म बखूबी निभाएंगे । हमें अभी आवश्यकता है -'लघुकथा वर्कशापों' के आयोजनों की , अपने स्तर पर अपने साथियों को सम्भालने की, उनकी रचनाओं पर उन्हें एक पोस्टकार्ड पर अपनी प्रतिक्रिया सौंपने की , पत्र व्यवहार बनाए रखने की , अपने कदमों के साथ सम्भालने की । सही दिशा में बढने की।

अंत में मैं कहना चाहूंगा कि लघुकथा , सृजनधर्मी के नाखून से समाज की दीवार पर खरोंचकर रखी गई लघुआकारीय कथा है , जिसमें हम लघुकथाकार के ही नहीं , समय के , समाज के रक्तकणों को , उसके संघर्ष को एक झालक मात्र में ही पा जाते है।  



(म.प्र. लघुकथा परिषद, जबलपुर (म.प्र.) के २६वें वार्षिक सम्मेलन, दिनांक २०-२-११ को पढ़ा गया लेख)



Wednesday, March 9, 2011

गुफाएं

चम्बल ने अपने बहाव से चट्‌टानों को काट-काट गहरी घाटी बनाई है , अब चम्बल इस गहरी खाई में बहती है, किनारे जैसे किले की अभेद्‌य दीवारें। इन चट्‌टानी किनारों में गुफाएं, और गुफाओं में गूंजता सन्नाटा, अन्धेरे में लिपटा । किनारें सदियों की बारिश और धूप से स्याह हो गये हैं , लेकिन कई चट्‌टानें धूप में चमचमाती है ।
किनारें पर बीहड़ जंगल । लगता है इन गुफाओं में आदि मानव रहता होगा, ये गुफाऐं मुझे बार- बार आकर्षित करती हैं कि इनका अन्वेषण करूं कि कहीं अभी कोई आदि मानव इनमें रहता तो नहीं है, कुछ का कहना है कि इनमें शेर रहतें हैं । कुछ का कहना है कि इनमें ऋषि मुनि वर्षों से तपस्या कर रहें हैं । कहा जाता है कि एकाध गुफा में शिवलिंग है जिस पर वर्ष भर पानी टपकता रहता है, लेकिन जाना रेंगकर पढता हैं, आगे जाकर गुफा जरूर बड़ी हो जाती हैं, फिर खड़े - खड़े जा सकते हैं, वहॉं एक कुंड है जिसमें नहानें से मनुष्य को परम स्वास्थ्य उपलब्ध होता हैं ।

मेरे इतिहास प्रेमी मित्र का कहना हैं कि इन गुफाओं में जरूर भित्तिचित्र होंगे, हो सकता हैं एजंता -एलोरा जैसे चित्र मिल जायें गुफायें तो आखिर गुफायें हैं अंधरें व रहस्य से आवृत । मैं पूरे रहस्य को अनावृत करना चाहता हूं , लेकिन इसमें जाने का साहस करना होगा , असुरक्षा व मृत्यु का भय पकड लेता हैं रहस्य को अनावृत्त करने के लिए क्या यम का मुकाबला करना होगा ! अन्दर चला भी गया तो आखिर क्या मिलेगा ? और उससे क्या हासिल होगा ? फिर भी ....मुझ में उन्हें अनावृत करने की अदम्य लालसा क्यों है ? मैं गुफा को गुफा नहीं रहने देना चाहता, लेकिन गुफायें भी तो अपना आकर्षण बनाये रखने के लिए रहस्य के धुंधलके में लिपटी रहती हैं, कई - कई किवदन्तियों के बीच आज भी ये रहस्य बनी हुई हैं ।

आदि मानव की मांनिद खतरों से जूझना ही पडेगा तभी रहस्य की चादर उसके चेहरे से हटकर , मुझे आकर्षित करना छोड देगी।

गुफाओं को बेनकाब करना ही होगा , नहीं तो ये मुझे प्रेत की तरह हॉन्ट करती रहेगी ।



Saturday, February 19, 2011

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं

औकात


जगदीश कश्यप



जज द्वारा दिए फैसले पर जब दोनों पक्षों के वकीलों ने हस्ताक्षर कर दिए तो जीतने वाले पक्ष के लोग कमल की माफिक खिल उठे.

