Sunday, June 4, 2017

लघुकथा का रचना विधान
भगीरथ
लघुकथा जहां तक लोक, बोध, नीति और उपदेश तक सीमित रहती है उसका कलेवर, उसकी भाषा और शैली भी बहुत हद तक कथ्य की उद्देश्यपरकता से प्रभावित होती है उसमें कथा- क्रम रोचक होता है और अंत में पूरी कहानी के कथ्य को नीति वाक्य में निचोड़ कर कह दिया जाता है।
पंचतन्त्रीय कथाओं का उद्देश्य जीव - जन्तुओं की प्रकृति एवं मनुष्य के चारित्रिक लक्षणों में साम्यता स्थापित कर , कुछ उपदेशात्मक बातें या व्यवहारिक सीख देने का रहा है। इन कथाओं के रचनात्मक विधान में प्रतीकात्मक व प्रक्षेपणात्मक शैली का प्रयोग हुआ है और इसलिए ही ये साहित्य की अद्वितीय रचनाएं सिद्ध हुई है।
वर्तमान में जीवन की परिस्थतियों एवं मानवीय संबधों की जटिलता की वजह से नीतिकथाएं, जो परिस्थतियों और मानवीय संबंधों के द्वंद्व का अति सरलीकृत एंव फार्मूलाबद्ध रूप है अब अप्रासांगिक हो गई है।
नीतिकथाओं में कथोपकथन शैली का भी व्यापक प्रयोग हुआ है  जिसे रचना की उद्देश्यपरकता के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर रचना में व्यवस्थित किया जाता है।
जिब्रान की रूपक कथाओं की भाषा शैली में प्रतीकात्मकता ओर व्यजंनात्मकता  की शक्ति के कारण वे साहित्य में अद्वितीय रचनाएं सिद्ध हुई है उनके कथ्य शाश्वत है और इसी कारण अमूर्त एवं रहस्यवादी बन गई है रचनाएं ।
हिन्दी की प्रारम्भिक लघुकथाओं में शैली के स्तर पर या कथ्य के स्तर पर कोई नई जमीन नहीं तोड़ी गई चाहे रचनाकार जगदीशचन्द्र मिश्र रहे हो या रावी ।
लेकिन आठवें दशक के आते - आते लघुकथा अभिव्यक्ति की विवशता के रूप में प्रस्फुटित हुई। क्योंकि जीवन  का तल्ख यथार्थ अभिव्यक्ति चाहता था। अतः आठवें दशक की लघुकथा यथार्थ की जमीन पर खड़ी दिखी । कथ्य की विविधता ने लघुकथा में नई जमीन तोड़ी और शैली के स्तर पर व्यापक प्रयोग हुए भाषा गठन में भी बदलाव आया। क्योंकि अब लघुकथाकार का उद्देश्य साम्प्रतिक जीवन के यथार्थ को कथा में प्रस्तुत करता था न कि कोई उपदेश या दृष्टांत देना था।
लघुकथा का पूरा आन्दोलन अव्यवसायिक पत्रिकाओं और नये रचनाकारों ने चलाया व्यवसायिक जगत में लघुकथा की कोई पहचान नहीं थी । कालान्तर में व्यवसायिक जगत ने इस आन्दोलन के परचम को थामने की कोशिश की लेकिन उसमें उन्हें मामूली सफलता ही मिली सारिका के लघुकथांक और श्रेष्ठ लघुकथाएं, एंव समान्तर लघुकथाओं के प्रकाशन ने यह साबित किया कि व्यवसायिक जगत केवल लघुकथा के नाम पर व्यंग्य लघुकथा या व्यंग्य रचनाओं से ही वाकिफ है। और आठवें दशक में लघुकथा जो तस्वीर अव्ययवसायिक पत्रिकाएं प्रस्तुत कर रही थीं उनका कोई उल्लेख उनमें नहीं था इस कारण भी लघुकथांक व पुस्तकों में व्यंग्य लेखकों को ही स्थान मिला ।
