Wednesday, July 6, 2011

दर्पण के अक्स

दर्पण के अक्स
आभासिंह

पत्नी अपने बच्चों में गुम हो गयी और बच्चे अपने परिवारों में । रह गया वह । दिनभर की जी तोड़ मेहनत से व्यवसाय सम्भालता । शामें रातें सूनी हो गयी । अकेलेपन की बेबसी को दूर करेन के लिए उसने कम्प्यूटर की शरण ली। 'इन्टरनेट' पर 'चैटिंग'' का चस्का लगते भला क्या देर लगती । नये -नये अछूते संसार में विचरण करता वह अति व्यस्त हो गया । हर पन्द्रहवें बीसवें दिन एक नई लड की से बातचीत करना। अंतरगता के दबे - छिपे कोनों तक पहुंच बनाना। अपने भीतर उछलती उत्तेजना को महसूस करना। बेवकूफ बना पाने की अपनी कुद्गालता पर कुटिलता से मुस्कुराना ।

इस बार भी वह इंटरनेट बंद करके लिप्सा से मुस्कुराया। सोलह साल की लड की की लहकती आवाज में नरम सा प्रेमालाप उसके कानों में रस घोल रहा था। उसने ऐनक उतारी । खुरदरे हाथों से माथा सहलाया और खुमारी में डूबा - डूबा बिस्तर में जा धंसा।

उधर भी उस सोलह बरस की लडकी ने इंटरनेट बंद किया। ऐनक उतार कर मेज पर रख दी। लहकती आवाज में गुनगुनाना शुरू कर दिया । रैक से झुर्रियॉं मिटाने की क्रीम को हल्के हाथों चहरे पर लगाने लगी । खिचडी बालों की उलझी लटों को उंगलियों से सुलझाया । बेवकूफ बना पाने की अपनी कुशलता पर मंद -मंद मुस्कायी और खुमारी में डूबी-डूबी बिस्तर में जा धंसी।

1 comment:

सुभाष नीरव said...

आज के समय का सच व्यक्त करती है यह लघुकथा। बूढ़े लोग बेचारे क्या करें, अपने तो क्या, पराये भी दो बोल बोल-बतिया कर राजी नहीं। अकेलेपन का श्राप झेलते ये शहरी वृद्ध अगर इंटरनेट के माध्यम से अपना समय काट लेते हैं तो क्या हर्ज़ ! पर इन वृद्धों को यहां बात करने के लिए अपनी उम्र छुपाने का झूठ तो बोलना ही पड़ता है! वरना कौन बात करेगा…
-सुभाष नीरव