हारने वाले पक्ष के वकील ने कहा-‘मुझे दुख है रामजीलाल मैं तुम्हारा केस बचा न सका.’ और वह तेजी से अपने बस्ते की ओर चला गया.

रामजीलाल के चेहरे पर विेषाद और बरबादी के एवज में वकील के प्रति क्रूर भाव उभर आए थे. इतने महंगे और प्रसिद्ध वकील ने अंतिम दम पर कैसी बोगस बहस की थी. घर खाली कराने के आदेश पर वह कम से कम एक माह की मोहलत तो ले ही सकता था.

‘यार मुझे रामजीलाल के हार जाने का बड़ा दुख है. अगर तुम्हारा दबाव नहीं होता तो नत्थू उसे कभी भी घर खाली नहीं करवा सकता था.’ यह बात रामजीलाल के वकील ने जीतने वाली पार्टी के वकील से कही.

‘वो तो ठीक है मिस्टर खुराना, पर इस बात के लिए आपको पूरा पांच हजार कैश भी तो मिला है. आखिर तुम इतने दुखी क्यों हो? न जाने कितने गरीब रामजीलालों को तुम इसी तरह हरवा चुके हो.’

इस पर मिस्टर खुराना ने ताजे खाए पान की ढेर सारी पीक को लापरवाही से एक ओर थूक दिया. जिस कारण अनेक बेकसूर चीटियां उस तंबाकू की पीक में जिंदा रहने की कोशिश करती हुई बिलबिलाने लगीं.



चादर

जगदीश कश्यप



जब मेरी आंख खुली तो मैंने अपने दोगले मित्र को पास खड़े पाया. मुझे जागता पा उसने गिलास के पानी में ग्लूकोस घोलकर दिया. चुपचाप मैं पी गया पर मेरे हृदय में रक्त के बजाय क्रोध का संचार होने लगा. आंखों में खून तैर आया—‘तुम बुजदिल हो. मुझे यहां क्यों लाए?’

‘शश्श्श!’ उसने उंगली होंठ पर रखकर धीरे-से कहा—‘बोलो नहीं, चुपचाप पड़े रहो.’

मैं अपने इस मित्र को मजदूरों का नेता मानने के लिए शुरू से ही तैयार न था. काम चलाऊ भाषा में वह मिल-मालिक का चमचा था. और मुझ जैसे ईमानदार नेता को अपनी जानिब खींचने की असफल कोशिश कर चुका था.

ईमानदार आदमी पर आरोप लगाना ज्यादा आसान होता है. यही हुआ. स्ओर इंचार्ज होने के नाते मुझपर आरोप लगाया गया कि मैंने चालीस किलो तांबा गायब करवाया था. लिहाजा मेरी नौकरी खत्म.

‘अब तुम कैसे हो?’ उसने यह बात कहते ही मुस्कराहट-भरा मुखौटा ओढ़ लिया. मेरे कुछ न बोलने पर उसने धीरे से कहा—‘देख लिया न मजदूरों को. किसने तुम्हारा साथ दिया? सारा काम बाखूबी चल रहा है इस मिल का.’

इस पर मैं कुछ नहीं बोला तो वह कह उठा—‘सुनो, मैं तुम्हें एक ऐसा हलका काम दिलवा दूंगा, जिसमें कुछ भी मेहनत नहीं करनी होगी. रुपये भी पूरे पंद्रह सौ महीना मिलेंगे. मजे की बात तो यह है कि तुम एक-एक मजदूर से अपने अपमान का बदला भी ले सकते हो.’ यह कहते ही उसने मुझे एक चादर दिखाई जो अभी तक उसके जिस्म के चारों ओर लिपटी हुई थी.

‘मेरा काम बस इतना ही है कि मैं रात के समय यह चादर किसी मजदूर को ओढ़ा देता हूं और मजे से पंद्रह सौ रुपये महावार पीट लेता हूं.’

‘चादर ओढ़ाना तो पुण्य का काम है?’

‘यही तो तुम्हें समझाना चाहता था. पर तुम अब तक समझे ही नहीं.’

उसी रात को मैं मित्र द्वारा दी गई चादर को लेकर अपने किसी मजदूर भाई की झोपड़ी में घुसा और उसकी पत्नी से बोला की वह उस चादर को अपने सोते हुए पति पर डाल दे. उसकी पत्नी ने ऐसा ही किया. क्योंकि वह जानती थी कि मेरे द्वारा दी गई चादर भाग्यवाले को ही मिलेगी.’