हरशिंकर परसाई ने व्यंग्य लघुकथाएं भी लिखी है और उनका अधिकतर लेखन व्यंग्य रचनाओं के नाम से जाना जाता है जिसमें कथातत्व की प्रमुखता न हो कर भाषा  व्यञ्जकता    और शैली की व्यंग्यात्मकता है। हरिशंकर परसाई के लिए व्यंग्य  कोई हास्य की वस्तु नहीं है हालांकि उपहास उन्होंने जरूर उडाया है जिन्हें व्यंग्यरचनाएं एवं लघुकथा का फर्क मालूम नहीं है उन्हें परसाई की लघुकथाएं और व्यंग्य रचनाओं को साथ - साथ रख कर पढ़ना चाहिए।
अव्यवसायिक क्षेत्रों में यथार्थ के साथ व्यंग्य था लेकिन जब हम किसी विधा का अंक प्रकाशित कर रहे हो तो इतना तो ध्यान रखा जाना चाहिए व विधा की समग्र तस्वीर प्रस्तुत करें ।
लेकिन रमेश बत्रा के संपादन में साहित्य निर्भर तारिका लघुकथांकों ने लघुकथा को ईमानदारी से पेश किया यह पहली बार था कि लघुकथा को साहित्य जगत में ठीक से प्रस्तुत किया गया उसके बाद तो लघुकथांकों  की अच्छी परम्परा है।
व्यवसायिक क्षेत्रों में व्यंग्य कथा के अन्तर्गत पैरोडी कथाओं का भी व्यापक प्रयोग हुआ लेकिन एक सीमा के बाद वे निरर्थक साबित होने लगी क्योंकि उनमें पौराणिक कथाओं के निष्कर्षो पर आधुनिक पात्र थोपे गये मूल्यों में आए पतन को दर्शाने की इन लघुकथाओं ने कोशिश अवश्य की लेकिन अपेक्षाकृत सरलीकृत तरीके से ये लघुकथाएं लिखी गई अतः प्रकान्तर में वे अनुपयोगी होकर रह गई।
घटना कथा व व्यथा कथा के नाम से व्यवसायिक क्षेत्रों में लघुकथा लिखी जाने लगी जो केवल घटना की रिपोर्टिंग होती थी। उसमें लघुकथा के रूप विन्यास पर कोई मेहनत नहीं होती थी भाषा भी पूर्ण अखबारी होती थी यथार्थ तो था लेकिन ललित    साहित्य नहीं।
लगातार तनाव की स्थिति को  भोगती रचनाएं  क्लाइमेक्स से आरम्भ हो - उसी स्तर पर यात्रा कर  वहीं समाप्त हो जाती है ऐसी लघुकथाएं पाठक को पकड़े रहने में सक्षम होती है ।
कभी - कभी लघुकथा तेजी से चरमोत्कर्ष की ओर दौड़ती हे और अप्रत्याशित ही समाप्त हो जाती है। यहां पाठक स्तम्भित, भौंचक, सम्मोहित या चौंक पड़ता है। ऐसी रचनाएं लघुकथा में काफी सफल होती है क्योंकि इनका कथ्य धारदार और उसका प्रकटीकरण भी उतना ही सशक्त।प्रभावी डायलाॅग के रूप में लिखी रचनाएं, एक स्थिति को प्रकट करती है। जिसमें कथोपकथन के जरिए ही कथा का विकास व पात्रों के भावों की अभिव्यक्ति होती है। रमेश बतरा की माएं और बच्चे सिमिर की हथकंडे कृष्णा अग्निहोत्री की मातम ऐसी ही रचनाएं है।
मशकूर जावेद ने अपनी रचना केबरे व इस लेखक की रचना हड़ताल में वाक्यों के अभाव और शब्दों के मोजेक वर्क से लघुकथा का कम्पोजीशन उभारा है। आयातित संस्कृति के खोखलेपन एवं सेक्स के व्यवसायीकरण को उजागर करने लूटमार सभ्यता की पथराई आत्मा - जो वस्तुओं में अपनी संतुष्टि खोजकर समूची मानव जाति से आंखे मूंद अपने जीवन की इतिश्री समझ लेते है- ऐसे कथ्य को इस शैली के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति दी है ।
      गोल दायरा/लड़की/थिरकती हुई/लड़की/आरकेस्ट्रा/मेरी नजरें/लड़की/नाचती हुई/कपड़े/लड़की बिना कपड़े/लड़की/कपड़े/खोलती हुई/लड़की।
