Monday, August 22, 2011

महानगर की डायरी



हमारा प्यारा सा छोटा¸ सुंदर परिवार है। यानी मेरे पति¸ चार साल का बेटा अभि और मैं। और हाँ अभि के दादा भी हमारे ही साथ रहते है। मैं थोड़ा गलत बोल गई। इतना भी छोटा परिवार नहीं है हमारा। मेरे पति तो दिन भर काम में व्यस्त रहते है। वो एक्सपोर्ट का बिजनेस है ना हमारा। कस्टम वालों से लगाकर टैक्स अथॉरिटीज सभी के साथ अच्छी सेटिंग है इनकी। मैं अपनी सहेलियों के साथ जिम¸ किटी और क्लब की एक्टीविटीज में ही इतना थक जाती हूँ कि हफ्ते में दो तीन बार तो हम बाहर ही खा लेते है।


अभि के दादाजी को नहीं भाता ये सब। अब बाहर जाएँगे तो साढे ग्यारह बारह से पहले लौटेंगे क्या? उनके लिये पॅक्ड डिनर ले आते है। कभी खाते है तो कभी वैसा ही पड़ा रहता है।

बदादा को मेरा घर में किटी करना¸ टीवी पर सीरियल देखना¸ कॉकटेल पार्टीज में जाना और यहाँ तक कि नॉन वेज और ड्रिंक्स तक लेना भी पसंद नहीं है। हद होती है दकियानूसी सोच की भी । आखिर कोई किसी की लाईफस्टईल में¸ जीने के तरीके पर तो पेटेंट नहीं रख सकता न?

आप ही बताईये जब वे घर में जोर जोर से मंत्रा बोलकर हमारी मॉर्निंग स्लीप में दखल देते थे¸ धूप जलाकर मेरे सारे इम्पोर्टेड कर्टन्स खराब कर दिये उन्होने¸ अभि के बर्थडे पर उसे गंदे आश्रम के बच्चों के पास ले जाने की जिद करने लगे थे¸ अपनी पत्नी की धरोहर के नाम पर तीन पेटियों की जगह घेरे हुए रहते है तब हम उन्हें कुछ भी कहते है क्या?



कई बार मेरा दिमाग खराब होता है लेकिन अभि के पापा सब कुछ समझते है। वे तो दादा से ज्यादा बातें भी नहीं करते। उन्होने मुझे बता रखा है कि मरते समय उनकी माँ को उन्होने वचन दिया है इसलिये दादा को वृद्धाश्रम में नहीं रख सकते। अब आखिर मैं भी तो भारतीय नारी हूँ। कुछ तो ख्याल रखना ही पड़ता है ना पति की इमोशन्स का।

लेकिन दादा ने उस दिन तो हद ही कर दी थी। दिवाली पर मैं नौकरानियों के लिये कुछ सामान लाने बाजार ही नहीं जा पाई थी। सोचा कि अपनी सासूजी की पुरानी धुरानी सड़ियों के बंड़ल में से चार पाँच निकाल कर उन्हें दे भी दूँगी तो काम चल जाएगा। दादा टहलने गये थे और मैंने अपना काम कर ड़ाला था। लेकिन अभि! आखिर बच्चा ही तो ठहरा¸ सो इनोसेंट ही इज। उसने दादा को बता ही दिया कि मैंने दादी की साड़िया रमा¸ ऊमा¸ पारो और सविता को दी है। फिर क्या था¸ वे मुझसे¸ रियली मुझसे ऊँची आवाज में बातें करने लगे थे।

पता नहीं कौन सी पास्ट हिस्ट्री बताते रहे थे। पुराना वैभव और क्या - क्या। तब मैंने उन्हें अभि के पापा वाली बात बता ही दी थी कि

"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।" और पता नहीं क्यों वे छाती मलते हुए से हमेशा की तरह नाटक करते बैठ गये थे।


और सच बताऊँ अभि ने ये भी सुन लिया और तो और मेरी सारी एक्सप्रेशन्स को वह बखूबी इमीटेट करने लगा है आजकल। उसे ना मेरा वर्ड "धर्मपत्नी" बड़ा अच्छा लगा था। कहता था "ममा आप तो बड़ा ही अच्छा मदर टंग बोलती है।" अभि के पापा का मूड थोड़ा सा ऑफ जरूर हुआ था लेकिन जब अभि ने मेरा डायलॉग वैसे ही एक्सप्रेशन्स के साथ बार - बार दोहराया तब ही ऑल्सो एन्जॉइड लाईक एनीथिंग।