उस मजदूर की पत्नी ने सुबह जब अपने पति के ऊपर से चादर हटानी चाही तो भय से चीख पड़ी. चादर का रंग सुर्ख पड़ चुका था. उसका पति अब भी गहरी नींद में सोया था. पति का चेहरा देखकर वह गश खाते-खाते बची. गालों की हड्डियां शंकु के समान उभर आई थीं. आंखें धंस गई थीं. पेट की पसलियां खाल को फाड़कर बाहर आना चाहती थीं. जब उसे जगाया गया तो मजदूर ने बताया कि उसके पैरों में जान नहीं रही थी. शायद वह किसी बीमारी द्वारा जकड़ लिया गया था.

वह औरत दौड़ी-दौड़ी मेरे पास आई और वह चादर मुझपर फंेक, गाली बकती हुई चली गई.

अब मुझे चादर को किसी दूसरे मजदूर के लिए इस्तेमाल करना था.

Saturday, January 29, 2011

एक ध्रुवीय विश्व में नाटो का औचित्य

नोम चोमस्की

तकरीबन २० साल पहले बर्लिन की दीवार के ध्वस्त होने के प्रतीक के साथ सोवियत संघ के पतन ने बहुत साफ तौर पर एकध्रुवीय विश्व  की स्थापना कर दी। जिसमें अमेरिका अब पहले की तरह एक प्रमुख महाशक्ति नहीं बल्कि एकमात्र महाशक्ति के रूप में रह गई थी ।
मौजूदा विश्व  व्यवस्था एक मामले में एकध्रुवीय बनी हुई है और वह है ताकत का मामला। अमेरिका अपनी सैन्य क्षमता पर लगभग इतना खर्च करता है जितना दुनिया के सारे देश  मिलजुल कर अपनी सैन्य क्षमता पर खर्च करता है। वह विध्वंस की टैक्नॉलोजी से अन्य देशो   के मुकाबले बहुत ही आगे है।
अमेरिका इस मामले में भी अकेला देश है जिसके दुनिया के विभिन्न देशो में सैकड़ों सैनिक अड्‌डे हैं और जिसने उर्जा का उत्पादन करने वाले दो क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में रख रखा है।

अभी तक नाटो के अस्तित्व को न्यायोचित ठहराने के लिए सोवियत संघ को सामने रख दिया जाता था और कहा जाता था कि यह सोवियत आक्रमण से बचाव के लिए है। सोवियत संघ के विघटन के बाद यह बहाना भी खत्म हो गया। लेकिन नाटो को बचाकर रखा गया और उस नये सांचें में ढालकर अमेरिका की तरफ से हस्तक्षेप करने वाली विशेष ताकत के रूप में स्थापित किया गया । जाहिर है इसके साथ ही उर्जा पर नियंत्रण का विशेष सरोकार भी प्रकाशित  किया गया।


( समकालीन तीसरी दुनिया /अक्टुबर -दिसम्बर २०१० से साभार)

Monday, January 3, 2011

'बेलदार को स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान'

 झारखंड के प्रतिष्ठित शिक्षन संस्थान स्पेनिन रांची द्वारा हिन्दी साहित्य की समृद्धि में योगदान के लिए श्याम कुमार पोकरा के उपन्यास 'बेलदार' को स्पेनिन साहित्य गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पिछले दस वर्षो में प्रकाशीत हिन्दी उपन्यासों में स्पेनिन द्वारा बेलदार को सर्वश्रेष्ठ कृति घोषित किया गया है।
दिनांक २७ नवम्बर २०१० को एक भव्य समारोह में रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. शीन अखतर व रांची विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की निदेद्गाक डॉ. ऋता शुक्ल ने ग्यारह हजार एक रूपये का चेक, , स्मृति चिन्ह, प्रद्गास्ति पत्र में स्पेनिन ने कहा कि प्राप्त कुल छत्तीस उपन्यासों में से बेदार को सर्वश्रेष्ठ कृति चुना गया है। निर्णायक मंडल की वरिष्ठ सदस्य डॉ. माया प्रसाद ने बेलदार पर अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि यह उपन्यास राजस्थान की पत्थर की खदानों के मजदूरों की जीवन परिस्थतियों को बहुत ही सुक्ष्मता पूर्वक प्रस्तुत करता है।