      लघुकथा में नरेटिव (विवरणात्मक) शैली का काफी प्रयोग हुआ है मगर इस शैली में लिखी गई रचनाएं अक्सर लचर पाई गई लोककथाओं में इस शैली का  विशेष उपयोग होता है। लेकिन लोककथाओं की  रोचकता एवं उत्सुकता तत्व ने  पाठकों पर अपनी पकड़ बनाए रखी   । जबकि विवरणात्मक लघुकथाओं ने  पाठकों पर अपनी पकड़ बनाने की क्षमता खो दी
      घटना और स्थितियों के स्थूल वर्णन का लघुकथा में स्थान नहीं होता ऐसे में सांकेतिकता और व्यंजनात्मकता के सहारे रचना की सृष्टि कर लेना लेखक के लिए उपलब्धि है । लेकिन कई बार इनके बिना भी सपाट बयानी में सशक्त अभिव्यक्ति देना रचनाकार के लिए संभव  है। जैसे प्रभासिंह की सत्याग्रही”” मोहन राजेश की परिष्कृत, व कृष्ण कमलेश की यकीन, आज की लघुकथा दुराव - छुपाव का अवसर न देकर पाठक के आमने सामने होती है और सड़ी गली व्यवस्था पर सीधे चोट करती है। ऐसी रचनाएं तीखे कथ्य और दो टूक भाषा की अपेक्षा करती है।
कथा तत्वों से विहीन होते हुए भी कुछ रचनाएं विचार के स्तर पर रूपायित होती है वे मात्र एक रचना प्रक्रिया होती है जो विवेक पूर्ण एवं स्थिति सापेक्ष होती है । इसमें ठोस कथा की जगह मात्र कथा सूत्र होते हैं। लेखक की टूल कछुए ऐसी ही विचार कथाएं है!
रूपक कथाओं में दो समान्तर कथाएं चलती हैं एक प्रत्यक्ष और दूसरी अप्रत्यक्ष (सूक्ष्म) जैसे डिसीप्लीन - पुरूषोत्तम चक्रवर्ती  प्रतिबंध - शंकुतला किरण, भूख - जगदीश कश्यप आदि
प्रतीकों का प्रयोग लघुकथा लेखन में काफी हुआ है। कईं रचनाएं  जो प्रतीकात्मक होती है वहां कथ्य के अमूर्तिकरण के कारण संप्रेषणीयता कुछ हद तक बाधित हो जाती है फिर भी लेखक कभी - कभी अपने कथ्य को प्रभावी बनाने में प्रतीक की विवशता महसूस करता है। आज के दर्दनाक यर्थाथ और उनसे जूझते इन्सानों के संघर्ष  पलायन और प्रतिक्रियाओं का लेखा- जोखा प्रस्तुत करने में प्रतीक बहुत सहायक होते है प्रतीकों के अभाव में ये रचनाएं अनावश्यक लम्बी होकर उबाऊ एवं प्रभावहीन हो जाएगी रमेश जैन की मकान ब्रजेश्वरमदान की मरे हुए पैर  अनिल चौरसिया की कालासूरज आदि।
फैंटेसी का प्रयोग अक्सर प्रतीकों के साथ होता है लेकिन लघुकथा अपने आंतरिक बुनावट में फैंटेसी का उपयोग करती है। अपनी विचित्र स्थितियों के बावजूद वे यथार्थ का अवलोकन है रमेश बतरा की खोया हुआ आदमी, भगीरथ की दोजख और जगदीश कश्यप की चादर।
जो सबसे ज्यादा प्रचलित रचना विधान दो विपरित परिस्थितियों को आमने - सामने कर देना, विरोधाभासों और विडम्बनाओं को कथा में उतार देना इस शैली कि सैकड़ों रचनाएं लघुकथा साहित्य में मिल जायेगी । यह शैली इतनी रूढ़ हो गई हैं कि अब उसका उपयोग कम ही होता है फिर नये लेखकों द्वारा इसका सार्थक प्रयोग होता है । सतीश दुबे की रचना संस्कार कमल चोपड़ा की जीव हिंसा आदि इस शैली अच्छी रचनाएं है।  [रचनाकाल १९८२के आसपास ]
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