Wednesday, March 28, 2012

तीन बदंर


आठवे दशक की लघुकथाए - 2





तीन बदंर

किशोर काबरा

                रात के अधंरे में गॉंधीजी के तीन बंदरों से मैंने कहा- देखो इस समय यहॉं देखने वाला कोई नहीं है और मेरी आत्मा अभी तक सोई नहीं है। मैं सोचता हूँ, तुम सब एक काम कर लो। युगों से एक ही मुद्रा में बैठे हो , अत: हाथ पैर फैलाकर थोड़ा - बहुत आराम करा लो।
वे जब नहीं माने तो मैं उनके पास गया। पर , सच कहता हूँ उन्हें देखकर मेरी सॉंस रूक गई।
अब एक बन्दर अंधा हो गया था !
और दूसरा बदंर अंधा और गूंगा हो गया था।
तीसरे को देखकर तो मेरा दुख और भी गहरा हो गया है। यह बेचारा दुख का मारा अंधा , गूंगा और बहरा हो गया है।

(गुफाओं से मैदान की ओर - 1974)


Thursday, March 8, 2012

चीख


चीख
सुदर्शी सौन्धी


मार्च की मस्त सुबह । चार बजे नामालूम सी धुंध । बादलों के पार से झांकता उजाला । उसने शाल कसकर अपने चारों तरफ लपेट लिया। पापा के कमरे की खिड़की खुल गयी है , थोडी ही देर बाद वे ओवरकोट पहनेंगे, फिर सिगार मुहॅं में दबाये सीढियों से नीचे उतर आयेंगे रोज की तरह वह मुस्करा देगी ठीक वैसे ही झुके -झुके जैसे अर्दली मुस्कराता है । क्या नहीं है उसके पास, एक आलीशान कोठी, दो दो इम्पाला , एक पापा की , एक उसकी । दो - दो टेलिविजन सेट, हिन्दी, पंजाबी अंग्रेजी, संस्कृत की सारी पुस्तकें सारे संदर्भ ग्रंथ .... । जरा घंटी दबाने पर नौकर हाजिर हो जाता है । पास ही पानी रखा हो तो भी वह खुद होकर तो पानी ले ही नहीं सकती। डनलप के गद्‌दों पर लेटे रहो या विलायती धुन पर घूमते रहो ... । या कामू काफ्‌का की किताबें पढते रहो ! एक सही अहसास । पूरी कालोनी में सबसे ऊंची और सबसे आलीशान कोठी है उसकी ... । होली है आज पर किसके साथ खेलें...पिछलें इक्कीस साल से यह दर्द उसे कुरेदता रहता है....किसी पडोसी बच्चे या समवयसा से गुलाल ही लगवा ले, पर पापा मानेंगे, उनकी नजर में तो सारे पडोसी बौने है , और पापा बौनों का साथ एक पल भी गवारा नहीं करते, उसे लगता है , वह चीख पडेगी वैसे ही , बेमतलब , फिजूल मे।

( अतिरिक्त-अंक ५ अगस्त १९७२)