Monday, September 10, 2012

आठवे दशक की लघुकथाए


पुल बोलते हैं
कैलाश जायसवाल

लम्बा और सूना प्लेटफार्म। सीमेन्ट के शेडस से टकराती तिरछी घनी बूंदें । मध्यरात्रि के आलोक में पटरियों पर गिरती  उछलती और बिखरती बूंदों का अटूट कम प्लेट फार्म की परिधि के परे गहरा अंधेरा । अंधेरे में उभरते कई अनगिनत आकृतियों के अस्थिर आभास । प्लेट फार्म के उपर से गुजरता हुआ दूर तक दिखता उंचा पुल, वर्षा और धूप आकाश से बतियाता -सा । न जाने कितने उसके उपर से और न जाने कितनी रेलें उसके नीचे से गुजर गयी वह कई सालों से यू हीं खड़ा है।
आज अधंरी रात मे , वर्षा में ही घूमा जाये मैनं सोचा और प्लेट -फार्म से निकलकर पुल पर चढ़ने लगा। एक बहुत ही तेज और ठंडे झोंके ने मेरे आलिंगन कर दिया और मैं अंधेरी वर्षा में निर्बाध घुस गया।
मुझे गिरते पानी के नैरन्तर्य में नगर की सड़कों और सीमांतो पर घूमना बहुत अच्छा लगता है  बगैर छतरी या बरसाती के बीच -बीच से गर्म चाय के दो - दो,  तीन -तीन कप पीता रहता हूं । अभी तक बरसते दिनों में ही घूमा हूं। आज अंधेरी बरसाती रात के निर्जन से पुल पर भटकने की इच्छा दुर्दान्त हो उठी थी। अब मैं पुल पर पहुंच गया हू। । इस पुल पर एकदम अंधेरा क्यों है   शायद लाईट खराब हो गई है।
घुप्प अंधेरे में मैं सिर्फ वर्षा की उर्जा महसूस कर रहा हूँ।। पावों के नीचे खिलखलाती जलधाराएं लुढ़क रही है। अनुमान से आहिस्ते -आहिस्ते चलता हुआ मैं पुल के चक्कर लगाने लगा सहसा चाय की याद आ गई, कहां मिलेगी  प्लेटफार्म का स्टाल भी बंद पड़ा था  पांच बजे से पहले क्या मिलेगी । मैंने मन ही मन सोचा अंधेरे पुल की छाती पर अंधेरे में चलते हुए मुझे लगा कोई मुझे इस तरह पुल की छाती पर अंधेरे में चलते हुए मुझे इस तरह पुल पर चक्कर लगाते देख लो तो वह क्या सोचेगा वह शायद यही सोचेगा कि मैं पुल का संतरी हूं । मुझे हॅंसी आ गई- उसे क्या पता कि मैं इन्जाय के लिए घूम रहा हॅं। वर्षा और हवा की गति अभी भी वैसी ही थी कहीं दूर से चार का गजर खड़का अभी तो एक घंटा और है मैंने सोचा। गजर की आवाज सारे परिवेश में से लपलपाती हुई गुजर गई फिर मौन था यानि हवा और वर्षा की आवाजें थी- आती हुई गुजर गई फिर मौन था यानि हवा और वर्षा की आवाजें थी- पूर्ववत् । एक घंटे बाद ट्रेन आ जायेगी। स्टाल खुलेगा  और चाय के पूरे तीन कप पीकर बर्थ पर जा लेटूंगा आज की सुबह अच्छी ही गुजरेगी खूब गहरी नींद आ जायेगी। इस वक्त पुल पर आने से दो काम हो गए। मुझे अपने यहां आने पर खुषी होने लगी।
कौन जानेगा- कि आज मैं रात यहां घूमता इस पुल की इस अजनबी नगर की एक बरसती रात को ब्लेक डाग पीता रहा और मुझे किसी ने भी नहीं देखा। कौन जानेगा। अभी आश्वस्त ही हो रहा था कि एक आवाज हवा से अलग  मेरे पास से  मुझे छूती हुई या हलके से धकियाती हुई बूंदों पर सवार गुजर गयी।
कौन है! कौन है! मैंने पूछना चाहा, चीखना चाहा मगर आवाज गले से बाहर निकली नहीं । शायद बौधारों ने मुहॅं ही नहीं खुलने दिया। हवा और वर्षा की गति अभी भी वैसी ही थी । क्या पुल भी बोलता है?

(गुफाओ से मैदान की ओर  -   1974)

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