फिर तो जब भी दादा खाना खाने बैठते¸ अभि उनके आगे पीछे दौड़ता हुआ यही डायलॉग बोलता रहता। लेकिन कितने रूड व्यक्ति थे वो। मैंने तो सुना है और देखा भी है कि दादा दादी को अपने नाती पोतों से कितना प्यार होता है लेकिन यहाँ दादा तो बस एक्सप्रेशनलेस होकर बैठे रहते थे।

साल का ये दिन मुझे बड़ा बोरिंग लगता है यू नो। मेरी सासू माँ की बरसी। अब आप ही सोचिये कि जिस लेड़ी को मैं ठीक से जानती भी नहीं उसके लिये ये सारा कुछ करने की एक्सपॅक्टेशन मुझसे क्यों की जाती है? पता नहीं कौन कौन से बूढ़े और बोरिंग व्यक्ति आ जाते है इस दिन। और इतना खाते है कि पूछिये मत। और तो और सभी गँवारों के जैसे नीचे बैठकर खाते है। और हमारे दादा! उनकी तो पूछिये मत। प्ताा नहीं हमारे बारे में इन सभी लोगों को क्या क्या बताते रहते है।

इस सब चक्कर में अभि के पापा को घर पर रहना होता है और उनका बिजनेस लॉस होता है सो अलग। लेकिन कौन इन्हें समझाए। देखिये कैसे बैठे है सभी। छी! मुझे तो उनके सामने जाने की इच्छा भी नहीं होती। उसपर आज साड़ी पहननी पड़ती है सो अलग। अभि को तो मैं उसकी नानी के यहाँ भेज देती हूँ हमेशा लेकिन इस बार जिद करके रूका है वो यहाँ। मैं ध्यान रखती हूँ कि वो इनमें से किसी भी आऊट ऑफ डेट पीस के पास न चला जाए। ऐसा लग रहा है कि कब ये लोग एक बार के जाएँ यहाँ से और मैं साड़ी की जगह ढीली नाईटी पहनू।

लेकिन उस दिन आराम तो था ही नहीं जैसे किस्मत में। सबके साथ दादा खाने बैठे थे। वही हमेशा की आदत! सासू माँ के "चरित्र" का गुणगान! वे खाना अच्छा बनाती थी¸ वे मेहमाननवाजी अच्छी करती थी¸ उनके जाने के बाद तो जैसे घर में जान ही नहीं रही आदी आदी। और जानते है उतने में क्या हुआ? अभि वहाँ पहुंचा और उसने अपना वही डायलॉग सबके बीच में दादा पर मारा। उसका प्रेजेन्स ऑफ माईंड भी लाजवाब है।

"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।"

लेकिन दादा हमेशा की तरह तटस्थ नहीं बैठे रहे। वे गिर पड़े थे अपनी जगह पर ही।


खैर... हमें डॉक्टर ने बताया कि किसी शॉक के कारण ही हार्ट फेल हुआ है। अब जो आदमी इस दुनिया में ही नहीं रहा उसके लिये कोई कहाँ रूकता है भला। उन्होने उनका अंतिम संस्कार काशी में करवाने का लिखा था। हमने रमाबाई और उसके पति को टिकट निकालकर दे दिया था संस्कार कर आने के लिये। फिर हम प्लांड़ केरला ट्रिप पर गये। कितना फ्रस्ट्रेशन आया था अभि के पापा को। उससे बाहर निकलना भी तो जरूरी था।

अभि अपने साथ दादा का पुराना फोटो भी लाया था। एक दिन मैं और उसके पापा रिसोर्ट के लॉन में कॉफी पी रहे थे। उनका मूड थोड़ा ऑफ था। अभि भी कमाल का लड़का है हाँ। दादा का फोटो हमारे सामने रखा और कहने लगा¸


"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।"


हमारा हँसते - हँसते बुरा हाल था...

गद्यकोश से साभार


3 comments:

रवि कुमार, रावतभाटा said...

महानगरीय आपाधापी की संवेदनहीनता...
बेहतर...

उमेश महादोषी said...

महानगरीय और वर्तमान पीढी की संवेदनहीनता तथा वुजुर्गों के प्रति उसकी सोच पर यथार्थपरक टिप्पणी भी है और कटाक्ष भी।
और हां, मेरी लघुकथा को आपने ब्लाग पर स्थान दिया, बहुत आभारी हूँ।

प्रदीप कांत said...

संवेदनहीनता की हद है

किन्तु कोई इतना सम्वेदनहीन हो कैसे सकता है?